निठारी कांड : अपराध का सच कहां है

Last Updated 18 Oct 2023 01:34:43 PM IST

अकीरा कुरोसावा ने जापानी भाषा में ‘राशोमॉन’ फिल्म बनाई थी। इस फिल्म से दुनिया भर के फिल्मकार आज भी प्रेरणा लेते हैं। राशोमॉन ऐसी फिल्म है, जो एक जागृति का निर्माण करती है। सच को देखने की जागृति। सच क्या है, और झूठ क्या है?


निठारी कांड : अपराध का सच कहां है

फिल्म की कहानी है कि जंगल में सामुराई की लाश मिलती है। साथ में पत्नी भी थी। एक डाकू, जिसका नाम ताजोमारू है, पर इस हत्या और सामुराई की पत्नी के साथ रेप का दोष लगता है। अदालत में सुनवाई चलती है, लेकिन वहां घटना के कई और संस्करण उभरते हैं। घटनास्थल के पास मूसलाधार बारिश में जापान के क्योटो में राशोमोन गेट के नीचे तीन व्यक्ति शरण लेते हैं, उनका संस्करण। एक पुजारी है और दूसरा लकड़हारा जो स्थानीय अदालत में बयान देकर आए हैं। और जो कुछ हुआ था, उस पर यकीन करने की, समझने की कोशिश कर रहे हैं। तीसरा व्यक्ति वहां से गुजरते हुए वहां रुकने वाला राहगीर है। वो दोनों के संस्करण सुनता है। डाकू, स्त्री और यहां तक कि सामुराई के सच के संस्करण भी आगे पता चलते हैं। राशोमॉन बताती है कि सच वह नहीं होता जो आपको दिखाया या पढ़ाया जाता है, बल्कि यह तो बारीकियों में कहीं होता है। आपको सच के पक्ष खोजने होते हैं। राशोमॉन (1905) की यह कहानी भारत में 2006 में 19 बच्चों और महिलाओं की हत्या, रेप, उनके साथ बरती गई निर्ममता कुल मिलाकर बेमिसाल अमानवीयता के सच को तलाशने में तो मदद नहीं करती है, लेकिन निठारी कांड के सच को लेकर लोगों के ठगे जाने का सच सामने लाती है।

मीडिया वह सारा कुछ एक सच के रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत करता रहा है जो उसे पुलिस के सूत्रों से मिलता रहा। इससे देश और समाज की बेचैनी रोज-ब-रोज बढ़ती है। एक मानस तैयार होता है, और भारतीय समाज के सामने मामूली सा माने जाने वाला इंसान सुरेन्द्र कोली मुख्य अभियुक्त के रूप में खड़ा दिखता है। उसका मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर सह अभियुक्त के रूप में साथ है। पहली सीढ़ी पर खड़ी अदालत द्वारा फांसी की सजा सुनाई जाती है, लेकिन दूसरी सीढ़ी पर खड़ी अदालत से फांसी की सजा को रद्द करने का फैसला ही नहीं, बल्कि उन्हें बरी करने का आदेश भी आता है। आखिर, लोगों के पास निठारी कांड का सच जानने का क्या रास्ता है? अपराध की जांच करने वाली एजेसियां? इनके कई नाम हो सकते हैं। पुलिस है। सीबीआई है। और भी कई एजेंसियां। सच के जो स्रेत हो सकते हैं, उनके लिए उन पर भरोसा सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। लोगों के पास यही विकल्प है कि वे भरोसा करें, लेकिन तथ्य बताते हैं कि जांच एजेसियां जांच तो करती हैं, लेकिन सच के लिए नहीं। वे एक सच खड़ा करती हैं। उसे अखबार-टेलीविजन प्रचारित करते हैं। उसे सच मान लेने की बाध्यकारी स्थितियां खड़ी करते हैं, लेकिन हम यह अध्ययन नहीं कर पाते हैं कि जो जांच की जाती है, जांच से जो सच परोसा जाता है, जिस सच को एकमात्र सच मान लेने की बाध्यता की स्थितियां तैयार की जाती हैं, वे अब तक कितनी सच साबित हुई हैं।

एक सच बताता है, दूसरा प्रचारित करता है, और तीसरा उस सच की बुनियाद पर लोगों को उनके भरोसे की जीत के रूप में दर्ज करवा देता है, मगर वह सच भी एक लाश से ज्यादा साबित नहीं होता। लाशों का सच और सच की लाश के बीच जनमानस झूलता रहता है। निठारी कांड कोई पहला कांड नहीं है, जिसमें इसका जो सच हो सकता है, उसके अलावा वह हर चीज और स्थितियों से घिरा होता है। फिल्म राशोमॉन की कहानी की तरह। आंखों के सामने अपराध और उसके नतीजे सामने हैं, और उसका सच सामने लाना हमारी व्यवस्था में जरूरी नहीं है, बल्कि एक ऐसे अपराधी की तलाश महत्त्वपूर्ण है जो अपराध कबूल कर ले। निठारी कांड में सुरेन्द्र कोली का कबूलनामा ही सच है। सच की जांच है। सच का प्रचार है। सच को सच के रूप में स्वीकार कर लेने के लिए बाध्य करने का हथियार है। हमारी व्यव्स्था में सच को सच के रूप में स्थापित करने का कोई तंत्र भले विकसित नहीं हुआ हो, किंतु सच के झूठ को सामने लाने की ताकत बची हुई है। भले ही ताकत के उस हिस्से के दोफाड़ हो गए हों। एक सच के झुठ को सामने ला सकता है, तो दूसरा सच के झूठ को स्वीकार करने से घिर चुका है क्योंकि वह जांच एजेंसियों और मीडिया द्वारा खड़े किए गए सच को सच मान लेने वाली भक्त मंडली से खुद को घिरा महसूस करता है। कई ऐसे फैसले हैं जो सच की कसौटी पर नहीं, बल्कि भक्त मंडली की भावनाओं के दबाव में आकर दिए गए हैं।

निठारी कांड पर दूसरी सीढ़ी पर बनी ऊंची अदालत का फैसला दरअसल, सच की सच्चाइयों की परतों को खोलता है। 17 वर्षो के बाद इत्मीनान के क्षणों में। इस प्रश्न पर विचार करें कि निठारी कांड का निचली अदालत से उलट फैसला क्या आ पाता यदि वह 2006 में नृशंस कांड के सामने आने के बाद सुनाया जाता? ऊंची अदालतों में देखा जाता है कि जिन मामलों में अपराध के पीछे किसी सच को निर्मिंत किया गया तो लंबा समय बीत जाने के बाद उस सच की असलियत को सामने लाने की कोशिश किसी तरह के प्रभाव यानी मीडिया ट्रायल और उससे निर्मिंत जन मानस के दबाव से मुक्त होकर करने में वह सक्षम हो सकती है।

भारत के एक मुख्य न्यायाधीश के सामने एक पीड़ित महिला ने जब कहा कि वह यहां इंसाफ के लिए आई है, तो उन्होंने जवाब दिया-बीबी यहां हम इंसाफ नहीं करते। फैसले सुनाते हैं। हमारे समाज में अपराध की जांच और उसके लिए अपराधी मुकर्रर करना एक फैसले की प्रक्रिया होती है। वह इंसाफ की तराजू पर नहीं झुलती है। फैसले की तरह सुनाई जाती है और फैसले-दर-फैसले की पूरी प्रक्रिया में जो डूबता और उतराता रहता है। निठारी कांड जैसे फैसले दर फैसले के बाद लोगों के बीच जो बंटता है, वह खीझ होती है, नफरत होती है, उदासीनता होती है, और उसमें लाचारी का स्तर बढ़ता है। निठारी कांड के जो ज्ञात और अज्ञात शिकार हुए, उन्हें इंसाफ नहीं मिल सकता क्योंकि इंसाफ की जगह यह नहीं है। बल्कि अपराधी को सजा ही इंसाफ मान लिया जाता है, लेकिन अपराध की वजहें और अपराधी की तलाश समाज में सच को लेकर जागृति के बिना संभव नहीं। फिल्म ‘राशोमॉन’ यही बताती है। निठारी में मिले नरकंकाल अदालतों की नजर में मशीनरी की विफलता हैं, लेकिन वास्तव में हमारी जागृति पर सवाल हैं।

अनिल चमड़िया


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