रवींद्र जयंती : मानवतावाद के कवि

Last Updated 07 May 2024 01:42:03 PM IST

गुरुदेव के नाम से विख्यात कवि लेखक संगीतकार एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी तथा राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ के रचयिता और भारत के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने साहित्य, शिक्षा, संगीत, कला, रंगमंच और शिक्षा के क्षेत्र में अपनी बहुमुखी प्रतिभा से वह स्थान प्राप्त किया है जो विरले ही प्राप्त कर पाते हैं। अपने मानवतावादी दृष्टिकोण के चलते रवींद्र बाबू को विश्व कवि का दर्जा दिया गया है।


रवींद्र जयंती : मानवतावाद के कवि

उनके काव्य के मानवतावाद ने उन्हें दुनिया भर में पहचान दिलाई। दुनिया की अनेक भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद हुआ। टैगोर की रचनाएं बांग्ला साहित्य में एक नई शैली एवं चिंतन लेकर आई। 7 मई 1861 को कोलकाता में जन्मे, माता पिता की तेरहवीं संतान  रवींद्रनाथ टैगोर ने बचपन में ही ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात‘ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए आठ वर्ष की उम्र  में पहली कविता लिखकर अपने कवि हृदय होने का परिचय दिया तो  मात्र 16 वर्ष की उम्र में उनकी पहली प्रथम रचना एक लघु कथा के रूप में प्रकाशित हुई। एक दर्जन से अधिक उपन्यासों में चोखेर बाली, घरे बाहिरे, गोरा आदि शामिल हैं। रविंद्र नाथ टैगोर के उपन्यासों में मध्यमवर्गीय समाज  का बहुत नजदीकी से यथार्थपरक चितण्रकिया गया है। टैगोर का कथा साहित्य  क्लासिक साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान रखता है। समीक्षकों के अनुसार उनकी कृति ‘गोरा’ एक अद्भुत रचना है और आज भी इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। रवींद्रनाथ टैगोर की रचनात्मक प्रतिभा कविताओं एवं संगीत में सबसे ज्यादा मुखिरत हुई। उनकी कविताओं में नदी और बादल की अठखेलियों से लेकर अध्यात्म तक के विभिन्न विषयों को बखूबी उकेरा गया है तो उपनिषद जैसी भावनाएं भी अभिव्यक्त हुई हैं। साहित्य की शायद ही कोई शाखा हो जिनमें उनकी रचनाएं नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक विधाओं में प्रमुख रूप से रचना की। टैगोर की कई कृतियों के अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ। उनके नाटक मुख्यतया सांकेतिक हैं, डाकघर, राजा, विसर्जन आदि इसके प्रमाण हैं। ‘गुरु देव’ की कविताओं  में  एक अनूठी लय है। वर्ष 1877 में उनकी रचना ‘भिखारिन’ खासी चर्चित रही। उन्हें बंगाल का सांस्कृतिक उपदेशक भी कहा जाता है। 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले रवींद्र आरंभिक दौर में कोलकाता और उसके आसपास के क्षेत्र तक ही सीमित रहे, लेकिन ‘गीतांजलि’ पर नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उनकी ख्याति विव्यापी हो गई उनको अपनी जिस पुस्तक गीतांजलि पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला उसकी कहानी भी बड़ी रोचक है।  51 वर्ष की उम्र में रवींद्रनाथ टैगोर अपने बेटे के साथ इंग्लैंड गए और इस यात्रा ने रवींद्रनाथ टैगोर का आभामंडल ही बदल दिया। समुद्री मार्ग से जाते समय उन्होंने अपने कविता संग्रह ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी अनुवाद करना प्रारंभ किया। गीतांजलि का अनुवाद करने के पीछे उनका कोई उद्देश्य नहीं था केवल समय काटने के लिए कुछ करने की गरज से उन्होंने गीतांजलि का अनुवाद एक नोटबुक में लिखना शुरू किया और यात्रा समाप्त होते-होते उन्होंने इस अनुवाद को पूरा भी कर दिया। अनुवाद करते समय टैगोर को किंचित भी आभास नहीं था कि वे एक महान कार्य करने जा रहे हैं। लंदन में जहाज से उतरते समय उनका पुत्र उस सूटकेस को जहाज में ही भूल गया जिसमें वह नोटबुक रखी थी। इस ऐतिहासिक कृति की नियति में किसी बंद सूटकेस में लुप्त होना नहीं लिखा था। वह सूटकेस जिस व्यक्ति को मिला उसने स्वयं उस सूटकेस को रवींद्रनाथ टैगोर तक अगले ही दिन पहुंचा दिया।  
लंदन में टैगोर के अंग्रेज मित्र चित्रकार रोथेंस्टिन को जब यह पता चला कि गीतांजलि को स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर ने अनुवादित किया है तो उन्होंने उसे पढ़ने की इच्छा जाहिर की। गीतांजलि पढ़ने के बाद रोथेंस्टिन ने अपने मित्र डब्ल्यू.बी. यीट्स को गीतांजलि के बारे में बताया और नोटबुक उन्हें भी पढ़ने के लिए दी। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। यीट्स ने स्वयं गीतांजलि के अंग्रेजी के मूल संस्करण का प्रस्तावना लिखा। सितम्बर सन 1912 में गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद की कुछ सीमित प्रतियां इंडिया सोसायटी के सहयोग से प्रकाशित की गई। लंदन में गीतांजलि की जमकर  सराहना हुई।
जल्द ही गीतांजलि के शब्द माधुर्य ने संपूर्ण विश्व को सम्मोहित कर लिया। गीतांजलि के प्रकाशित होने के एक साल बाद सन 1913 में रवींद्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। टैगोर  पहले ऐसे भारतीय थे जिन्होंने पूर्वी और पश्चिमी दुनिया के मध्य सेतु बनने का कार्य किया था। टैगोर केवल भारत के ही नहीं समूचे विश्व के साहित्य, कला और संगीत के एक महान प्रकाश स्तंभ हैं। उनका लिखा ‘एकला चालो रे’ गाना गांधीजी विशेष पसंद था। रवींद्रनाथ को 1915 में नाइटहुड की उपाधि दी गई, लेकिन जलियांवाला बाग कांड की खिलाफत में उन्होंने उसे लौटा दिया। 7 अगस्त 1941 को देहावसान से पहले ही  उनके रचना संसार ने उन्हें एक कालजयी महान विभूति के रूप में अमर कर दिया था।

घनश्याम बादल


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