कब पूरा होगा संवेदनहीनता का ‘कोटा’ ?

Last Updated 05 Jan 2020 02:14:33 PM IST

राजस्थान में हुआ खिलवाड़ इसी बेशर्म सिलसिले की नई कड़ी लगती है। कोटा के जेके लोन अस्पताल में 34 दिन में 106 शिशुओं की मौत शर्म से सिर झुका देने वाली घटना नहीं तो फिर क्या है? प्रदेश सरकार ने जो सूचना साझा की है, उसके अनुसार इनमें से 70 बच्चे ‘न्यू बॉर्न इन्टेंसिव केयर यूनिट’ यानी एनआईसीयू में भर्ती हुए थे। इनमें 49 की हालत बेहद नाजुक थी।


कब पूरा होगा संवेदनहीनता का ‘कोटा’ ?

किसी भी समाज के विकसित होने की पहचान उसके स्वास्थ्य का स्तर भी होता है। करीब आधी सदी पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था इस बात पर मुहर लगा चुकी है। साल 1948 में ही उसने स्वास्थ्य को मानव अधिकार घोषणा पत्र में शामिल किया था। आज ये अधिकार 100 से ज्यादा देशों के संविधान में शामिल है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि विकास के तमाम दावों के बावजूद हम इन देशों में शामिल नहीं हैं, और शायद यही वजह है कि हमारे समाज में आए दिन स्वास्थ्य से जानलेवा खिलवाड़ होता है, और किसी जिम्मेदार के दामन पर दाग भी नहीं लगता।

राजस्थान में हुआ खिलवाड़ इसी बेशर्म सिलसिले की नई कड़ी लगती है। कोटा के जेके लोन अस्पताल में 34 दिन में 106 शिशुओं की मौत शर्म से सिर झुका देने वाली घटना नहीं तो फिर क्या है? प्रदेश सरकार ने जो सूचना साझा की है, उसके अनुसार इनमें से 70 बच्चे ‘न्यू बॉर्न इन्टेंसिव केयर यूनिट’ यानी एनआईसीयू में भर्ती हुए थे। इनमें 49 की हालत बेहद नाजुक थी। ज्यादातर बच्चे जन्म के समय मानक वजन ढाई किलो से कम के थे। लेकिन इन आंकड़ों में पूरे सच को छिपाने की ‘होशियारी’ भी दिखती है। अगर 70 में से 49 बच्चों की बेहद नाजुक हालत सच्चाई है तो एक सच ये भी है कि बाकी 21 बच्चे बेहद नाजुक अवस्था में नहीं थे। मतलब उनकी हालत एनआईसीयू में और खराब हुई। इस कदर खराब हुई कि जान ही चली गई। एक बार मरीज अस्पताल पहुंच जाए तो बहस इस बात पर नहीं होनी चाहिए कि उसकी हालत कितनी खराब थी बल्कि प्राथमिकता उसकी जान बचाने की होनी चाहिए। तकलीफदेह यह है कि कोटा में इसके ठीक उलट हुआ और इस बहस में कुछ ऐसे नवजात भी मौत के मुंह में चले गए जिनकी हालत उतनी बुरी नहीं थी।

जिस सरकार को नवजातों की जान बचाने के लिए खुद को झोंक देना चाहिए था, वो ऐसे मुश्किल समय में खुद को लाइफलाइन देने में बिजी थी। एक तरफ अस्पताल में दम तोड़ रहे बच्चों के परिवारों में मातम छाया था, तो दूसरी तरफ बीएसपी से आए 6 विधायकों को पार्टी में औपचारिक एंट्री दिलवाकर सरकार कुर्सी बच जाने का खामोश जश्न मना रही थी।

इस मामले में अशोक गहलोत सरकार का रवैया बिहार की नीतीश सरकार से अलग नहीं दिखता। दोनों ही मुख्यमंत्रियों ने बच्चों की मौत पर दुख और इस पर होने वाली राजनीति पर चिंता जताकर जैसे अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। राजस्थान में नवजात की मौत का आंकड़ा 2 जनवरी तक 106 पहुंच चुका था, लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अस्पताल जाने की फुर्सत नहीं मिली। बिहार में नीतीश कुमार मुजफ्फरपुर के अस्पताल तब पहुंचे थे, जब इंसेफलाइटिस से बच्चों की मौत का आंकड़ा 108 पहुंच गया था। तब ‘नीतीश गो बैक’ के नारे लगे थे। 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के गृह क्षेत्र गोरखपुर में तीन दिन के भीतर अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी की वजह से 60 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई थी, मगर तब भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसे ‘हादसा’ ही कहा, लापरवाही नहीं कहा। वास्तव में राजस्थान, बिहार या उत्तर प्रदेश की ये तीनों घटनाएं बच्चों की ‘सामूहिक हत्या’ कही जानी चाहिए।

तीनों राज्यों की सरकारों का रवैया मौत की संख्या को अप्रत्याशित मानने से बचने का दिखा था। बिहार में ‘हर साल ये मौत होती हैं’, ‘कोशिश की जा रही है’ या ‘फिर पहले से कम मौत हुई हैं’ जैसे बयान सामने आए थे। 2014 में 379 बच्चों की मौत की याद भी दिलाई गई कुछ इस कदर जैसे बिहार सरकार यह संदेश देना चाहती थी कि स्थिति पहले से बेहतर हुई है। राजस्थान के स्वास्थ्य मंत्री ने बच्चों की मौत को जिस तरीके से प्रीमैच्योर डिलीवरी से जोड़ा है, ठीक वही बहाना यूपी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने भी बनाया था। उन्होंने कहा था कि दो घंटे के लिए ऑक्सीजन की सप्लाई जरूर बंद थी लेकिन किसी बच्चे की मौत ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई। बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे तो महत्त्वपूर्ण बैठक में भी क्रिकेट का स्कोर जानने की कोशिश करते दिखे थे।

कोटा में जिन बच्चों की मौत हुई, उनमें से कई के माता-पिता तो बच्चों का नाम भी नहीं रख पाए। जयपुर से केवल 4 घंटे की दूरी होने के बावजूद स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा बृहवार तक अस्पताल का दौरा करने का समय नहीं निकाल पाए थे। शुक्रवार को जब वो अस्पताल पहुंचे तो प्रशासन ने भी अपनी संवेदनहीनता दिखाने में कोई शर्म नहीं की। पीड़ित माता-पिता बच्चों के लिए कफन तलाश रहे थे और प्रशासन मंत्री जी की अगवानी में ग्रीन कारपेट बिछा रहा था। बाद में जब किरकिरी हुई तब जाकर इसे हटाया गया। रघु शर्मा ने अस्पताल का दौरा करने के बाद जो जानकारी ट्विटर पर साझा की, उसके मकसद को भी इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने इस ट्वीट को राहुल गांधी, प्रियंका गांधी को जोड़ते हुए किया।

देश में नवजात बच्चों की मौत के आंकड़ों पर भी गौर करना जरूरी है। यूनीसेफ के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 6 लाख 30 हजार बच्चों की मौत हर साल जन्म के पहले चार हफ्तों में हो जाती है। इनमें से आधी संख्या तो सिर्फ  उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार में होती है। राजस्थान की बात करें तो यहां 28 दिन से कम उम्र में ही हर साल 34 हजार से ज्यादा नवजात दम तोड़ देते हैं। इस सूचना का महत्त्व यह बताने में है कि राजस्थान के कोटा में 34 दिन में 106 नवजात की मौत का आंकड़ा शायद इसी वजह से मुख्यमंत्री या स्वास्थ्य मंत्री को उद्वेलित नहीं करता।

डर की बात यह है कि जो हालात राजस्थान के हैं, वही कमोबेश पूरे देश की भी तस्वीर है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारी तैयारी ही मुकम्मल इलाज के सरकारी दावों की पोल खोल देती है। मौजूदा दौर में सरकार अपनी जीडीपी का 1.4 फीसद जन-स्वास्थ्य पर खर्च कर रही है, जो विकासशील देशों में सबसे कम है। सरकार ने पिछले साल इसे 2.5 फीसद तक ले जाने का वादा किया था मगर ऐसा हुआ नहीं। यूरोप के विकसित देश, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में यह खर्च 6 से 14 फीसद के बीच है।

केंद्र सरकार की ‘आयुष्मान भारत’ योजना के लिए दावा किया जाता है कि वो गरीब लोगों के लिए अब तक की सबसे फायदेमंद योजना है। लेकिन इस योजना को लेकर कितने ही आसमानी दावे कर लिए जाएं, मुजफ्फरपुर से लेकर गोरखपुर और अब कोटा की जमीनी हकीकत यही बताती है कि जिस देश में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अब तक कोई आधारभूत संरचना तैयार नहीं हो पाई है, वहां ‘आयुष्मान भारत’ जैसी योजना भी ‘विफलता का स्मारक’ ही साबित हो रही है।      

इस सबके बीच नवजातों की मौत पर राजनीति के आरोप भी लग रहे हैं। बीजेपी की चिंता सिर्फ  यही है कि प्रियंका गांधी क्यों चुप हैं, या फिर ये कि कांग्रेस को माताओं का शाप लगने वाला है। राजस्थान में एक साल पहले तक बीजेपी की सरकार रही थी। लोक सभा में सभी सीटें बीजेपी ने जीती हैं। मजबूत विपक्ष और बड़ा जनाधार होने के नाते जो प्रतिक्रिया मिलनी चाहिए थी, उसकी कमी महसूस की जा सकती है। जेके लोन अस्पताल से नवजात की निकलती लाशों के बाद क्या किसी सूबे के स्वास्थ्य मंत्री या मुख्यमंत्री को भी अपने पद पर रहने का नैतिक दायित्व रह जाता है? मगर, अब तक यह मांग भी नहीं उठी है।

विभिन्न राज्यों में मौत की जो पुरानी घटनाएं हुई हैं, उनमें जिम्मेदारों को दंडित करने की न चिंता दिखती है, न इच्छाशक्ति। गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की हुई मौत के मामले में जिस डॉ कफिल को जिम्मेदार घोषित कर दिया गया था, वह भी वास्तव में ‘बलि का बकरा’ साबित हुए। जांच में उन्हें निर्दोष पाया गया। तो क्या लापरवाही हुई ही नहीं? किसी की गलती थी ही नहीं?

बुनियादी ढांचे और जांच की बहस को अलग रख कर देखें तो इस मामले में हमारी संवेदनशीलता भी तेजी से खत्म होती दिखती है। कोटा जैसे मामलों का अंतहीन सिलसिला बताता है कि अंतरिक्ष में अपना स्वतंत्र स्टेशन और बुलेट ट्रेन चलाने में जुटे हमारे देश की प्राथमिकताएं कैसी और कितनी विचित्र हैं। इस विषय पर तहकीकात करने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। चिंता की बात यही है कि नवजात की मौत देश की राजनीतिक चिंताओं में प्राथमिकता पर आने में अब भी नाकाम है। यह देश की चिंता बने, ये सबसे अधिक जरूरी है।
(लेखक सहारा न्यूज नेटवर्क के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एवं एडिटर इन चीफ हैं)

उपेन्द्र राय


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