छात्रों में आत्महत्या : जानलेवा बन रही अव्वल आने की होड़
टॉपर संस्कृति के दबाव और अव्वल आने की होड़ में छात्रों द्वारा तनाव, अवसाद, कुंठा में आत्महत्या कर लेना गंभीर समस्या है।
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दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी छात्र प्रतिभाएं आसमानी उम्मीदों, टॉपर संस्कृति के दबाव और शिक्षा तंत्र की विसंगतियों के चलते आत्मघात की शिकार हो रही हैं। हाल में छात्रों की लगातार दुखद मौतें जहां शिक्षा प्रणाली में अतिश्योक्तिपूर्ण प्रतिस्पर्धा पर प्रश्न खड़े करती है, वहीं विचलित भी करती हैं।
निश्चित रूप से छात्र-छात्राओं के लिए घातक साबित हो रही टॉपर्स संस्कृति में बदलाव लाने के लिए नीतिगत फैसलों की सख्त जरूरत है। राजस्थान सरकार की ओर से प्रस्तावित कोचिंग संस्थान (नियंत्रण एवं विनियमन) विधेयक इस दिशा में बदलावकारी साबित हो सकता है। लेकिन केंद्र सरकार को भी ऐसे ही कदम उठाने होंगे ताकि छात्रों में आत्महत्या की समस्या के दिन-पर-दिन विकराल होते जाने पर अंकुश लग सके। दुखद ही है कि सुनहरे सपने पूरा करने का ख्वाब लेकर कोटा गए चौदह छात्रों ने इस साल आत्महत्याएं कीं।
विडंबना यह है कि बार-बार चेतावनी देने के बावजूद कोचिंग संस्थानों के संरचनात्मक दबाव, उच्च दांव वाली परीक्षाओं, गलाकाट स्पर्धा, दोषपूर्ण कोचिंग प्रथाएं और सफलता की गारंटी के दावों का सिलसिला थमा नहीं है। यही वजह है कि हाल में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण यानी सीसीपीए ने कई कोचिंग संस्थानों को भ्रामक विज्ञापनों और अनुचित व्यापारिक प्रथाओं के चलते नोटिस दिए हैं। दरअसल, कई कोचिंग संस्थान जमीनी हकीकत के विपरीत शीर्ष रैंक दिलाने और चयन की गारंटी देने के थोथे एवं लुभावने वादे करते रहते हैं। निस्संदेह, ऐसे खोखले दावे अक्सर कमजोर छात्रों और चिंतित अभिभावकों के लिए घातक चक्रव्यूह बन जाते हैं। छात्रों को अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के लिए बाध्य करना और योग्यता को अंकों के जरिए रैंकिंग से जोड़ना कालांतर में अन्य छात्रों को भी निराशा के भंवर में फंसा देता है। वास्तव में सरकार को ऐसा पारिस्थितिकीय तंत्र विकसित करना चाहिए जो विभिन्न क्षेत्रों में रु चि रखने वाले युवाओं के लिए पर्याप्त संख्या में रोजगार अवसर पैदा कर सके।
आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है, जो दिल को दहलाता है, डराता है, खौफ पैदा करता है, दर्द देता है। वैसे छात्रों की आत्महत्या कोई नई बात नहीं है, ऐसी खबरें हर कुछ समय बाद आती रहती हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले एक दशक में कोचिंग संस्थानों में ही नहीं, आईआईटी जैसे संस्थानों में भी 52 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। यह संख्या इतनी छोटी भी नहीं कि ऐसे मामलों को अपवाद मान कर नजरअंदाज कर दिया जाए। बेशक, ऐसे हर मामले में अवसाद का कारण कुछ अलग रहा होगा, वे अलग-अलग तरह के दबाव होंगे, जिनके कारण ये छात्र-छात्राएं आत्महत्या के लिए बाध्य हुए होंगे। शैक्षणिक दबावों के चलते छात्रों में आत्महंता होने की घातक प्रवृत्ति का तेजी से बढ़ना हमारे नीति-निर्माताओं के लिए चिंता का कारण बनना चाहिए। क्या विकास के लंबे-चौड़े दावे करने वाली सरकार ने इसके बारे में कभी सोचा?
विचित्र है कि जो देश दुनिया भर में अपनी संतुलित जीवनशैली एवं अहिंसा के लिए जाना जाता है, वहां के शिक्षा-संस्थानों में हिंसा का भाव पनपना एवं छात्रों के आत्महंता होते जाने की प्रवृत्ति का बढ़ना अनेक प्रश्नों को खड़ा कर रहा है लेकिन क्या कुछ सार्थक पहल होगी? जरूरी है कि कोचिंग संस्थान अपनी कार्यशैली एवं परिवेश में आमूल-चूल पर्वितन करें ताकि छात्रों पर बढ़ते दबावों को खत्म किया जा सके। फिलहाल, जरूरी यह भी है कि इन संस्थानों में ऐसा तंत्र विकसित किया जाए जो निराश, हताश और अवसादग्रस्त छात्रों के लगातार संपर्क में रह कर उनमें आशा का संचार कर सके। आज रोजगार के अवसर लगभग समाप्त हैं।
ग्रेजुएशन कर चुकने वाला छात्र किसी दफ्तर में ही अपने लिए संभावनाएं तलाशता है, लेकिन नौकरी नहीं मिलती। बेरोजगारी अवसाद की ओर ले जाती है, और अवसाद आत्महत्या में त्राण पाता है। कोचिंग संस्थानों एवं शिक्षा के उच्च संस्थान में अवसाद पसरा है और उसके कारण छात्र यदि आत्महत्या करते हैं, तो यह उच्च शैक्षणिक संस्थानों एवं कोचिंग संस्थानों के भाल पर बदनुमा दाग है। माना जाता है कि देश की प्रखर प्रतिभाएं कोचिंग संस्थानों में पहुंचती हैं, जहां आत्महत्या की लगातार खबरें यह तो बताती ही हैं कि कोचिंग संस्थानों में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। जरूरी है कि कोचिंग संस्थान अपनी कार्यशैली एवं परिवेश में आमूल-चूल पर्वितन करें। जब छात्रों में अव्वल आने की मनोवृत्ति, कॅरिअर एवं ‘बी नम्बर वन’ की दौड़ सिर पर सवार होती है, और उसे पूरा करने के लिए छात्र साधन, क्षमता, योग्यता एवं परिस्थितियां नहीं जुटा पाते तो कुंठित, तनावग्रस्त एवं अवसादग्रस्त हो जाते हैं, ऐसे व्यक्ति को अंतिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है।
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