टूट रहा है बीजेपी का तिलिस्म?

Last Updated 28 Dec 2019 02:18:44 AM IST

बीजेपी की खुशकिस्मती है कि नरेन्द्र मोदी के प्रति लोगों का भरोसा अभी टूटा नहीं है। इसका असर चुनाव में वोटिंग के ट्रेंड से साफ दिखाई देता है। 2014 के आम चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी के वोट घटे थे, लेकिन मोदी के जादू की बदौलत पार्टी 2018 तक 19 राज्यों पर कब्जा जमाने में कामयाब हुई थी। राज्यों में वोटरों का एक ऐसा वर्ग है, जो आम चुनाव में मोदी के नाम पर वोट देता है, लेकिन विधानसभा में यही वर्ग पार्टी के कामकाज और उसकी छवि को महत्त्व देता है


टूट रहा है बीजेपी का तिलिस्म?

सियासत में जिस तरह दोस्ती-दुश्मनी का स्थायी दौर नहीं होता, उसी तरह सियासत में बुलंदी का भी कोई टिकाऊ ठौर नहीं होता। सफलता के तेज में चढ़ता दिन देखते-देखते नाकामी की शाम में बदल जाता है, और नाउम्मीदी की रात नई सुबह के बहाने नई उम्मीदें भी लेकर आती है। देश की सियासत भी इसी राह पर बढ़ती दिखाई दे रही है। सियासी युद्ध में अमेध पर निकला बीजेपी का घोड़ा लगातार हार की चोट से अब लड़खड़ाता दिख रहा है।

पिछले एक साल में जिन छह राज्यों में चुनाव हुए हैं, उनमें से पांच अब बीजेपी के हाथ से निकल चुके हैं, और हरियाणा में भी जो सत्ता हाथ लगी है, वह बैसाखी पर टिकी है। केवल दो साल में बीजेपी के लिए देश काफी बदल गया है। दिसम्बर, 2017 में देश का जो 75 फीसद क्षेत्र भगवा रंग में डूबा था, अब वह आधे से कम होकर 35 फीसद पर आ गया है। दो साल पहले बीजेपी या एनडीए देश की 69 फीसद आबादी पर शासन कर रही थी, अब वह सिमट कर 35 फीसद रह गई है। 19 राज्यों में सत्ता पर काबिज बीजेपी 16 राज्यों तक सिकुड़ कर रह गई है। यह उल्लेख भी जरूरी है कि प्रमुख राज्यों में हार के बीच बीजेपी ने कर्नाटक, मिजोरम, त्रिपुरा और मेघालय में सरकारें बनाई हैं। मगर बीजेपी ने वह रुतबा खो दिया है, जब एक समय पंजाब को छोड़कर पूरे उत्तर भारत पर उसका शासन था। अब हिन्दी हार्टलैंड में बीजेपी सिर्फ  उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार और हरियाणा में रह गई है। सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नगालैंड, मेघालय, मिजोरम, असम, त्रिपुरा-ये वे 8 राज्य हैं, जो बीजेपी शासित राज्यों की गिनती को 16 बनाते हैं।
 

लेकिन आंकड़ों के इस तिलिस्म का असली खेल से मेल नहीं होता। जमीनी हालात इससे भी ज्यादा चिंताजनक हैं। नतीजे बताते हैं कि देश की जनता में पार्टी को लेकर भरोसे का क्षरण बड़ी तेजी से हुआ है। झारखंड की हार इसकी ताजा मिसाल है, जहां बीजेपी को गहरा आघात लगा है। बीजेपी की इस हार को महाराष्ट्र से भी बड़ा धक्का इसलिए माना जा रहा है क्योंकि वहां गठबंधन के सहयोगी दल को सत्ता से बाहर होने का जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, लेकिन झारखंड में यह कारण भी नदारद है। 2018 से लेकर 2019 के बीच झारखंड छठा ऐसा राज्य है, जहां बीजेपी सत्ता से बेदखल हुई है। सबसे पहले 2018 में जम्मू-कश्मीर बीजेपी के हाथ से निकला, फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की बारी आई। यह सब लोक सभा चुनाव 2019 से पहले की बात है। लेकिन 2019 के आम चुनाव के नतीजों ने वह सारा गम धो दिया जब अपने दम पर बीजेपी ने 303 सीटें जीतकर एक इतिहास रच दिया।

नतीजों को लेकर मंथन
आम चुनाव-2019 के बाद अब तक तीन राज्यों महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में चुनाव हुए हैं, जहां नतीजों को लेकर मंथन का दौर जारी है। महाराष्ट्र की सत्ता हाथ से निकलने का मतलब यह नहीं है कि मतदाताओं में बीजेपी अलोकप्रिय हो गई है। मगर, इसका अर्थ यह जरूर है कि कहीं न कहीं बीजेपी के स्वभाव में ऐसा बदलाव आया है कि सहयोगी भी उसके साथ रहने को तैयार नहीं हैं। जो लोग इसे सिर्फ शिवसेना की महत्त्वाकांक्षा और उद्धव ठाकरे के लिए सीएम पद के मोह के तौर पर देख रहे हैं, वह वास्तव में बीजेपी के हितैषी नहीं हैं। सत्ता की साझेदारी की कीमत पर भी अगर एनडीए सरकार महाराष्ट्र में होती तो वह बेहतर विकल्प होता। ढाई साल का फॉर्मूला भी स्वीकार किया जा सकता था, लेकिन बीजेपी ने इसके लिए तैयार होने के बजाए विपक्ष में बैठना उचित समझा।

नतीजों का भूकंप तो हरियाणा में भी आया था। मगर वहां इमारत नहीं गिरी। हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के ज्यादातर सहयोगी चुनाव हार गए। पार्टी बहुमत से दूर रह गई। मगर उपलब्धि ही कही जाएगी कि जेजेपी के सहयोग से हरियाणा में बीजेपी की सरकार बची रह गई। इस परिप्रेक्ष्य में झारखंड का अनुभव बीजेपी के लिए दो कारणों से बहुत बुरा है। एक तो जनता ने बीजेपी को बुरी तरह से ठुकरा दिया। दूसरा, वह सहयोगी दलों से भी हाथ धो बैठी। वोटों के प्रतिशत की गणना करने वाले कह सकते हैं कि बीजेपी के जनाधार पर आंच नहीं आई है। मगर, उन्हें यह बात भी जेहन में रखनी होगी कि जनाधार तो एजेएसयू का भी बढ़ा। जब अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा जाता है, तो वोट प्रतिशत का बढ़ना स्वाभाविक होता है। इसलिए यह जनाधार को मापने का सही पैमाना नहीं दिखता। फिर भी बीजेपी और एजेएसयू को मिलाकर अगर 41 प्रतिशत वोट मिल रहे हैं, तो मानना पड़ेगा कि बीजेपी ने अपनी रणनीति की असफलता के कारण झारखंड को खोया है।

बीजेपी की खुशकिस्मती है कि तमाम झंझावातों के बावजूद पीएम मोदी को लेकर लोगों का भरोसा अभी टूटा नहीं है। इसका असर चुनाव में वोटिंग के ट्रेंड से साफ दिखाई देता है। साल 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी के वोट घटे थे, लेकिन मोदी के जादू की बदौलत पार्टी साल 2018 तक 19 राज्यों पर कब्जा जमाने में कामयाब हुई थी। राज्यों में मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग है, जो लोक सभा चुनाव में तो खुलकर नरेन्द्र मोदी के नाम पर वोट देता है, लेकिन विधानसभा में यही वर्ग पार्टी के कामकाज और उसकी छवि को महत्त्व देता है। बीजेपी के हिस्से में आए वोट प्रतिशत इसी ओर इशारा करते हैं। अगर जनता विरोध में होती तो बीजेपी को इतने वोट कैसे आते? दूसरी ओर, अगर जनता साथ में है तो एक के बाद एक उसके हाथ से राज्य क्यों निकलते जा रहे हैं?

जमीनी हालत देखकर तो यही लगता है कि लगातार हार के बावजूद बीजेपी ने इन नतीजों से कोई सबक नहीं सीखा है। विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी के प्रचार में स्थानीय मुद्दों को दरकिनार कर राष्ट्रीय मुद्दों की भरमार दिखी है। महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव ऐसे समय हुए थे, जब मोदी सरकार ने अनु.370 को हटाने का ऐतिहासिक फैसला किया था। झारखंड चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर के पक्ष में निर्णय सुनाया तो चुनाव के ठीक बीच में सरकार ने विपक्ष के तीखे विरोध के बावजूद सीएए को अमलीजामा पहनाया। बीजेपी के प्रचार में बड़े फैसलों की चमक में स्थानीय मुद्दे गुम हुए तो राज्य के मतदाता भी उससे दूर हो गए।

बीजेपी की मुश्किलें
राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर बीजेपी की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं हो रहीं। एनआरसी और सीएए को लेकर जेडीयू, एलजेपी, एसएडी और असम गण परिषद जैसे एनडीए के सहयोगियों ने जिस तरह विरोध शुरू किया है, उससे सवाल खड़ा हो गया है कि बीजेपी इन मोचरे पर अब किसके दम पर आगे बढ़ेगी। एनआरसी और सीएए को अगले साल पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनाव के लिए बीजेपी की तैयारी के रूप में देखा जा रहा है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल से ही ममता बनर्जी बीजेपी के लिए लास्ट फ्रंटियर साबित होती रही हैं। लोक सभा चुनाव में प. बंगाल के नतीजों से भले बीजेपी के मन में लड्डू फूटा हो लेकिन विधानसभा में तमाम कोशिशों के बावजूद ममता को पटखनी देना अब भी सपना बना हुआ है। लेकिन ममता के खिलाफ सियासी युद्ध में उतरने से पहले बीजेपी को बिहार और दिल्ली की लड़ाई भी लड़नी है, जहां हवा इशारा कर रही है कि दोनों राज्यों का घमासान उसे परेशान करने जा रहा है। झारखंड के नतीजे के बाद बिहार में एनडीए परिवार में कोई भी आसानी से छोटा भाई बनने को तैयार नहीं होगा। झारखंड के चुनाव में बीजेपी से अलग चुनाव लड़कर नीतीश कुमार और रामविलास पासवान इसकी बानगी दिखा चुके हैं।   

रही बात दिल्ली की, तो बीते दो सालों में बीजेपी जिस तेजी से राज्यों की सत्ता से दूर हुई है, उसी रफ्तार में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली वालों की रोजमर्रा की जिंदगी पर सकारात्मक असर डालने वाले फैसलों की झड़ी लगाकर जिस तरह अपनी बुनियाद मजबूत की है, उसे देखते हुए बीजेपी के लिए दिल्ली में दोबारा अपनी जड़ें जमाना आसान नहीं दिख रहा। दिल्ली की लड़ाई का बिगुल फूंकने के लिए रामलीला मैदान में बीजेपी ने पीएम मोदी की जिस रैली का आयोजन किया, उसने भी इस सवाल का जवाब देने के बजाय नये सवाल खड़े कर दिए। एनआरसी पर पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के विरोधाभासी बयानों से लेकर डिटेंशन सेंटर पर सही जानकारी नहीं देने पर बीजेपी के लिए अपने सबसे बड़े चेहरे का बचाव करना ही मुश्किल हो रहा है। बीजेपी के लिए यह हालत परेशानी भरी इसलिए भी है कि पीएम मोदी का यही चेहरा अब तक उसकी जीत की इकलौती गारंटी रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर तो यह पहचान अभी भी अक्षुण्ण दिखाई देती है, लेकिन राज्यों में जहां-जहां क्षेत्रीय क्षत्रपों के विकल्प मौजूद हैं, वहां बीजेपी विपक्ष के चक्रव्यूह में फंस रही है। बिहार हो या बंगाल, दिल्ली हो या दक्षिण के राज्य, आने वाले दिनों में बीजेपी को बार-बार ऐसे चक्रव्यूह से दो-चार होना पड़ेगा।    
 

उपेन्द्र राय


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