महंगाई : दिक्कत तो है

Last Updated 30 Oct 2023 01:47:24 PM IST

कमरतोड़ महंगाई से आम देशवासी विशेषकर सेवानिवृत्त लोग त्रस्त हैं। लोगों का कहना है कि पहले कहते थे ‘दाल रोटी खाओ- प्रभु के गुण गाओ’। अब तो दाल भी 200 रुपये किलो बिक रही है।


महंगाई : दिक्कत तो है

सरकार अपनी मजबूरी का रोना रोती है। पर पहले से बदहाली में रहने वाले हिन्दुस्तानी का क्या होगा, किसे फिक्र है? कहने को वित्त वर्ष 2023-24 की अप्रैल-जून की पहली तिमाही में 7.8 प्रतिशत रही है पर इसका असर देश के किसान-मजदूरों पर नहीं पड़ रहा। बढ़ती महंगाई में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाला क्या खाएगा, क्या पहनेगा, कैसे घर में रहेगा, इलाज कैसे कराएगा और बच्चों को कैसे पढ़ाएगा? इसकी चिंता गरीबी की परिभाषा देने वालों को नहीं।

आज दुनिया भर में पेट्रोलियम पदाथरे और खाद्यान्न का संकट खड़ा हो गया है। इसलिए महंगाई भी बढ़ रही है पर कोई जानने की कोशिश नहीं कर रहा कि ये हालात पैदा कैसे हुए? सारी दुनिया को तरक्की और ऐशोआराम का सपना दिखाने वाले अमेरिका जैसे देशों के पास कोई हल क्यों नहीं है। अभी तो भारत के एक छोटे से मध्यम वर्ग ने अमेरिकी विकास मॉडल का दीवाना बन कर अपनी जिंदगी में तड़क-भड़क बढ़ानी शुरू की है।  जिस तरह के विज्ञापन टीवी पर दिखाकर मुट्ठी में दुनिया कैद करने के सपने दिखाए जाते हैं, अगर वाकई हर हिन्दुस्तानी ऐसी जिंदगी का सपना देखने लगे और उसे पाने के लिए हाथ-पैर मारने लगे तो क्या दुनिया के अमीर देश एक सौ 40 करोड़ भारतीयों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाएंगे? दे पाएंगे उन सबको जरूरत का खाद्यान्न और पेट्रोल?

आज दुनिया में गरीबी समस्या नहीं है। समस्या है दौलत का चंद लोगों के हाथ में इकट्ठा होना। धनी देश और धनी लोग साधनों की जितनी बर्बादी करते हैं, उतनी में बाकी दुनिया सुखी हो सकती है। उदाहरण के तौर पर इंग्लैंड के लोग हर वर्ष 410 अरब रुपये की कीमत का खाद्यान्न कूड़े में फेंक देते हैं। पश्चिमी विकास का मॉडल और जीवन स्तर हमारे देश के लिए बिल्कुल सार्थक नहीं है पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में हमारी सरकारें जनविरोधी नीतियां अपना कर अपने प्राकृतिक साधनों का दुरु पयोग कर रही हैं, और उन्हें बर्बाद कर रही हैं। दुनिया का इतिहास बताता है कि जब-जब मानव प्रकृति से दूर हुआ और जब-जब हुक्मरान रक्षक नहीं, भक्षक बने तब-तब आम आदमी बदहाल हुआ। कुछ वर्ष पहले एक टेलीविजन चैनल पर एक वृत्तचित्र देखा था जिसमें दिखाया था कि विश्व बैंक से मदद लेने के बाद अफ्रीका के देशों में कैसे अकाल पड़े और कैसे भुखमरी फैली क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मदद को तो बेईमान नेता, अफसर और दलाल खा गए थे। जनता के हिस्से आई मंहगाई, मोटे टैक्स, खाद्यान्न का संकट और भुखमरी। इस फिल्म में रोचक बात यह थी कि उस देश के आम लोगों ने मिट्टी, पानी, सूरज की रोशनी और हवा की मदद से अपने जीने के साधन फिर से जुटाना शुरू कर दिया था।

भारत की वैदिक संस्कृति प्रकृति की पुजारी थी। प्रकृति के साथ संबंध बनाकर जीना सिखाती थी। कृषि गौ आधारित थी और मानव कृषि आधारित और दोनों प्रकृति के चक्र को तोड़े बिना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का जीवन जीते थे। दूसरी खास बात यह थी कि जब-जब हमारे राजा और हुक्मरान शोषक, दुराचारी और लुटेरे हुए तब-तब जनता को नानक, कबीर, रैदास, मीरा, तुकाराम, नामदेव जैसे संतों ने राहत दी। आज सरकार राहत दे नहीं पा रही है। लोकतंत्र होते हुए भी आम आदमी सरकार की नीतियों को प्रभावित नहीं कर पा रहा है। उसके देखते-देखते उसका प्राकृतिक खजाना लुटता जा रहा है, और वो असहाय है।

तकलीफ की बात तो यह है कि आज उसके जख्मों पर मरहम लगाने वाले संत भी मौजूद नहीं। टीवी चैनलों पर पैसा देकर अपने को परम पूज्य कहलवाने वाले चैनल बाबाओं की धूम मची है। अरबों रुपया कमाकर अपने को वैदिक संस्कृति का रक्षक बताने वाले ये आत्मघोषित संत पांच सितारा आश्रम बनाने और राजसी जीवन जीने में जुटे हैं। इनकी जीवन शैली में कहीं भी न तो प्रकृति से तालमेल है, और न ही वैदिक संस्कृति का कोई दूसरा लक्षण ही। इनके जीवन में और अमेरिका की रईसी जीवन शैली में क्या अंतर है? वैदिक ऋषि गाय, जमीन, जंगल और पानी के साथ आनंद का जीवन जीते थे। श्रम करते थे पर आज अपने को संत बताने वाले अपने परिवेश का विनाश करके भोगपूर्ण जीवन जीते हैं, और लाखों लोगों को माया मोह त्यागने और वैदिक मान्यताओं पर आधारित जीवन का उपदेश देते हैं। इनकी वाणी में न तो तेज है और न ही असर। इसलिए जनता के संकट आने वाले दिनों में घटने वाले नहीं हैं। न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की पकड़ कमजोर होगी, न हमारे हुक्मरान अपनी गलतियों को दोहराना बंद करेंगे।

इसलिए महंगाई हो या खाद्यान्न का संकट, हमें नये सिरे से अपनी जीवन शैली के विषय में सोचना होगा। सौभाग्य से आज देश में ऐसे अनेकों लोग हैं, जो इन तथाकथित संतों की तरह खुद को परम पूज्य नहीं कहते पर बड़ी निष्ठा, त्याग और अनुभव के आधार पर आम लोगों को वैकल्पिक जीवन जीने के सफल मॉडल दे रहे हैं। इनकी बात मानकर लाखों लोग सुख का जीवन जी रहे हैं। इन लोगों को महंगाई बढ़ने से असर नहीं पड़ता क्योंकि इन्हें बाजार से कुछ खरीदना नहीं होता। अपनी जरूरत की हर वस्तु खुद पैदा कर रहे हैं। ऐसा ही एक नाम है सुभाष पालेकर का। महाराष्ट्र के अमरावती जिले में सुभाष पालेकर ने आम आदमी की जिंदगी बदल दी है। उन्हें 2016 के भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। आज उनके अनुभव सुनने और उनसे ज्ञान लेने लाखों किसान जुटते हैं, और उन्हें दो-तीन दिन तक लगातार सुनते हैं। ऐसे सैकड़ों लोग देश में और भी हैं, जिन्होंने वैदिक जीवन पद्धति को समझने और उसे समसामयिक बनाने में जीवन गुजार दिया। महंगाई, आम आदमी और असहाय हुक्मरान लाचार भले ही हों और उनके पास आम आदमी के दुख-दर्द दूर करने का समाधान भी न हो पर देश में सुभाष पालेकर जैसे लोग आज भी हैं, जो हल दे सकते हैं बशर्तें हम उनकी बात सुनने और समझने को तैयार हों।

विनीत नारायण


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