चुनाव प्रबंधन : नारों और नैरेटिव का खेल
अगर समकालीन भारतीय राजनीति का आकलन करें तो चुनावी जीत हासिल करने में नारों और नैरेटिव का उपयोग बेहद असरदार रहा है।
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आम तौर पर नैरेटिव को स्थापित करने में नारों को कारगर अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। फिर उसे प्रचार-प्रसार प्रबंधन से चमकीला और आकषर्क बनाकर जनमानस के दिनचर्या का हिस्सा बना दिया जाता है।
1971 के आम चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ अभियान ने इंदिरा गांधी को सत्ता दिलाई वहीं जनता पार्टी ने आपातकाल को लोकतंत्र विरोधी बताकर 1977 लोक सभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को मात दे दी। पुन: 1980 आम चुनाव में ‘चुनो उन्हें जो चला सके’ के नैरेटिव से इंदिरा गांधी की वापसी हुई। बोफोर्स सौदे में भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर तत्कालीन रक्षामंत्री वीपी सिंह सबसे बड़े जनादेश से बनी राजीव गांधी सरकार को हराने में सफल रहे। गठबंधन केंद्रित राजनीतिक दृष्टिकोण से 1990 के दशक को एक प्रयोग-काल माना जाता है।
हालांकि अल्पमत सरकारें भी बनी थीं। उसी दौर में एक गठबंधन सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी, जब ‘अबकी बारी अटल बिहारी’ के नारे से बनी नैरेटिव उस जीत में सहायक तत्व साबित हुआ। हर राजनीतिक दल अपने नेतृत्व की जन स्वीकार्यता और अपने राजनीतिक घोषणा-पत्र का प्रचार-प्रसार कर जनमत को प्रभावित करती है जबकि नैरेटिव कई दफा मामूली जनसमर्थन को जन सैलाब में परिवर्तित कर देता है। हालांकि इसके अपवाद भी देखे गए हैं, जब 2004 में बिल्कुल सफल दिखने वाला नैरेटिव ‘शाइनिंग इंडिया’ विफल साबित हुआ।
राज्यों की चुनावी राजनीति में भी कुछ नारे और नैरेटिव चर्चित रहे हैं। खासकर नब्बे के दशक में जब मंडल बनाम कमंडल का दौर था तब उत्तर प्रदेश में ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ ने भाजपा से सत्ता छीनी। वहीं बिहार में ‘माय समीकरण’ के जरिए लालू प्रसाद यादव ने बिहार की राजनीति को बेहद प्रभावित किया। मायावती के नेतृत्व में बसपा ने ‘चलेगा हाथी उड़ेगा धूल, रहेगा पंजा न रहेगा फूल’ को चित्रित कर भाजपा व कांग्रेस, दोनों को सत्ता से दूर किया। उसी प्रकार भाजपा-जदयू गठबंधन ने जंगलराज बनाम सुशासन के नैरेटिव से लालू प्रसाद यादव को बिहार में डेढ़ दशक तक सत्ता से दूर रखा। मुद्दों को केंद्र में रखकर बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में ‘पढ़ाई, कमाई, सिंचाई, दवाई और कार्रवाई’ के नैरेटिव ने तेजस्वी प्रसाद यादव को कुशल और लोकप्रिय युवा नेता के रूप में स्थापित कर दिया।
भारतीय राजनीति में भाजपा ‘हिंदुत्व एवं राष्ट्रवाद’ के नैरेटिव से 2014 का लोक सभा चुनाव जीती। इसे सफलीभूत करने में ‘अच्छे दिन’ और ‘सबका साथ सबका विकास’ जैसे नारे कारगर साबित हुए। वहीं 2019 लोक सभा चुनाव से ठीक पहले पुलवामा कांड में शहीद जवानों के आलोक में राष्ट्रवाद का नैरेटिव हावी रहा। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी दो सरकारों के कार्यों को महाजनसंपर्क अभियान के माध्यम से अपनी उपलब्धियों की सूची को भाजपा जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश कर रही है वहीं विपक्षी दल मोदी सरकार को घेरने में एकजुट हैं। संसद में बिना विमर्श के 71 फीसदी विधेयक पारित होना, लगभग 11 अध्यादेश प्रति वर्ष लाना, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा संसद में पूछे सवालों का जवाब नहीं देना, नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी, महंगाई और अर्थव्यवस्था सहित कई मुद्दों पर विपक्ष जनता का साथ लेने प्रयास कर रहा है। मोदी सरकार को घेरने के मुहिम में कई दफ़ा अधिकतर विपक्षी दल की एकजुटता दिख रही है। फिलहाल विभिन्न राज्य सरकारों का दलगत आकलन करें तो भाजपा अपने वूते गुजरात और मध्य प्रदेश में है जबकि असम, अरुणाचल प्रदेश, यूपी, महाराष्ट्र, हरियाणा, मेघालय और गोवा में गठबंधन का हिस्सा है।
वहीं कांग्रेस अपने बूते राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में है जबकि तमिलनाडु, बिहार और झारखंड सरकार में गठबंधन का हिस्सा है। बंगाल, ओड़िशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में क्षेत्रीय दल सरकार में हैं। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है वहीं केरल में वामपंथी समूह दलों की सरकार है।
अग्रेता ही विजेता पण्राली यानी फस्र्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम जैसी चुनाव व्यवस्था में जीत-हार पर राजनीतिक परिस्थितियां हावी रहती हैं। कांग्रेस पण्राली के दौर में भी कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं आ पाती थी। आपातकाल के पश्चात 1977 में लोक सभा चुनाव हो या 1989 का लोक सभा चुनाव, आश्चर्यजनक चुनावी फैसले देखने को मिले। उसी प्रकार यूपीए-के बाद के भाजपा को मिला प्रचंड जनसमर्थन भी चौंकाने वाला था। राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है अगर लोक सभा चुनाव 2019 से ठीक पहले पुलवामा कांड नहीं होता तो भाजपा को भी दूसरा प्रचंड बहुमत की उम्मीद नहीं थी। इसलिए चुनावी निर्णय में तात्कालिक कारणों का एक खास प्रभाव देखा गया है।
नारे गढ़े जाते हैं, और धारणा बनाई जाती हैं। इन्हें सफलीभूत करने में फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया तंत्र सहायक सिद्ध हो रहे हैं। चुनाव प्रबंधन सफल व्यापार के रूप में विकसित हो चुका है। अब तो नारे और नैरेटिव भी प्रबंधन एजेंसी तय करती हैं। यूनानी राजनीतिक विचारक सुकरात ने लोकमत में विमर्श को महत्त्वपूर्ण माना है। हरेक व्यक्ति का सत्य उसके सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक अनुभव के आधार पर तय होता है। भारतीय राज्य का चरित्र में अनेकताओं में एकता अहम विशेषता है और इसे संविधान प्रदर्शित भी करता है। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और अंतर-सामुदायिक समन्वय को देश अपनी विशेषता के रूप में पेश करता है। जबकि भाजपा आक्रामक हिंदुत्ववाद और राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक अभियान के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करती है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता को मुस्लिम तुष्टिकरण के समान देखती है। चुनाव अभियान में राम मंदिर, जय श्रीराम और जय बजरंग बली जैसे धार्मिंक नारों का खुलकर उपयोग करता है। विपक्षी दलों को हिन्दू विरोधी और मुस्लिम समर्थक जैसे नैरेटिव में उलझाए रखने का प्रयास करती है।
मोदी सरकार के दो कार्यकाल की खामियां ही 2024 लोक सभा चुनाव में उसकी चुनौती होंगी। मोदी सरकार की पहली चुनौती अपने दस साल का हिसाब और दूसरी तरफ हिन्दुत्व व राष्ट्रवाद पर जनता का वही उत्साह और विश्वास हासिल करना होगा। विपक्षी दलों के समक्ष पहली चुनौती यह होगी कि जन सरोकार के मुद्दों पर मोदी सरकार का पोल कितना खोल पाएगी। अभी पक्ष-नैरेटिव के बरक्स विपक्ष-नैरेटिव भी मजबूत बनता हुआ दिख रहा है।
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