रेगिस्तान : मौसम का बदलता मिजाज

Last Updated 06 May 2024 01:19:22 PM IST

एक ही महीने में दूसरी बार दुबई में बादल फटने से बाढ़ के हालात पैदा हो गए। रेगिस्तान की तपती रेत में पानी का मिलना सदियों से आकस्मिक और चमत्कारिक घटना माना जाता है। तपती रेत पर हवा गर्म हो कर कई बार पानी होने का भ्रम देती है, और प्यासा उसकी तलाश में भटकता रहता है।


रेगिस्तान : मौसम का बदलता मिजाज

इसे ही मृगतृष्णा कहते हैं। गर्म रेत के अंधड़ों से बचने के लिए ही खाड़ी के देशों के लोग ‘जलेबिया’ यानी सफेद लंबा चोगा पहनते हैं, और सिर पर कपड़े को गोल छल्लों से कस कर बांधते हैं, जिससे आंधी में वो उड़ न जाए। इन रेगिस्तानी देशों में ऊंट की लोकप्रियता का कारण भी यही है कि वो कई दिन तक प्यासा रह लेता है, रेत पर तेजी से दौड़ लेता है। इसीलिए उसे रेगिस्तान का जहाज भी कहते हैं।

जब से खाड़ी देशों में पेट्रो-डॉलर आना शुरू हुआ है, तब से तो इनकी रंगत ही बदल गई। दुनिया के सारे ऐशोआराम और चमक-दमक इनके शहरों में छा गई। अकूत दौलत के दम पर इन्होंने दुबई के रेगिस्तान को हरे-भरे शहर में बदल दिया जहां घर-घर स्विमिंग पूल और फव्वारे देख कर कोई सोच भी नहीं सकता कि ये सब रेगिस्तान में हो रहा है। पर जैसे ही आप दुबई शहर से बाहर निकलते हैं, आपको चारों ओर रेत के बड़े-बड़े टीले ही नजर आते हैं। न हरियाली और न पानी। इन हालात में स्वाभाविक ही था कि दुबई का विकास इस तरह किया गया कि उसमें बरसाती पानी को सहेजने की कोई भी व्यवस्था नहीं है। इसलिए जब 75 साल बाद वहां बादल फटा तो बाढ़ के हालात पैदा हो गए। कारें और घर डूब गए। हवाईअड्डे में इतना पानी भर गया कि दर्जनों उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। एक तरफ इस चुनौती से दुबईवासियों को जूझना था और दूसरी तरफ वे इतना सारा पानी और इतनी भारी बरसात देख कर हर्ष में भी डूब गए।

पर ऐसा हुआ कैसे? क्या यह वैश्विक पर्यावरण में आए बदलाव का परिणाम था या कोई मानव-निर्मिंत घटना? खाड़ी देशों में आई इस बाढ़ की वजह कुछ विशेषज्ञों ने ‘क्लाउड सीडिंग’ यानी कृत्रिम बारिश बताई है। जब एक निश्चित क्षेत्र में अचानक अपेक्षा से कई गुना ज्यादा बारिश हो जाती है, तो उसे हम बादल फटना कहते हैं। कुछ वर्ष पहले इसी तरह की घटना भारत में केदारनाथ, मुंबई और चेन्नई में भी हुई थी। तब से आम लोगों में यह जानने की जिज्ञासा रही है कि ऐसा कैसे और क्यों हुआ?

दरअसल, आधुनिक वैज्ञानिकों ने इतनी तरक्की कर ली है कि वे बादलों में बारिश का बीजारोपण करके कहीं भी और कभी बारिश करवा सकते हैं। करते यह हैं कि जहां पर ज्यादा भांप से भरे बादल इकट्ठा होते हैं, उसमें ‘क्लाउड सीडिंग’ कर देते हैं। हालांकि, हाल में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार अमेरिकी मौसम वैज्ञानिक रयान माउ इस बात को मानने से इनकार करते हैं कि दुबई में बाढ़ की वजह ‘क्लाउड सीडिंग’ है। उनके मुताबिक खाड़ी देशों पर बादल की पतली लेयर होती है जहां ‘क्लाउड सीडिंग’ के बावजूद इतनी बारिश नहीं हो सकती कि बाढ़ आ जाए। ‘क्लाउड सीडिंग’ से एक बार में ही बारिश हो सकती है। इससे कई दिनों तक रुक-रु क नहीं होती जैसा कि वहां हो रहा है। माउ के मुताबिक अमीरात और ओमान जैसे देशों में तेज बारिश की वजह ‘क्लाइमेट चेंज’ है। जो ‘क्लाउड सीडिंग’ का इल्जाम लगा रहे हैं, वो ज्यादातर उस मानसिकता के हैं, जो मानते ही नहीं कि ‘क्लाइमेट चेंज’ जैसी भी कोई चीज होती है।

‘क्लाउड सीडिंग’ तकनीक हमेशा से बहस का विषय रही है। दशकों के शोध से स्थैतिक और गतिशील बीजारोपण तकनीकें सामने आई हैं। ये तकनीकें 1990 के दशक के अंत तक प्रभावशीलता के संकेत दिखाती हैं परंतु कुछ संशयवादी लोग सार्वजनिक सुरक्षा और पर्यावरण के लिए संभावित खतरों पर जोर देते हुए ‘क्लाउड सीडिंग’ के खतरों के खिलाफ शोर मचाते रहे हैं। चूंकि सरकारें और निजी कंपनियां जोखिमों के बदले लाभ को ज्यादा महत्त्व देती हैं, इसलिए ‘क्लाउड सीडिंग’ विवाद का विषय बना हुआ है जबकि कुछ देशों में इसे कृषि और पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए अपनाया जाता है। अन्य संभावित परिणामों से अवगत होकर भी ऐसे देश इस पर सावधानी से आगे बढ़ते हैं।

इतिहास की बात करें तो ‘क्लाउड सीडिंग’ का आयाम वियतनाम युद्ध के दौरान ‘ऑपरेशन पोपेय’ जैसी घटनाओं से मेल खाता है। उस समय मौसम में संशोधन एक सैन्य उपकरण था। विस्तारित मानसून के मौसम और परिणामी बाढ़ के कारण 1977 में एक अंतरराष्ट्रीय संधि हुई जिसमें मौसम संशोधन के सैन्य उपयोग पर रोक लगा दी गई। रूसी संघ और थाईलैंड जैसे देश हीट वेव और जंगल की आग को दबाने के लिए इसका सफलतापूर्वक उपयोग कर रहे हैं, जबकि अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिया सूखे को कम करने के लिए वर्षा के दौरान पानी के अधिकतम उपयोग के लिए इसकी क्षमता का उपयोग कर रहे हैं।

संयुक्त अरब अमीरात में इस तकनीक का उपयोग कृषि क्षमताओं का विस्तार करने और अत्यधिक गर्मी से लड़ने के लिए सक्रिय रूप से किया जाता है। एक शोध के अनुसार पता चला है कि कुछ विदेशी कंपनियां इसे सक्रिय रूप से नियोजित करती हैं विशेषकर ओला-प्रवण क्षेत्रों में जहां बीमा कंपनियां संपत्ति के नुकसान को कम करने के लिए परियोजनाओं को वित्त-पोषित करती हैं।

‘क्लाउड सीडिंग’ के प्रयोग विभिन्न आयामों में फैले हुए हैं। सूखे को कम करने के लिए वष्रा पैदा करना। कृषि क्षेत्र में ओला वृष्टि का प्रबंधन करना। स्की रिसॉर्ट क्षेत्र में भारी बर्फबारी करवा कर इसका लाभ उठाना। जल विद्युत कंपनियों द्वारा इसका उपयोग कर वसंत अपवाह को बढ़ावा देना। ऐसा करने से कोहरे को साफ करने में भी मदद मिलती है, जिससे हवाईअड्डों पर विजिबिलिटी बढ़ती है। आर्थिक लाभ के लिए सरकारें और उद्योगपति कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं।

यही बात ‘क्लाउड सीडिंग’ के मामले में भी लागू होती है जबकि ‘क्लाउड सीडिंग’ के लंबे समय तक बने रहने वाले स्वास्थ्य जोखिमों पर भी गंभीरता से ध्यान दिए जाने की जरूरत है। आधुनिकता के नाम पर जैसे-जैसे हम ‘क्लाउड सीडिंग’ के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं, विशेषज्ञों द्वारा इसके सभी आयामों पर शोध करना एक नैतिक अनिवार्यता है। ऐसे शोध न केवल संपूर्ण हों, बल्कि ‘क्लाउड सीडिंग’ के स्वास्थ्य संबंधी जोखिमों के खिलाफ संभावित लाभों का आकलन भी करते हों, वरना दुबई जैसी तबाही के दृश्य अन्यत्र भी दिखेंगे।

विनीत नारायण


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment