छोटे की ’सरदारी‘, बड़ों की लाचारी

Last Updated 16 Nov 2019 11:59:49 PM IST

वक्त का पहिया जब घूमता है, तो अजब-गजब संयोग-वियोग रचता है। देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ऐसे समय में दुनिया से रुखसत हुए हैं, जब उनके लागू किए गए चुनाव सुधार को नई धार के साथ इंट्रोड्यूज किए जाने की देश को सबसे ज्यादा जरूरत है।


छोटे की ’सरदारी‘, बड़ों की लाचारी

खासकर महाराष्ट्र के ताजा सूरतेहाल में तो यह और भी जरूरी हो गया है, जहां सियासी फायदा गठबंधन की मर्यादा पर भारी पड़ा है, जहां व्यक्तिगत मान से जनादेश का अपमान हुआ है, और जहां प्रदेश की भलाई सत्ता की मलाई के सामने बौनी हो गई है। चुनाव में महाराष्ट्र की जनता ने बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को पांच साल सरकार चलाने का मौका दिया, लेकिन यह जनादेश सियासी अवसरवादिता की भेंट चढ़ गया। पचास-पचास के फॉर्मूले को राज्य की जनता का टेस्ट बताकर शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ सियासी जीत के लिए बीस स्टाइल में सत्ता की टीम ही बदल दी। हालांकि राज्य में राष्ट्रपति शासन लग जाने से इन दलों का सत्ता हासिल करने का प्लान फिलहाल कुछ समय के लिए टल गया है।

खुद को सियासत का शेर बताने वाली शिवसेना, बीजेपी से तीस साल पुराना साथ भूलकर सत्ता के लिए उसी कांग्रेस-एनसीपी का हाथ थामे दिखी जिससे अब तक उसका बैर था। नतीजा यह हुआ कि 105 सीट जीत कर सबसे बड़ा दल होने के बावजूद बीजेपी पिछड़ गई, जबकि सीटें घटकर 56 पर गिरने के बावजूद शिवसेना सत्ता की रेस में बरकरार है। यह अब तक साफ नहीं हो पाया है कि बीजेपी-शिवसेना के बीच कोई पचास-पचास का फॉर्मूला था भी या नहीं। देवेंद्र फडणवीस ने इसे सिरे से नकारा है, तो शिवसेना ने इसी सिरे को पकड़ कर बीजेपी से किनारा किया है। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर यही फॉर्मूला था, तो फिर शिवसेना कम सीटों पर लड़ने के लिए क्यों तैयार हो गई? क्या 288 सीटों वाली विधानसभा में केवल 56 सीट जीत कर शिवसेना का सीएम की मांग करना जायज है? बीजेपी पर अहंकार का ठीकरा फोड़कर शिवसेना फिलहाल ऐसे तमाम सवालों को प्रदेश के सरोकार और खुद को जिम्मेदार दल बताकर दरकिनार कर रही है।

वैसे महाराष्ट्र में जो हुआ, वह देश की सियासत में पहली बार नहीं हुआ है, और ऐसा भी नहीं है कि आगे नहीं होगा। गठबंधन सरकार में छोटे दलों का इस तरह ‘सरदार’ बनना बड़े दलों को पहले भी लाचार करता रहा है। सत्ता में छोटे दलों की हिस्सेदारी से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन इसकी आड़ में देश और प्रदेश की जिम्मेदारी भुलाकर व्यक्तिगत और क्षेत्रीय लक्ष्य साधने की प्रवृत्ति खतरनाक है। अब तो यह परंपरा बनती जा रही है कि छोटे दल चुनाव से पहले अपने-अपने कद के हिसाब से टिकट की फरमाइश करते हैं, और फिर जीत के बाद सत्ता के मद में बढ़ी हुई महत्त्वाकांक्षा की खुलेआम नुमाइश करते हैं।

क्षेत्रीय दलों के नेता रेल, कोयला जैसे अहम मंत्रालयों पर काबिज रह चुके हैं, लेकिन जब-जब ऐसा हुआ है, तब-तब इन मंत्रालयों से जुड़ी योजनाओं को जमीन पर उतारने में क्षेत्रीय फायदे को राष्ट्रीय हितों पर तरजीह दी गई है। इसका असर यह रहा कि जब भी क्षेत्रीय दल हावी हुए हैं, देश में विकास का ग्राफ असंतुलित हुआ है। क्षेत्रीय दलों के दबदबे वाले राज्यों की स्टोरी लाइन भी इन्हीं पैरामीटर पर आगे बढ़ी है। बिहार इसका सटीक उदाहरण है, जहां लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड ने जातीय गोलबंदी को एक बार फिर सत्ता का विनिंग फॉर्मूला बनाने में कामयाबी हासिल की थी। लेकिन सत्ता में आते ही राजद ने जिस तरह भ्रष्टाचार और ताकत के दम पर क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करना शुरू किया, उसने सरकारी तंत्र में जंग लगाना शुरू कर दिया। इसका साइड इफेक्ट सुशासन का वादा करने वाले नीतीश कुमार पर दिखा। नीतीश कुमार की खुशकिस्मती रही कि उन्हें केंद्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे ईमानदार छवि वाले नेता का समर्थन मिल गया जिन्होंने आड़े वक्त में नीतीश कुमार का साथ देने के लिए अपनी राज्य इकाई को तैयार किया। बीजेपी के इस कदम के पीछे बेशक राज्य में अपनी सियासी पैठ बढ़ाने की भी मंशा रही, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मार्गदर्शन में इस सहयोग से नीतीश कुमार न केवल लालू प्रसाद यादव से पीछा छुड़ा पाए, बल्कि बिहार को भी बाकी देश की तरह विकास की राह पर बढ़ाने में कामयाब हो पाए। 

कमोबेश यही हालात उत्तर प्रदेश के भी रहे हैं। बेशक, बीजेपी की प्रचंड विजय ने राज्य में फिलहाल छोटे दलों पर अंकुश लगाया हुआ है,लेकिन यह भी हकीकत है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की सरकारों के दौरान प्रदेश के लोगों का जो हाल रहा वह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन सपा और बसपा, इन दोनों पार्टियों ने जिस तरह जातीय गोलबंदी और क्षेत्रवाद को हवा दी, उससे उत्तर प्रदेश की उत्तम प्रदेश वाली छवि को बड़ा धक्का लगा। आज हालत यह है कि जो उत्तर प्रदेश कभी राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र होता था, वहीं सियासत की आड़ में अपने हित साधने वाले क्षेत्रीय दलों का केंद्र बनकर रह गया है। प्रदेश के सियासी दलदल में पीस पार्टी, ऑल इंडिया उलेमा काउंसिल, कौमी एकता दल, रालोद, अपना दल, भासपा, निषाद दल जैसे कई दल अपनी ताल ठोक रहे हैं। इनमें समाजवादी पार्टी से अलग होकर लड़ रहे शिवपाल यादव और दलित नेता के रूप में उभरे चंद्रशेखर आजाद के नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

दक्षिण और उत्तर-पूर्व के राज्यों में तो सत्ता की चाभी पूरी तरह से क्षेत्रीय दलों के हाथों में है। इन राज्यों में राष्ट्रीय दल तमाम कोशिशों के बावजूद सियासी तालों की तोड़ नहीं ढूंढ़ पाए हैं। छोटे दलों के अस्तित्व में आने की एक वजह कांग्रेस को माना जाता है। देश के ज्यादातर क्षेत्रीय दल कांग्रेस के कमजोर पड़ने पर बने। उस दौर में कांग्रेस कमजोर पड़ी तो चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे भी कमजोर पड़ने लगे। उनकी जगह ले ली स्थानीय मुद्दों  ने जिन्हें क्षेत्रीय दलों ने खुद के फायदे के लिए जमकर इस्तेमाल किया। आगे चलकर इन क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस से उसकी ही सियासी जमीन हथिया ली।

हालत यह है कि देश की सियासत में हाशिए पर पहुंच चुकी कांग्रेस की हैसियत आज खुद एक बड़े क्षेत्रीय दल वाली हो गई है। जिन राज्यों में उसकी बीजेपी से सीधी टक्कर नहीं है, और जहां-जहां बीजेपी की जमीन कमजोर हुई है, वहां कांग्रेस नहीं, बल्कि क्षेत्रीय पार्टियां ही उसे चुनौती पेश कर रही हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी का उदय इसी का नतीजा है। हरियाणा और महाराष्ट्र में हाल में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेशक उम्मीदों से बेहतर रहा हो, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि दोनों राज्यों में कांग्रेस को अपना वजूद बचाने के लिए एनसीपी और जेजेपी जैसे क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना पड़ा। हालांकि जब सरकार बनाने का मौका आया, तो जेजेपी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विकास और स्थिर सरकार देने के रिकॉर्ड को देखते हुए कांग्रेस के बजाय बीजेपी का हाथ थामा।

लोक सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रचंड जीत के बाद कयास लग रहे थे कि अब देश को क्षेत्रीय दलों की ‘सौदेबाजी’ से मुक्ति मिल जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी की देशव्यापी लोकप्रियता और उनके नेतृत्व में देश में विकास की बढ़ी रफ्तार से ये कयास काफी हद तक सही भी साबित हुए, लेकिन महाराष्ट्र का ताजा घटनाक्रम बताता है कि छोटे दलों का सिरदर्द दूर करने के लिए अभी देश की सियासत को और इलाज की जरूरत है।

उपेन्द्र राय


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