नजरिया : चीन पर ’आउट ऑफ बॉक्स‘ मोदी

Last Updated 13 Oct 2019 12:26:22 AM IST

इतिहास आसानी से मिटता नहीं, बदल जरूर जाता है। चीन-भारत की दोस्ती के अफसाने को चीन भले ही भूल गया, लेकिन महाबलीपुरम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रयोगशाला में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को दोस्ती के सदियों पुराने सच्चे प्रमाण मिले।


नजरिया : चीन पर ’आउट ऑफ बॉक्स‘ मोदी

जिस दोस्ती की चमक वक्त ने धुंधली कर दी उसे पूरी दुनिया ने एक बार फिर करीब से देखा। दुनिया में बेहद कम समय में अपनी धाक जमाने और विश्व राजनीति में नया रुतबा बनाने में प्रधानमंत्री मोदी ने जो मिसाल हासिल की है, उसकी तुलना किसी और से नहीं की जा सकती। पहले कार्यकाल में विकास पुरुष से लेकर विश्व पुरुष की अपनी छवि को और पुख्ता बनाने के बाद दूसरे कार्यकाल की शुरु आत में ही बड़ी तेजी से विश्व विजेता की पहचान बनाते जा रहे हैं। चीनी राष्ट्रपति के अनौपचारिक यात्रा पर भारत आने को दुनिया में भारत और प्रधानमंत्री मोदी के बढ़ते दबदबे के नजरिये से ही देखा जा रहा है। जो चीन दुनिया की किसी भी शक्ति को अपने से आगे रखने से गुरेज करता रहा है, वही चीन आज यह कहने के लिए मजबूर है कि भारत के बिना एशिया की 21वीं सदी असंभव है।

बेशक,ये तस्वीर रातों-रात नहीं बदली हैं, लेकिन ये भी हकीकत है कि इसमें बड़ी कामयाबी पिछले पांच सालों में ही हासिल हुई है। इस दौरान भारत को लेकर चीन भी मानने लगा है कि अगर दोनों देशों के संबंध अच्छे नहीं रहते हैं, तो एशिया का उदय असंभव है। यकीनी तौर पर यह बदलाव पांच साल में दुनिया की नजरों में भारत के कद और मान-सम्मान में हुए इजाफे का ही नतीजा है। जो चीन अपनी जिद से अमेरिका जैसे देश को भी झुकने के लिए मजबूर कर देता है, वह खुद अब यह सोचने के लिए मजबूर हुआ है कि अगर भारत से सीमा विवाद को शांतिपूर्ण ढंग से निपटा लिया जाए तो यह दुनिया के सामने एक मिसाल बन जाएगी। इससे दुनिया को संदेश मिलेगा कि कैसे दो ताकतें एक साथ आ सकती हैं।

दोनों देशों के बीच संबंधों में भारत के बढ़ते दबदबे का असर कश्मीर मसले पर चीन के यू-टर्न से भी दिखाई दे जाता है। चीन ने पहले भारत और पाकिस्तान को कश्मीर विवाद को यूएन चार्टर के मुताबिक सुलझा लेने की सलाह दी। लेकिन जैसे ही भारत का दबाव पड़ा कश्मीर पर चीन का रुख बदल गया। भारत के आपत्ति जताते ही चीन के विदेश मंत्रालय ने कश्मीर को भारत-पाकिस्तान का आपसी मसला बता दिया। वैसे भी महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कश्मीर मसले पर चीन ने क्या बोला। महत्त्वपूर्ण यह है कि कश्मीर मुद्दे के बावजूद चीन भारत के साथ नजदीकी संबंध की हिमायत करता दिख रहा है। भारत और चीन के बीच विवाद के मुद्दे पहले से रहे हैं फिर भी द्विपक्षीय संबंध के आड़े वे मुद्दे कभी नहीं आए।

हाल के वर्षो में चीन ही नहीं, अमेरिका भी कई बार भारत के हित के खिलाफ दिए बयानों पर सफाई देने के लिए मजबूर हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति इस मामले में बेहद सफल रही है कि भारत ने किसी को नाराज किए बिना सबको साधने में सफलता पाई है। फिलहाल, अमेरिका और चीन दो धुरी दिख रहे हैं, और भारत इन से समान नजदीकी रखते हुए तीसरा केंद्र बन रहा है। बिम्सटेक के पड़ोसी देश हों या यूएई और बहरीन जैसे मुस्लिम देश, या फिर अमेरिका-चीन हों, प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत राजनयिक पहुंच की वजह से भारत के इन देशों से संबंध पहले से बेहतर हुए हैं। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाने के विरोध को लेकर दुनिया भर में हुई पाकिस्तान की किरकिरी मोदी की विदेश नीति की सफलता है। इसे मोदी की विदेश नीति का ही करिश्मा कहा जाएगा कि एक ही वक्त में पाकिस्तान और अब तक उसे सरपरस्ती देता आया अमेरिका, दोनों उनके सामने मजबूर दिखाई देते हैं।

22 सितम्बर को ह्यूस्टन में हाउडी मोदी कार्यक्रम में जो कुछ हुआ, वैसा अमेरिका में पहले कभी नहीं हुआ। अमेरिका के इतिहास में मोदी ऐसे पहले विदेशी नेता बनकर सामने आए, जिनके लिए 50 हजार लोगों की भीड़ उमड़ी। प्रधानमंत्री मोदी के इस वैश्विक आकर्षण से कार्यक्रम में उनके साथ शामिल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को भी शायद दोबारा सत्ता में वापसी का सपना सच होता दिखा होगा। आज दुनिया की यह सोच बन गई है कि मोदी जिस तरह का जोखिम भरा फैसला ले सकते हैं, वैसी इच्छाशक्ति भारत में पहले कभी दिखाई नहीं दी। एलओसी और पाकिस्तानी सीमा में आतंकी शिविरों पर हमले और अनु. 370 में संशोधन के बड़े फैसलों के बाद मोदी की साहसिक निर्णय लेने वाली इस छवि में और इजाफा हुआ है।
संयोग से विश्व राजनीति में चीन भी जिनपिंग के लिए इसी ओहदे की हसरत रखता है। हालांकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि जिनपिंग चीन के अब तक के सबसे ताकतवर राष्ट्र प्रमुख हैं, और वे आजीवन इस स्थिति में रहेंगे, यह भी तय है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसा न सही लेकिन अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में जिनपिंग की भी अलग पहचान और पकड़ है। इसे प्रधानमंत्री मोदी की दूरदर्शिता ही कहा जा सकता है कि अपनी आक्रामक विदेश नीति के बीच भारत के व्यापक हितों को देखते हुए उन्हें चीन की जरूरत का भी ख्याल है। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और भारत का सबसे शक्तिशाली पड़ोसी। दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंध भी अहम हैं। भारत चीनी सामान का सातवां सबसे बड़ा बाजार है, जबकि भारत की बनी वस्तुओं की चीन के कारोबार में हिस्सेदारी 27वें नम्बर पर है।

मोदी पार्ट-1 में साल दर साल चीन का भारत में निवेश बढ़ा है। चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ के मुताबिक 2014 में चीन ने भारत में 145 मिलियन डॉलर का निवेश किया जो एक साल बाद करीब 6 गुणा बढ़कर 870 मिलियन डॉलर के करीब जा पहुंचा। डोकलाम विवाद के बावजूद भारत-चीन के बीच कारोबारी रिश्ते में मजबूती आई। तनाव के दौरान 2017 में दोनों देशों के बीच 84.44 बिलियन डॉलर का कारोबार हुआ। ये बातें इसलिए अहम हैं क्योंकि ग्लोबल मंदी के बीच अमेरिका से छिड़े ट्रेड वॉर में चीन को अरबों का घाटा हो रहा है। साथ ही, शी की महत्त्वाकांक्षी सीपेक और वन रोड वन बेल्ट योजना में बड़ी पूंजी फंस गई है। इन हालात में चीन को अपने कारोबार का विस्तार भारतीय बाजार में दिख रहा है। शायद यही वजह है कि चीन के लिए भारत आज मजबूरी ही नहीं, जरूरी भी बन गया है।

नेतृत्व की व्यक्तिगत साख के बीच आज दोनों देशों के पास एक दूसरे को घेरने के पर्याप्त मुद्दे भी हैं। चीन के पास अगर कश्मीर का मुद्दा है, तो भारत के पास हांगकांग और शिनिजयांग है। चीन अगर पाकिस्तान की पीठ सहलाता है, तो भारत के पास भी अमेरिका और रूस से गले मिलने का विकल्प है। इसके बावजूद अगर दोनों देश विवादों को सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझाने की सोच रहे हैं, तो इसे दूरदर्शी रणनीति ही कही जाएगी। इसका बड़ा श्रेय भी प्रधानमंत्री मोदी के खाते में ही जाता है। पिछले पांच साल में मोदी-जिनपिंग छह बार द्विपक्षीय मुलाकात कर चुके हैं। इनमें पहली चार मुलाकातें औपचारिक थीं। लेकिन पिछले साल वुहान जाकर मोदी ने अनौपचारिक मुलाकातों का जो अनूठा सिलसिला शुरू किया, उसे विश्व राजनीति का ‘आउट ऑफ द बॉक्स’ आइडिया कहा जा रहा है। जिनपिंग की महाबलीपुरम यात्रा उसी मुलाकात का रिटर्न गिफ्ट है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी है तो मुमकिन है की तर्ज पर अब यह कयास लगने भी शुरू हो गए हैं कि जिस तरह डोकलाम विवाद के बाद पैदा हुए तनाव को वुहान की मुलाकात ने दूर किया, उसी तरह कश्मीर की बयानबाजी के बाद महाबलीपुरम में तनाव की जड़ मिटाने का रास्ता ही निकल आए।

उपेन्द्र राय


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