मौद्रिक समीक्षा : महंगाई और विकास का मसला

Last Updated 08 Feb 2024 11:44:07 AM IST

सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अनुसार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति दिसम्बर, 2023 में बढ़कर 5.69 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई जो नवम्बर, 2023 में 5.5 प्रतिशत थी।


मौद्रिक समीक्षा : महंगाई और विकास का मसला

हालांकि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित सहनशीलता सीमा, जो 4 प्रतिशत से 2 प्रतिशत अधिक या 2 प्रतिशत कम है, के बावजूद इस दर को तेज विकास के लिए उत्साहजनक कतई नहीं माना जा सकता।  

किसी की क्रय शक्ति निर्धारित करने में मुद्रास्फीति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मुद्रास्फीति बढ़ने पर वस्तु एवं सेवा, दोनों की कीमतों में इजाफा होता है, जिससे व्यक्ति की खरीददारी क्षमता कम हो जाती है, और वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग कम हो जाती है। फिर, उनकी बिक्री कम होती है, उनके उत्पादन में कमी आती है, कंपनी को घाटा होता है, कामगारों की छंटनी होती है, रोजगार सृजन में कमी आती है, आदि आदि। फलत: आर्थिक गतिविधियां धीमी पड़ जाती हैं एवं विकास की गति बाधित होती है। साफ है, मुद्रास्फीति को कम करने से ही विकास की गाड़ी आगे बढ़ सकती है।   

भारत से इतर, वैश्विक स्तर पर खाद्य पदार्थों की कीमत में गिरावट का सिलसिला 2023 से जारी है, और 2024 के जनवरी महीने में यह 35 माह के सबसे निचले स्तर 118 अंक पर पहुंच गया, जो मार्च, 2022 में 160.3 अंक पर था। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के मुताबिक अधिकांश देशों में गेहूं, मक्का के साथ मांस की कीमत में गिरावट के कारण वैश्विक खाद्य मूल्य सूचकांक में गिरावट दर्ज की गई है। एफएओ के अनुसार अनाज मूल्य सूचकांक जनवरी, 2024 में घटकर 120.1 अंक पर पहुंच गया।

चूंकि, भारत में कृषि क्षेत्र अभी भी कमजोर है, और यहां आर्थिक मानक तय करने के पैमाने दुनिया के दूसरे देशों से थोड़े अलग हैं, इसलिए भारत में मुद्रास्फीति केंद्रीय बैंक द्वारा तय सहनशीलता के अंदर रहने के बावजूद मध्यम स्तर पर है। इसलिए रिजर्व बैंक द्वारा मौद्रिक समीक्षा में नीतिगत दरों को यथावत रखने का समीचीन फैसला किया जा सकता है, क्योंकि मंहगाई को लेकर केंद्रीय बैंक संवेदनशील है, और महंगाई व विकास दर के बीच संतुलन बनाकर अर्थव्यवस्था को मजबूत रखना चाहता है। रिजर्व बैंक ने अंतिम बार फरवरी, 2023 में रेपो दर बढ़ाकर 6.5 प्रतिशत की थी। इस तरह विगत 12 महीनों से रेपो दर 6.5 प्रतिशत पर बरकरार है। वित्त वर्ष 2024-25 में राजस्व संग्रह में बढ़ोतरी हुई है, और आगामी महीनों में भी कर और गैर-कर राजस्व संग्रह में तेजी आने की संभावना है।

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह भी विगत 6 महीनों से लगातार 1.5 लाख करोड़ रुपये से ऊपर बना हुआ है। इसलिए माना जा रहा है कि वित्त वर्ष 2024-25 के दौरान सरकार उधारी कम लेगी। लिहाजा, रिजर्व बैंक 8 फरवरी को पेश की जाने वाली मौद्रिक समीक्षा के साथ-साथ अप्रैल और जून की मौद्रिक समीक्षा में भी रेपो दर को यथावत रख सकता है, क्योंकि अभी भी महंगाई का स्तर संतोषजनक दायरे में नहीं है। हालांकि अगस्त की मौद्रिक समीक्षा में नीतिगत दरों में कटौती की जा सकती है, लेकिन वह भी मानसून की सकारात्मक चाल, फेडरल रिजर्व बैंक की नीति, राजस्व संग्रह की स्थिति आदि पर निर्भर करेगा।  

रेपो दर में लंबे समय तक वृद्धि नहीं करने का भी इतिहास रहा है। 2008 की आर्थिक मंदी के समय दस महीनों तक रेपो दर 6.5 प्रतिशत की दर पर बरकरार रही थी। 2013 के कर्ज संकट के समय भी रेपो दर 7.85 प्रतिशत के स्तर पर 8 महीनों तक यथावत रही थी। फिर, 2020 में कोरोना काल के समय में भी रेपो दर 4 प्रतिशत के स्तर पर 25 महीनों तक बनी रही थी। जनवरी महीने में पीएमआई के आंकड़े जारी किए गए थे, जिनके अनुसार सेवा क्षेत्र की गतिविधियां विगत छह महीनों में सबसे अधिक बढ़ी हैं, और सेवा क्षेत्र का पीएमआई विगत 30 महीनों से लगातार आगे बढ़ रहा है।

अनुकूल आर्थिक परिस्थितियों और मांग में तेजी की वजह से सेवा क्षेत्र का पीएमआई जनवरी में 61.8 अंक पर पहुंच गया जो दिसम्बर में 59 अंक पर था। सेवा क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़े हैं। नये व्यवसायों का विस्तार तेजी से हुआ है, और भविष्य को लेकर सकारात्मक माहौल बना है। सेवा क्षेत्र से जुड़े निर्यात में भी तेजी आई है। विनिर्माण क्षेत्र का पीएमआई सूचकांक भी दिसम्बर महीने में 54.9 अंक से बढ़कर जनवरी महीने में 56.5 अंक पर पहुंच गया जो विगत तीन महीनों का उच्चतम स्तर है। पीएमआई का कंपोजिट सूचकांक भी दिसम्बर महीने में 58.5 अंक से बढ़कर जनवरी महीने में 61.2 अंक पर पहुंच गया जो दुनिया में सबसे अधिक है। पीएमआई सूचकांक के 50 अंक से कम रहने पर माना जाता है कि संबंधित क्षेत्र में संकुचन आ रहा है, जबकि सूचकांक के 50 अंक से ऊपर रहने पर माना जाता है कि वह क्षेत्र आगे बढ़ रहा है।

भारतीय रिजर्व बैंक मुख्य तौर पर रेपो दर में बढ़ोतरी करके महंगाई से लड़ने की कोशिश करता है। जब रेपो दर अधिक होती है, तो बैंकों को रिजर्व बैंक से महंगी दर पर कर्ज मिलता है, जिसके कारण बैंक भी ग्राहकों को महंगी दर पर कर्ज देते हैं। ऐसे में अर्थव्यवस्था में मुद्रा की तरलता कम हो जाती है, और लोगों की जेब में पैसे नहीं होने से वस्तुओं की मांग में कमी आती है, और वस्तुओं व उत्पादों की कीमत अधिक होने से इनकी बिक्री में कमी आती है, जिससे महंगाई में गिरावट दर्ज की जाती है। इसी तरह अर्थव्यवस्था में नरमी रहने पर विकासात्मक कायरे में तेजी लाने के लिए बाजार में मुद्रा की तरलता बढ़ाने की कोशिश की जाती है, और रेपो दर में कटौती की जाती है ताकि बैंकों को भारतीय रिजर्व बैंक से सस्ती दर पर कर्ज मिले और सस्ती दर पर कर्ज मिलने के बाद बैंक भी ग्राहकों को सस्ती दर पर कर्ज दें।  

महंगाई की वजह से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, लेकिन बीते कुछ महीनों से उधारी ब्याज दर के उच्च स्तर पर बने रहने के बावजूद ऋण  वितरण में तेजी आ रही है, और विकास दर की रफ्तार भी तेज बनी हुई है। वैसे, ऐसी स्थिति अपवाद वाली है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इक्रा के अनुसार वर्ष दर वर्ष आधार पर बैंकों की ऋण वृद्धि दर दिसम्बर, 2023 में 16.5 प्रतिशत रही जिसके वित्त वर्ष 2024-25 में 12-13 प्रतिशत रहने का अनुमान है। अभी रिजर्व बैंक का लक्ष्य विकास और महंगाई के बीच संतुलन बनाना है, ताकि आम आदमी को परेशानी नहीं हो और विकास की रफ्तार भी तेज बनी रहे।

सतीश सिंह


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