लगाइए नहीं, आग बुझाइए

Last Updated 29 Dec 2019 12:07:32 AM IST

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन (एनआरसी) और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) पर भ्रम, राजनीति और विवाद बढ़ता ही जा रहा है।


लगाइए नहीं, आग बुझाइए

देशभर में अशांति जैसी स्थिति खत्म हो, इसकी कोशिश भी अपने-अपने तरीके से की जा रही है। मगर ये कोशिशें अब तक परवान नहीं चढ़ सकी हैं। सियासत की बेशक, अपनी मजबूरियां हों, लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज के अंदर से निकले सुलह के सुर से सद्भाव के गीत गुनगुनाने का माहौल जरूर बना है। ऐसी बीसियों कोशिशों, जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा है, में से एक मुम्बई के पुलिस आयुक्त संजय बर्वे की है, और दूसरी सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत की। बर्वे ने जो किया उसकी चारों ओर तारीफ हो रही है, जबकि सेनाध्यक्ष ने जो कहा उस पर सियासत हो रही है।

कहने का मतलब यह है कि एनआरसी पर असम के रास्ते दिल्ली पहुंच कर पूरे देश में फैला विवाद रुकता नहीं दिख रहा है। एक तरफ दिल्ली की सड़कों पर आगजनी और पथराव की घटनाओं ने देश को झकझोरा है, तो जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिर्वसटिी के कैम्पस में पुलिस का एक्शन भी विवादों में है। यूपी में मेरठ, बिजनौर, अलीगढ़, रामपुर, मुजफ्फरनगर समेत कई जिलों में हिंसक प्रदर्शनों में गोलियां चलने से 18 लोग मारे जा चुके हैं। अब विवाद इस बात पर है कि ये जानलेवा गोलियां पुलिस की बंदूक से चली या प्रदर्शनकारियों के तमंचे से। हिंसा बिहार में भी हुई और कर्नाटक में भी। बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में प्रदर्शन बेलगाम होने का डर दिखाने के बाद नियंत्रित हो गया। विवाद के अंदर का विवाद, विरोध के अंदाज पर भी है। इसे इस नजरिये से भी देखा जा रहा है कि विपक्ष शासित राज्यों में तो हिंसा नहीं के बराबर हुई जबकि सत्ताधारी दल के राज्यों में प्रदर्शनकारियों से टकराकर सरकार लाचार हो गई। सत्ता पक्ष इस नजरिये को इस आधार पर चुनौती दे रहा है कि हिंसा विपक्ष की ओर से प्रायोजित है, इसलिए ऐसी तस्वीर देखने को मिल रही है। इसके बरक्स विपक्ष की दलील है कि सरकार ने खुद हिंसा के माहौल को हवा दी और अब हालात उसके संभाले नहीं संभल रहे हैं।

विवाद का एक पहलू यह भी है कि हिंसक प्रदर्शन में मारे गए लोगों को प्रियंका गांधी ने शहीद कहा है, जबकि सत्ताधारी दल उन्हें दंगाई बता रहे हैं। इससे ‘शहीदों’ के लिए मुआवजे की रस्म और दंगाइयों पर किसी भी तरह का ‘रहम’ नहीं करने को लेकर विवाद है। कर्नाटक में घोषणा के बावजूद मुआवजा बांटने पर रोक लगी तो मदद पश्चिम बंगाल से आ गई। विरोध का चेहरा बनीं  ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी की ओर से गोलीकांड में शिकार शख्स के परिजन को 5 लाख रुपये मुआवजे में देने की घोषणा की। यूपी में भी सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान की वसूली प्रदर्शनकारियों से करने की कोशिशों पर विपक्ष का विरोध सामने आया है।

गौर करने वाली बात यह है कि हिंसा के इस दौर में महाराष्ट्र ने देश को ‘नागरिकता’ का पाठ पढ़ाया है। मुम्बई में अगस्त क्रांति मैदान का विरोध प्रदर्शन जिस तरह से नियंत्रित रहा, वह देशभर में उदाहरण है। आगे भी प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित रखा जाए, इसके लिए पुलिस कमिश्नर संजय बर्वे ने स्थानीय मौलानाओं और मुस्लिम धर्म-गुरु ओं से बातचीत के रास्ते खोले। उन्हें समझाया कि नागरिकता कानून में यह पहला नहीं बल्कि छठा संशोधन है, और असम में जो एनआरसी लागू हुई है,वह पूरे देश में लागू नहीं होने जा रही है। ऐसे में मुस्लिम समाज अगर अपना भ्रम दूर करेगा तो डर अपने आप दूर हो जाएगा। यह कमोबेश वैसा ही संदेश है जिसे देशभर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने संबोधन में स्पष्ट किया है। इसलिए जब मुम्बई के पुलिस कमिश्नर जमीन पर इस संदेश के सेतु बने तो वहां शांति बनाए रखने का सरकार का हेतु भी सफल रहा। मुम्बई पुलिस की भी तारीफ हो रही है, जिन्हें प्रदर्शनकारियों ने चाय पिलाई और उनके नाम के जयकारे लगाए।

लेकिन शांति स्थापना की दूसरी कोशिश विवादों में घिर गई। सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने लीडरशिप की बात करते हुए एक बयान दिया कि नेता वह नहीं होते जो लोगों को गलत दिशा में ले जाते हैं। स्वाभाविक तौर पर सेनाध्यक्ष का यह बयान शहरों में हो रही हिंसा और आगजनी कर रही भीड़ को लेकर था। इस भीड़ का नेतृत्व कथित तौर पर कॉलेज और यूनिर्वसटिी छात्र कर रहे थे। निरपेक्ष भाव से देखने पर सेनाध्यक्ष की टिप्पणी में कुछ गलत नहीं है। मगर सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर बंटे माहौल के बीच बयान को निरपेक्ष भाव से लिया जाना भी आसान नहीं। विपक्ष इस बयान को सेना प्रमुख का अपने दायरे से बाहर दिया गया बयान बता रहा है। इसके लिए इमरजेंसी के हालात और जेपी के आंदोलन का हवाला दिया गया है। दलील दी जा रही है कि इमरजेंसी के दौरान जेपी का आंदोलन भी हिंसारहित नहीं रहा था। इमरजेंसी के समय के आंदोलनों में शामिल नेता आज मुख्यधारा की राजनीति में हैं। इसलिए किसी आंदोलन को सिर्फ  हिंसा का उदाहरण देकर आंदोलनों की वजह को खारिज नहीं किया जा सकता।

जाहिर है कि विपक्ष इसे अपने चश्मे से देख रहा है। दरअसल, बिपिन रावत 31 दिसम्बर को रिटायर हो रहे हैं, और विपक्ष को लग रहा है कि इस बयान के पीछे रिटायरमेंट के बाद कॅरियर की उनकी प्लानिंग है। भले ही विपक्ष के पास इसका कोई आधार नहीं है, लेकिन लगता है कि इन ‘हवाई’ कयासों को मौजूदा सेनाध्यक्ष के समर्थन में पूर्व सेनाध्यक्ष और सरकार में मंत्री वीके सिंह के बयान से हवा मिली है। विपक्ष अंदेशा जता रहा है कि रिटायरमेंट के बाद वीके सिंह ने जिस राह को चुना, उसी राह पर मौजूदा सेनाध्यक्ष ने भी अपने कदम बढ़ा दिए हैं। हालांकि यह बात फिर दोहराई जाएगी कि विपक्ष के पास इसका कोई आधार नहीं है। वैसे भी देश भरोसे के साथ जिन हाथों में अपनी सुरक्षा सौंपता है, उन पर अविश्वास की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। देश हित में सेनाध्यक्ष पहले भी कश्मीर से लेकर पाकिस्तान पर अपने मन की बात सार्वजनिक करते रहे हैं।

चर्चा अरुंधति रॉय के उस विवादास्पद बयान की भी खूब हुई है, जिसमें उन्होंने देश की जनता खासकर छात्रों को एनपीआर के लिए गलत जानकारी देने के लिए कथित तौर पर उकसाया है, और परोक्ष रूप से देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के लिए अपमानजनक टिप्पणी की। वैसे विवादों में पीएम नरेन्द्र मोदी की वो टिप्पणी भी आई है, जिसमें उन्होंने प्रदर्शकारियों की पहचान उनके कपड़ों से होने की बात कही थी। झारखंड की चुनावी रैली से निकली इस टिप्पणी पर विपक्ष वहां नई सरकार बन जाने के बाद भी निशाना साध रहा है।

आज देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन, हिंसा, कर्फ्यू, इंटरनेट पर रोक, धारा 144 जैसे हालात यकीनन सरकार के लिए चुनौती बने हुए हैं। जरूरत इस विरोध को संवाद के जरिए सुलह के रास्ते पर ले जाने की है। अगर सरकार मानती है कि भ्रम फैलाया जा रहा है, तो उसे इसका जवाब लेकर सामने आना चाहिए। यह सिर्फ  तथ्य सामने रखकर बहस जीतने से नहीं होगा, बल्कि इसके लिए लोगों का भरोसा भी जीतना होगा। सवाल यह है कि जो पहल मुम्बई में पुलिस का एक आला अधिकारी कर सकता है, वो देश की सरकार क्यों नहीं कर सकती? जब महाराष्ट्र में सत्ताधारी दल और विपक्ष किसी बात पर एक-राय हो सकते हैं, तो राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष और सत्ता पक्ष को एक होने से कौन रोक रहा है? जाहिर है इस ओर कोशिश होगी तो नतीजे भी निकलेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर यह कोशिश जल्द दिखेगी।

उपेन्द्र राय


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