दिल्ली प्रदूषण : यहां सभी के फेफड़े काले

Last Updated 18 Dec 2023 12:57:59 PM IST

पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले हर व्यक्ति के फेफड़ों में काले रंग के धब्बे मौजूद हैं। जैसे किसी सिगरेट पीने वाले के फेफड़ों में होते हैं।


दिल्ली प्रदूषण : यहां सभी के फेफड़े काले

आश्चर्य और चिंता की बात तो यह है कि दिल्ली में रहने वाले किशोरों में भी यह विकृति पाई जा रही है। यह चौंकने वाला खुलासा किया है दिल्ली के मशहूर छाती रोग विशेषज्ञ (चेस्ट सर्जन) डॉ. अरविंद कुमार ने। उनका कहना है कि, ‘वे तीन दशकों से अधिक समय से दिल्ली में चेस्ट सर्जरी कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षो से उन्होंने ने दिल्ली के मरीजों के फेफड़ों में एक बड़ा बदलाव देखा है। जहां 1988 में अधिकतर फेफड़ों का रंग गुलाबी होता था वहीं बीते कुछ वर्षो में फेफड़ों में कई जगह काले-काले धब्बे दिखाई दिए हैं।

पहले ऐसे काले धब्बे केवल धूम्रपान करने वालों के फेफड़ों में ही पाए जाते थे। किंतु अब हर उम्र के लोगों में, जिसमें अधिकतर किशोरों में, ऐसे काले धब्बे पाए जाने लगे हैं, यह बड़ी गंभीर स्थिति है। इन काले धब्बों का सीधा मतलब है कि जो लोग धूम्रपान नहीं करते उनके फेफड़ों में यह धब्बे विषैला जमाव या ‘टॉक्सिक डिपोजिट’ है।’ डॉ. कुमार का कहना है कि ‘फेफड़ों में इन काले धब्बों के चलते निमोनिया, अस्थमा और फेफड़ों के कैंसर के मामलों में भी तेजी आई है। पहले ऐसी बीमारियां अधिकतर 50-60 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों को होती थी। परंतु अब यह पैमाना घट कर 30-40 वर्ष की आयु वर्ग में होने लगा है।

पहले के मुकाबले महिला रोगियों की तादाद भी बढ़ रही है। इतना ही नहीं महिला मरीजों की तादाद चालीस प्रतिशत तक है जिनमें से अधिकतर महिलाएं धूम्रपान नहीं करतीं हैं। सबसे अहम बात यह है कि 1988 में ऐसे रोगियों में 90 प्रतिशत वह लोग होते थे जो धूम्रपान करते थे, परंतु अब यह आंकड़ा बराबरी का है।’ डॉ. कुमार बताते हैं कि, ‘जो केमिकल सिगरेट में पाए जाते हैं वही केमिकल आज की हवा में भी हैं। यानी कैंसर के मुख्य कारक माने जाने वाले जो केमिकल सिगरेट के धुएं में पाए जाते हैं यदि वही केमिकल हमें दूषित हवा में मिलने लगें तो हम धूम्रपान करें या ना करें हमारे फेफड़ों के अंदर यह जहर खुद-ब-खुद प्रवेश कर ही रहा है।

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि दूषित हवा से हमारे फेफड़ों में कैंसर होने के आसार भी बढ़ गए हैं। कुछ वर्ष पहले वि स्वास्थ्य संगठन ने भी यह माना कि दूषित हवा भी कैंसर का कारण हो सकती है। एक महत्त्वपूर्ण तर्क देते हुए डॉ. अरविंद कुमार ने यह भी बताया कि पहले जब फेफड़ों के कैंसर के मरीजों में इस बीमारी को पकड़ा जाता था तब उनकी उम्र 50-60 के बीच होती थी क्योंकि कैंसर के केमिकल को फेफड़ों को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए तकरीबन बीस वर्ष लगते थे, परंतु आज जहां दिल्ली की दूषित हवा का ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 500 से अधिक है तो ऐसी दूषित हवा में जन्म लेने वाला हर वो बच्चा इन केमिकल का सेवन पहले ही दिन से कर रहा है, इस ख़्ातरे का शिकार बन रहा है।

आम भाषा में कहा जाए तो दूषित हवा में सांस लेना 25 सिगरेट के धुएं के बराबर है। तो यदि कोई बच्चा अपने जन्म के पहले ही दिन से ऐसा कर रहा है तो जब तक वो 25 वर्ष की आयु का होगा उसके फेफड़ों में और धूम्रपान करने वाले के फेफड़ों में कोई अंतर नहीं होगा। इसीलिए डॉ. कुमार को इस बात पर कोई अचंभा नहीं होता जब वे कम उम्र के मरीजों में फेफड़ों के कैंसर के लक्षण देखते हैं। उल्लेखनीय है कि जहां दिल्ली में ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 500 से अधिक है वहीं लंदन और न्यूयॉर्क में यह आंकड़ा 20 से भी कम है। यह बहुत भयावह स्थिति है चाहे-अनचाहे दिल्ली का हर निवासी इस जहरीले गैस चैम्बर में घुट-घुट कर जीने को मजबूर है।

हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है। लगातार चुनाव जीतने की राजनीति में जुटे रहने वाले दल प्रदूषण जैसे गंभीर मुद्दों पर भी आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। इस समस्या के हल के लिए केंद्र या राज्य की सरकार कोई ठोस काम नहीं कर रही। पराली जलाने को लेकर इतना शोर मचता है कि ऐसा लगता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान ही दिल्ली के प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि असली कारण कुछ और है। दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया।

सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा-का-पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुएं और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं  लगाया जा रहा है।

दिल्ली में 1987 से यह कूड़ा जलाया जा रहा है, जिसके लिए पहले डेनमार्क से तकनीकी का आयात किया गया था। पर यह मशीन एक हफ्ते में ही असफल हो गई क्योंकि इसकी बुनियादी शर्त यह थी कि जलाने से पहले कूड़े को अलग किया जाए और उसमें मिले हुए जहरीले पदाथरे को न जलाया जाए। इतनी बड़ी आबादी का देश होने के बावजूद भारतीय प्रशासनिक तंत्र की लापरवाही इस कदर है कि आजतक कूड़े को छांट कर अलग करने का कोई इंतजाम नहीं हो पाया है।

आज दिल्ली में प्रतिदिन 7000 टन मिश्रित कूड़ा ‘इनिसनिरेटर्स’ में जलाया जाता है, जिसे जल्दी ही 10000 टन करने की तैयारी है। इस मिश्रित कूड़े को जलाने से निकलने वाला जहरीला धुआं ही दिल्ली के प्रदूषण का मुख्य कारण है, जबकि इसी मशीन से सिंगापुर में जब कूड़ा जलाया जाता है तो उसमें से जहरीला धुआं नहीं निकलता क्योंकि वहां सभी सावधानियां बरती जाती हैं। वैसे केवल सरकार को दोष देने से हल नहीं निकलेगा। जनता को अपने दैनिक जीवन में तेज़ी से बढ़ रहे प्लास्टिक व अन्य क़स्मि के पैकेजिंग मैटीरियल को बहुत हद तक घटाना पड़ेगा। मशहूर शायर कैफ़ी आजमी ने क्या खूब कहा ‘शोर यूं ही न परिंदों ने मचाया होगा, कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा। पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था, जिस्म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा।।

विनीत नारायण


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