राजनीति : तस्वीर बदले तो कैसे

Last Updated 07 Mar 2024 01:37:05 PM IST

चुनाव ऐसा अवसर होता है जब आपको राजनीति के सारे नकारात्मक चरित्र हमारे सामने घनीभूत होकर उभरते हैं। लोक सभा चुनाव के पूर्व दलों और नेताओं के व्यवहारों और वक्तव्यों पर आम लोग अब आश्चर्य भी प्रकट नहीं करते।


राजनीति : तस्वीर बदले तो कैसे

ऐसा लगता है कि वर्षो से भारत में राजनीतिक सुधार यानी राजनीतिक दलों के अंदर वैचारिक, व्यावहारिक और व्यक्तित्व के परिवर्तनों को लेकर जो भी आवाज उठाई गई उसका अत्यंत कम असर हुआ है। आम आदमी पार्टी (आप) द्वारा दिल्ली, हरियाणा और गुजरात में कांग्रेस के साथ गठबंधन पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। आखिर, दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के प्रमुख केजरीवाल जिस पार्टी और परिवार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर सत्ता में आए और उनको सजा दिलवाने का वादा करते रहे, उसके साथ गठबंधन करते हैं, तो प्रश्न उठेगा। किंतु क्या इसका असर भी हो सकता है, या फिर केजरीवाल या आप ऐसा करने के मामले में भारतीय राजनीति में एकमात्र उदाहरण है?

‘इंडिया’ की कल्पना के पूर्व तक आप का घोषित स्टैंड था कि उसको किसी भी गठबंधन से कोई लेना-देना नहीं है। वह गठबंधन की राजनीति की आलोचना करती थी किंतु हाल तक के अपने राजनीतिक-रणनीतिक स्टैंड से भी पार्टी बदल जाए तो फिर क्या कहा जा सकता है। जिस शराब घोटाले और ईडी कार्रवाई का दिल्ली की कांग्रेस पार्टी समर्थन कर रही थी, वह अचानक इस पर खामोश हो गई है। यही स्थिति राजग विरोधी पार्टयिों की पश्चिम बंगाल के संदेशखालि जैसे जघन्य और वीभत्स अपराध के मामले में भी है। विपक्ष की किसी पार्टी के प्रमुख नेता ने संदेशखालि को लेकर तृणमूल कांग्रेस, ममता बनर्जी या वहां के पुलिस प्रशासन की आलोचना नहीं की। पश्चिम बंगाल में जिस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं, उससे लगता है कि धनबल और बाहुबल का प्रभाव बंगाल में घटने की बजाय सशक्त हुआ है। संदेशखालि के मुख्य अभियुक्त शेख शाहजहां की 55 दिनों बाद गिरफ्तारी बताती है कि अपराध, धनबल तथा एकपक्षीय भयावह सांप्रदायिक बाहुबल का गठजोड़ पश्चिम बंगाल की राजनीति का स्थायी चरित्र बन गया हो। 80 के दशक से भारतीय राजनीति का यह सबसे बड़ा मुद्दा रहा। लगातार राजनीतिक सुधार की मांग उठती रही। लगता था कि धीरे-धीरे अपराध, बाहुबल, धनबल और वोट के लिए सांप्रदायिक अपराध की अनदेखी की राजनीति से अंत हो रहा है।

ममता वाम मोर्चा के शासन में अपराधियों, माफिया और सांप्रदायिक तत्वों के बोलबाले के विरुद्ध संघर्ष करके ही सत्ता तक आई किंतु उनका शासन इन सारी बीमारियों का वीभत्सतम उदाहरण बन गया है। बाहुबल और धनबल का राजनीति के साथ स्पष्ट दिखता रिश्ता तथा सिद्धांतहीन, आदर्शहीन पाला-बदल कई राज्यों में सामने आ रहे हैं। एक समय राजनीतिक और सत्ता शीर्ष का भ्रष्टाचार विरोधी दलों का सबसे बड़ा मुद्दा होता था। आज भ्रष्टाचार के आरोप के विरुद्ध नेताओं और सत्ता शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों के विरुद्ध कार्रवाई विपक्ष के लिए सबसे बड़ा मुद्दा हो गया है। इस स्थिति की पहले कल्पना नहीं थी। पहले मनीष सिसोदिया, फिर संजय सिंह और हेमंत सोरेन तथा ऐसे छोटे-बड़े नेताओं को जेल जाना पड़ा, न्यायालय उनको जमानत तक नहीं दे रहा किंतु विरोधी राजनीति का स्वर है मानो ये सारे पाक- साफ हों।

न्यायालय जब तक किसी को सजा नहीं देता हम उन्हें दोषी नहीं मानते किंतु बिना आधार के इतनी बड़ी कार्रवाई नहीं होती और होती है तो शांति से न्यायिक प्रक्रिया का सामना किया जा सकता है। सच कहा जाए तो एक बीमारी के उपचार की जगह उससे बड़ी बीमारी ने हमारी राजनीति में घर कर लिया है। आने वाले समय में राजनीति और शीर्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई कितनी कठिन होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। एक नेता पर कार्रवाई हुई नहीं कि वकीलों की फौज उन्हें बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाती है। यह राजनीति की ऐसी प्रवृत्ति है जिसका अंत तभी संभव है, जब राजनीतिक सुधार इस अवस्था में पहुंच जाएं जहां देश-समाज की चिंता करने वाले विवेकशील और संकल्पबद्ध लोग ही चुनावी राजनीति में रहें। ऐसी स्थिति सामने नहीं दिख रही।

संघ और भाजपा का विरोध राजनीति में एक बड़ा वर्ग पहले भी करता था। इस समय यह विरोध घृणा की उस अवस्था में पहुंच गया है, जहां लगता है कि दलों और नेताओं के विवेक और अविवेक में कोई अंतर नहीं बचा। इसमें कोई कितना भी भ्रष्टाचारी हो, बाहुबली हो, सांप्रदायिक हो, अगर मोदी सरकार और भाजपा विरोधी है तो विपक्ष के बड़े समूह के लिए सहज स्वीकार्य है। इस समय भारतीय राजनीति की यह सबसे बड़ी चुनौती है। मजे के बात यह कि इस स्थिति ने पार्टयिों को अपने भविष्य की चिंता से भी विलग कर दिया है। उदाहरणत: कांग्रेस के व्यावहारिक नेताओं को आभास है कि दिल्ली, हरियाणा और गुजरात जैसे राज्य में अगर आप आगे बढ़ी तो सबसे ज्यादा क्षति उन्हीं की होगी। बावजूद वह गठबंधन को तैयार हैं तो क्यों?

यही स्थिति दूसरी पार्टयिों के साथ भी है। अनेक पाला बदलने वालों के लिए भाजपा भी अपना द्वार खोले हुए है। नीतीश कुमार जैसे अस्थिर व्यक्ति जब चाहते हैं, भाजपा को छोड़कर चले जाते हैं, और फिर वापस आ जाते हैं। मुख्यमंत्री भी बने रहते हैं। भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में इस समय ऐसी सशक्त स्थिति में है, जब वह सिद्धांतों और आरोपी नेताओं से अपने को काफी हद तक बचाए रख सकती है। इससे उसके चुनावी प्रदर्शन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हालांकि जब तक कोई नेता विरोधी खेमे में होता है, उसके विरु द्ध आवाज नहीं उठती। जैसे ही वह भाजपा के साथ आता है, विरोधी चिल्लाने लगते हैं कि देखो-देखो जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप था, वह उनके साथ चला गया। इसलिए जनता ऐसी आलोचनाओं को गंभीरता से नहीं लेती। यह स्थिति बदलनी चाहिए। इसमें राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम लोगों की भी भूमिका है। आम लोग मतदान के समय सिद्धांतहीन, पाला- बदल तथा धनबल और बाहुबल से राजनीति करने वालों का साथ न दें, उनके पक्ष में मतदान न करें तो प्रवृत्ति बदल सकती है। तमाम पार्टयिां समझ लें कि आम लोगों के अंदर राजनेताओं के व्यवहार से असंतोष बढ़ने पर पार्टियां सत्ताच्युत होती रही हैं। इसके पीछे सिद्धांतहीन और राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण बिगड़ी हुई छवि की प्रमुख भूमिका रही है।

अवधेश कुमार


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