सामाजिक समरसता की तरफ बड़ा कदम

Last Updated 16 Nov 2019 07:55:49 AM IST

परोपकार, दूसरों के प्रति सम्मान और स्नेह, सांसारिक तनाव से मुक्ति, आध्यात्म का सुकून और व्यक्तिगत मोह, भारतीय संस्कृति के वे पांच तत्व हैं, जिनसे सामाजिक समरसता के शरीर की रचना होती है।


सामाजिक समरसता की तरफ बड़ा कदम

ठीक भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के भूमि, गगन, वायु, अग्नि और जल जैसे पांच तत्वों की ही तरह जिनके बिना न तो मानव शरीर का निर्माण संभव है, न ही पृथ्वी पर जीवन। लेकिन संस्कृति के इन भावनात्मक पांच तत्वों और जीवन दर्शन के भौतिक पांच तत्वों में एक बड़ा अंतर है। संस्कृति के पांच तत्व हर समाज में निहित होते हुए भी काल के अनुसार कम या ज्यादा हो सकते हैं, लेकिन मानवीय विकास से जुड़े शरीर में कभी भी कुछ कम या ज्यादा नहीं हो सकता। इसलिए शरीर की नश्वरता विज्ञान और धार्मिंक आधार पर सबसे बड़ा सत्य है जबकि भारतीय संस्कृति के समाज में होने वाली हर छोटी-बड़ी घटनाएं इन तत्वों की सकारात्मक या नकारात्मक ऊर्जा पर निर्भर हैं।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण सदियों से बेड़ियों में जकड़ी हुई आस्था पर इतिहास की पृष्ठभूमि से निकला अयोध्या विवाद का हल है। 1992 में विवादित ढांचे के गिराए जाने से पहले की तस्वीर जिनके जहन में होगी, उसकी बनावट ठीक धार्मिंक लबादे में लिपटे हुए शरीर की होगी। उस तस्वीर के रंग सात्विक से ज्यादा धार्मिंक उन्माद की हरारत से भरे बदन वाले होंगे, उस तस्वीर का आकार जय-जय श्रीराम के गगनभेदी नारों की तीव्र ध्वनि जैसा होगा। उस समय के हालात धार्मिंक सहिष्णुता का परिचय नहीं दे रहे थे, बल्कि व्यक्तिगत मोह धर्म के नाम पर सजाई गई बलिवेदी पर सामाजिकता के भाव का बलिदान मांग रहा था। यह सब उस वक्त इसलिए हो रहा था, क्योंकि भारतीय संस्कृति में समाहित परोपकार, दूसरों के प्रति सम्मान और स्नेह का भाव समाज से कम हो चुका था। जिस अध्यात्म के दर्शन से भगवान राम को देखा जा रहा था, उसमें संस्कृति का एक भी तत्व नहीं था, बल्कि वह उन्माद और व्यक्तिगत मोह था। विवादित ढांचा गिरने के बाद से लगातार समाज पर उंगलियां उठनी शुरू हुई, भौतिकवादी बुद्धिजीवी वर्ग परंपरागत सामाजिक संरचना को रूढ़िवाद से जोड़कर कोसता रहा और परंपरागत सामाजिक संरचना में भारतीय संस्कृति के जानकार भौतिकवादी समाज पर फब्तियां कसते रहे। लेकिन 1992 से लेकर अब तक 27 वर्षों में समाज ने भारतीय संस्कृति के पांच तत्वों का कितना पोषण किया, इसके दर्शन अयोध्या विवाद पर देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले की मुहर ने कराए हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने करीब 400 वर्ष पुराने विवाद का फैसला 40 दिन की सुनवाई के बाद कर दिया। घोषणा कर दी कि विवादित स्थान रामलला का है, लेकिन बदले हुए सहिष्णु समाज ने जिस तरीके से इस निर्णय को स्वीकार किया, उस स्वरूप ने दिखा दिया कि हिंदुस्तान की मिट्टी में संस्कृति की सोंधी खुश्बू अभी बाकी है। परोपकार की भावना, दूसरों के प्रति सम्मान और स्नेह, अध्यात्म का सुकून जैसे तत्वों का संतुलन अभी बरकरार है। भारतीय समाज ने यह भी बताया कि मंदिर और मस्जिद की इमारत उनकी मान्यता की धुरी हो सकती है, लेकिन निखरी हुई मानवता उनके अपने बनाए धर्म की धुरी है। न तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर किसी ने आपत्ति जताई, न ही कोई उन्माद फैला। न किसी ने इस निर्णय को जीत के तराजू में तौला, न हार से मुरझाए मुखमंडल की रौनक उड़ी। अयोध्या विवाद पर फैसला भारतीय संस्कृति में धर्म और मानवता की विजय बनकर आया, जिसे हिंदू और मुस्लिम धर्मावलम्बियों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

समाज की विशेषताओं का भौतिक चित्रण
अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने समाज की कई विशेषताओं का भौतिक चित्रण प्रकिया है। बदले समाज की पहली विशेषता यह है कि अयोध्या विवाद में जो पक्षकार थे, सभी ने इस फैसले को हृदय की गहराई से स्वीकार किया। बाबरी मस्जिद के पक्षकार इकबाल अंसारी हों, या फिर जमीन के मालिकाना हक की लड़ाई लड़ रहा सुन्नी वक्फ बोर्ड, दोनों पक्षकारों ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर न करने का फैसला कर एक विवाद का हमेशा-हमेशा के लिए अंत कर दिया, जो सामाजिक एकता और समरसता बनाए रखने के नजरिये से अब तक का सबसे बड़ा कदम है। ठीक ऐसे ही सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद निर्माण के लिए जिस 5 एकड़ जमीन को अलग से देने का फैसला सुनाया, उस पर किसी भी पक्ष ने आपत्ति न जताकर सामाजिक एकता की भावनात्मक डोर को और मजबूती दी।

अयोध्या मसले पर सांस्कृतिक विजय और भावनात्मक विश्लेषण से अलग एक और विश्लेषण आधुनिक समाज का भी है। अयोध्या विवाद का जो विश्लेषण 1992 से हो रहा है, वह मौजूदा वक्त में बेमानी भी लगता है क्योंकि समय, काल और परिस्थिति हर समाज में बदलाव लेकर आती हैं, ठीक ऐसा ही अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने से लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक के काल में हुआ। 1992 के दौर में विवादित ढांचा गिराने में उस वक्त के युवा सबसे ज्यादा सक्रिय थे। ये वह युवा वर्ग था, जिसने देश के अलग-अलग हिस्सों से अयोध्या तक कूच किया था, कारसेवा के लिए समय निकाला था, धर्म के नाम पर अपने कर्म को छोड़कर अयोध्या पहुंचा था। यह वही दौर था जब भारत में आर्थिक उदारवाद की शुरुआत होने जा रही थी, उस दौर में प्रति व्यक्ति आय बहुत कम थी, वस्तुओं का मूल्य भी आय के अनुसार ही तय था, भौतिक सुख-सुविधाओं की न तो उस समय इतनी अधिक लालसा थी, न ही युवाओं के मन में वर्तमान युवा जितने बड़े सपने और चुनौतियां थीं। इसलिए युवाओं का भटकना और उन्माद की तरफ आकर्षित होना ठीक उतना ही आसान था, जितना काल्पनिक रजतपट की दुनिया में आज है। लेकिन मौजूदा दौर आर्थिक उदारवादी व्यवस्था का काल है, जहां युवा वर्ग को रोजगार, परिवार और आय स्रोत बढ़ाने की चिंता है, भौतिक विलासिता की वस्तुएं आज जरूरत बन गई हैं, उनकी रुचि बेहतर जीवन-शैली की दासता से घिरी है, इसलिए आज के युवा की दिलचस्पी अयोध्या विवाद में कम ही रही।

असर सिर्फ खबरों तक सीमित
मौजूदा दौर के युवाओं के मन में अयोध्या विवाद और उससे जुड़े फैसले का असर सिर्फ खबरों तक ही सीमित रहा। इतिहास जानने की लालसा रखने वाले युवा आपस में वाद-विवाद तक सीमित रहे। सर्वोच्च अदालत के निर्णय का इंतज़ार भी मौजूदा दौर के युवाओं के लिए विषयविहीन ही रहा। इसके पीछे की वजह इस्लाम के अनुयायियों की दिलचस्पी का कम होना भी रहा। सियासत से जुड़े कुछ लोगों के लिए भले ही यह एक बड़ा मुद्दा था, लेकिन सच यही है कि न तो मुस्लिम युवा की इस विषय में कोई दिलचस्पी थी, न ही हिंदू युवा वर्ग पर किसी भी फैसले से कोई असर होने वाला था। इसलिए हर धर्म के युवा वर्ग ने फैसले को स्वीकार किया। अदालत के फैसले में रोजगार के साधन तलाशने वाले युवाओं को अवसर की संभावना मिल गई। यह अवसर फूलों की दुकान से लेकर, हस्तशिल्प, कारीगरी, होटल व्यवसाय, कुटीर एवं गृह उद्योग और स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज तक है। अयोध्या विवाद पर फैसले का सबसे ज्यादा असर जिस बिरादरी पर पड़ना था, वहां भी ज्यादा हलचल नहीं दिखी।

इस विवाद में राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी भूमिका थी, लेकिन बदले माहौल में राजनीतिक दलों के एजेंडे से यह मुद्दा भी हमेशा के लिए खत्म हो गया। राम मंदिर के मुद्दे पर बीजेपी नेताओं का सबसे ज्यादा हस्तक्षेप माना जाता रहा है, लेकिन बदले परिवेश में समाज की भावना को परखते हुए बीजेपी की सक्रियता उतनी नहीं दिखाई दी, जिसके कयास लगाए जा रहे थे। मामले में बीजेपी के विश्वास की सराहना जरूर की जा सकती है, क्योंकि कुछ राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर अध्यादेश लाकर मंदिर बनाने का भरपूर दबाव बनाने की कोशिश की थी, लेकिन उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा जताकर देश के संविधान का मान बढ़ाया। बीजेपी के अलावा दूसरे राजनीतिक दलों ने भी फैसले पर चुप्पी बनाए रखी, जिससे उन्हें कोई फायदा तो नहीं हुआ, लेकिन वे भावनात्मक नुकसान से भी बच गए। सिर्फ  एआईएमआईएम ने ही सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की रचनात्मक आलोचना की, जिसे पूरे देश ने सिरे से खारिज कर दिया।

अयोध्या मामले में भारतीय समाज ने जिस हिंदुस्तान का दर्शन पूरी दुनिया को सिखाया है, उस दर्शन को हिंदुस्तान में एक छत के नीचे रहने वाले हर धर्म ने मान्यता दी है। सिख धर्म की सबसे अनमोल गुरुवाणी की दो पंक्तियां 'अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बंदे। एक नूर ते सब जग उपज्या, कौन भले कौ मंदे।' मौजूदा दौर का यही दर्शन है।
 

उपेन्द्र राय


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