हिन्दी विवाद: सियासी पैंतरा या भाषा की चिंता
हाल में कर्नाटक में बेंगलुरु मेट्रो के साइन बोडरे पर हिन्दी के इस्तेमाल को लेकर छिड़ा विवाद अब स्थानीय मुद्दा नहीं रह गया है। धीरे-धीरे पूरे दक्षिण भारत में फैल चुका है।
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सोशल मीडिया से लेकर टेलीविजन डिबेट्स तक में गूंज रहा है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के कार्यकर्ता भी सक्रिय हो गए हैं। हाल में उन्होंने मुंबई के मीरा रोड पर मोर्चा निकाला जहां वे हिन्दी में लिखे साइन बोर्ड हटाने की मांग कर रहे हैं।
एमएनएस कार्यकर्ता जगह-जगह दुकानों और प्रतिष्ठानों पर जाकर मराठी में बोर्ड लगाने की अपील कर रहे हैं। हिन्दी में लिखे साइन बोडरे को हटाने की चेतावनी दे रहे हैं। उनका यह भी कहना है कि मुंबई में रहने वालों को मराठी आनी ही चाहिए। इसे ‘हिन्दी थोपने’ के खिलाफ सांस्कृतिक लड़ाई के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर #StopHindiImposition जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं, और राजनीतिक दल इसे भाषाई अस्मिता का मुद्दा बना कर भुना रहे हैं। इस विवाद ने दक्षिण बनाम हिन्दी की बहस को हवा दे दी है। कन्नड़ संगठनों और कुछ क्षेत्रीय नेताओं ने इसे ‘हिन्दी थोपने’ का प्रयास बताया हैं, वहीं सोशल मीडिया पर भी हिन्दी के खिलाफ तीखे स्वर उठे हैं।
यह कोई पहली बार नहीं हुआ। समय-समय पर दक्षिण भारत से हिन्दी विरोध के स्वर उठते रहे हैं, जो अक्सर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक की राजनीति का साधन बन जाते हैं। ताजा विवाद याद दिलाता है, जब कन्नड़ अभिनेता किच्चा सुदीप ने 2022 में कहा था कि हिन्दी अब राष्ट्र भाषा नहीं रही। इस बयान पर बॉलीवुड अभिनेता अजय देवगन ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी। कहा था कि हिन्दी राष्ट्र भाषा थी, है, और रहेगी। देखते ही देखते यह सांस्कृतिक बहस से खिसक कर राजनीतिक मुद्दा बन गया था। कर्नाटक के कई नेताओं ने तब भी हिन्दी पर सवाल उठाए थे। वही सिलसिला अब मेट्रो के साइन बोडरे को लेकर फिर सिर उठा रहा है।
सवाल यह है कि आखिर, हिन्दी पर बार-बार का हमला क्यों? हिन्दी कोई थोपी गई भाषा नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम के दौर में लाखों भारतीयों के सपनों की आवाज थी। गांधी, नेहरू, पटेल जैसे नेताओं ने हिन्दी को राष्ट्रीय एकता का माध्यम माना। आज भी हिन्दी उत्तर भारत की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की संपर्क भाषा है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में हिन्दी बोलने वालों की संख्या 53 करोड़ से अधिक है। पिछले 50 सालों में हिन्दी बोलने वालों की आबादी में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। हिन्दी न केवल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान जैसे राज्यों की प्रमुख भाषा है, बल्कि महानगरों में भी प्रवासी भारतीयों के कारण लगातार फैल रही है।
दक्षिण भारतीय भाषाओं की बात करें तो तेलुगू को 6.7%, तमिल को 5.7% और कन्नड़ को मात्र 3.6% लोग मातृ भाषा मानते हैं। फिर भी हिन्दी पर निशाना साधना राजनीतिक दलों के लिए सुविधाजनक मुद्दा बना हुआ है। हिन्दी का विरोध करने वाले अक्सर तर्क देते हैं कि हिन्दी का प्रभुत्व क्षेत्रीय भाषाओं को कमजोर कर देगा। पर क्या सचमुच ऐसा है? तथ्य तो यह कहते हैं कि हिन्दी और अन्य भाषाओं में सहअस्तित्व है। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत की ही फिल्म इंडस्ट्री को लें। कन्नड़ फिल्म केजीएफ-2ने हिन्दी डबिंग के दम पर लगभग 900 करोड़ रुपये की कमाई की। दक्षिण की फिल्मों को पैन-इंडिया हिट बनाने में हिन्दी का योगदान छुपा नहीं है।
यह भी सच है कि भारत की भाषाई विविधता उसकी ताकत है। तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, मराठी, बंगाली जैसी भाषाएं हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। इन्हें बचाना और सहेजना जरूरी है। लेकिन इनकी अस्मिता को हिन्दी के विरोध के बहाने राजनीतिक मंच पर भुनाना खतरनाक प्रवृत्ति है। तमिलनाडु का इतिहास इस राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण है। 1937 में हिन्दी को स्कूलों में अनिवार्य बनाने के प्रयास के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन 1965 तक आते-आते हिंसक हो गया था। राजाजी (सी. राजगोपालाचारी) जैसे नेता इसे उत्तर भारतीय प्रभुत्व के प्रतीक के रूप में पेश किया करते थे। आज वही रणनीति कर्नाटक में भी दोहराई जा रही है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल में न्यायपालिका में हिन्दी के उपयोग की वकालत कर हिन्दी प्रेमियों में उम्मीदें जगाई हैं पर सरकार को भी समझना होगा कि किसी भी भाषा को थोपना एकता को नहीं, बल्कि विभाजन को जन्म देता है। हिन्दी के प्रसार का मार्ग स्वाभाविक स्वीकार्यता से ही निकलेगा, न कि आदेशों या कानूनों से। दक्षिण भारत के कई नेता हिन्दी को ‘आक्रमणकारी’ भाषा की तरह पेश करते हैं। लेकिन सच यह है कि हिन्दी करोड़ों भारतीयों के दिलों की आवाज है। न केवल हमारी संस्कृति, बल्कि हमारी पहचान का भी हिस्सा है। हिन्दी पर वार दरअसल, भारत की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता पर चोट है। यह समय है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल इस तथ्य को समझें।
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