हरियाणा में किसका दांव

Last Updated 14 Jun 2023 01:52:15 PM IST

शांत नजर आ रही हरियाणा की राजनीति में फिर से लहरें उठ रही हैं। लहरें दोनों ओर हैं : सत्ता पक्ष में और विपक्ष में भी। सत्तारूढ़ भाजपा-जजपा गठबंधन में परस्पर कटाक्ष अब ज्यादा मुखर होने लगे हैं तो अचानक राज्य प्रभारी बदले जाने से कांग्रेस की राजनीति भी गरमा रही है।


हरियाणा में किसका दांव

पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुमत पाने से चूक गई थी। 90 सदस्यीय विधानसभा में उसे 40 सीटें मिली थीं, जबकि मुख्य विपक्षी कांग्रेस को 31 और त्रिशुंक विधानसभा का बड़ा कारण नये राजनीतिक दल जजपा को माना गया, जिसने अप्रत्याशित रूप से 10 सीटें जीत कर अपने चुनाव चिह्न चाबी को सत्ता की चाबी में तब्दील कर लिया।

बेशक, आठ निर्दलियों के अलावा हरियाणा लोकहित पार्टी के गोपाल कांडा भी जीते। जाहिर है, सबसे बड़े दल के नाते भाजपा सत्ता में हिस्सेदारी के लिए लालायित निर्दलियों के समर्थन से भी सरकार बना सकती थी, लेकिन स्थिरता का संदेश देने के लिए जजपा से गठबंधन को बेहतर विकल्प माना। कहा जो भी जाए, गठबंधन सत्ता में भागीदारी के लिए ही किए जाते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि जजपा नेता दुष्यंत चौटाला को मनोहर लाल सरकार में उपमुख्यमंत्री बनाते हुए भारी-भरकम मंत्रालय भी दिए गए। बाद में जजपा के दो और विधायकों: देवेंद्र बबली और अनूप धानक को भी मंत्री बनाया गया तो कुछ को निगम और बोडरे के चेयरमैन के तौर पर एडजस्ट किया गया। दोनों दलों ने अपने चुनाव घोषणापत्रों के आधार पर न्यूनतम साझा कार्यक्रम भी तय किया।

शुरू में सब कुछ ठीक चला भी, लेकिन जनाधार के अंतर्विरोध और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं जब-तब उभरते भी रहे। किसान आंदोलन से ले कर वृद्धावस्था पेंशन तक पर जजपा अलग सुर में बोलती रही, तो निजी उद्योगों में स्थानीय युवाओं के लिए आरक्षण का श्रेय लेने की होड़ दोनों दलों में होड़ नजर आई। कोरोनाकाल में शराब से ले कर रजिस्ट्री तक में हुए कथित घोटाले दुष्यंत चौटाला के ही विभागों से जुड़े रहे, इसलिए भी दोनों दलों के रिश्ते असहज होते गए। शराब घोटाले पर आबकारी मंत्री के रूप में चौटाला और गृह मंत्री के रूप में अनिल विज आमने-सामने भी नजर आए, लेकिन गठबंधन धर्म के मर्म को महसूस करते हुए दोनों दलों का नेतृत्व इस सबको नजरअंदाज करता रहा। वैसे, दोनों दलों का जनाधार इस हद तक अलग है कि उसके एक साथ मतदान करने की संभावना नजर नहीं आती। इसीलिए इस बीच हुए स्थानीय चुनावों में भी दोनों दलों के सुर कई बार अलग-अलग सुनाई दिए।

यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि पिछली बार जजपा के टिकट पर जीते ज्यादातर विधायक मूलत: उसके नहीं हैं। जिन दमदार दावेदारों को उनके मूल दल से टिकट नहीं मिला, उन्होंने जजपा के टिकट पर जोर आजमाया। उनमें से कई जीत भी गए, जिनकी बदौलत पहले ही विधानसभा चुनाव से जजपा का कद इतना बढ़ गया कि दुष्यंत उपमुख्यमंत्री पद पा गए। अब जबकि अगले चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं, दोनों ही दलों को अपनी रणनीति अभी से बनानी होगी। हालांकि जीत का सच सभी जानते हैं, पर पिछली बार 10 सीटें जीतने वाली जजपा अगले चुनाव में ज्यादा सीटों पर दावा करना चाहेगी, जबकि भाजपा की कोशिश अपने दम पर बहुमत पाने की होगी। जनाधार की भिन्नता और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के टकराव के मद्देनजर माना जाता रहा है कि अगले चुनाव से पूर्व टूट जाना ही इस गठबंधन की नियति है। वैसा किस दल की सुनियोजित रणनीति के अनुरूप होगा-यह देखना दिलचस्प होगा। ऐसे में दुष्यंत की उचाना सीट से पूर्व केंद्रीय मंत्री बीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेमलता को भाजपा उम्मीदवार घोषित करना तो बहाना है, असल मकसद एक-दूसरे को हैसियत जताना है। सरकार में होते हुए भी जजपा किसानों से ले कर पहलवानों तक के मुद्दों पर अलग दिखने की कोशिश करती है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार बनाने के लिए समर्थन दे कर जजपा ने एहसान नहीं किया, उसे एवज में मंत्री पद दिए गए। यह भी कि जजपा के बिना सरकार चल सकती है। भाजपा के हरियाणा प्रभारी बिप्लव देव से निर्दलीय विधायकों की मुलाकात से संभावित वैकल्पिक रणनीति का संदेश स्पष्ट और मुखर भी कर दिया गया। बीरेंद्र सिंह के इस बयान को भी हवाई नहीं माना जा सकता कि जजपा के सात विधायक उनके संपर्क में हैं, जिन्हें कभी भी भाजपा में शामिल कराया जा सकता है। उधर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की राजनीति फिर गरमाने के आसार हैं।  

संतुलन की कवायद करते-करते कांग्रेस आला कमान ने साल भर से पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को हरियाणा में फ्री हैंड दे रखा है। वह स्वयं नेता प्रतिपक्ष हैं, तो उन्हीं की पसंद के उदयभान प्रदेश अध्यक्ष हैं। फिर भी इस बीच पर्याप्त मतों के बावजूद कांग्रेस का राज्य सभा उम्मीदवार हार गया, पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के पुत्र कुलदीप बिश्नोई भाजपा में चले गए, और प्रदेश संगठन है कि आज तक नहीं बन पाया। जिस गुट का भी प्रदेश अध्यक्ष होता है, वह चहेतों को भरना चाहता है, जिसका दूसरे गुट विरोध करते हैं। नतीजतन, संगठन लटक जाता है। पिछले नौ साल की यही कहानी है। अब शक्ति सिंह गोहिल की जगह जिस तरह दीपक बावरिया को प्रभारी बनाया गया है, उसे संगठन के गठन के प्रति गंभीरता माना जा रहा है। यह भी कि पहले हिमाचल प्रदेश और अब कर्नाटक की सत्ता भाजपा से छीनने से बढ़े आत्मविश्वास वाला आला कमान अब किसी क्षत्रप को अपने राज्य में मनमानी की छूट नहीं देने वाला।

अगर ऐसा है, तो हरियाणा कांग्रेस को प्रदेश संगठन तो मिलेगा ही, उसके आंतरिक समीकरण भी बदलेंगे। कुमारी सैलजा, रणदीप सिंह सुरेजवाला और किरण चौधरी के समर्थक नेता-कार्यकर्ताओं को भी संगठन में सम्मानजनक ढंग से समाहित करना होगा। कभी सत्तारूढ़ दल रहे इनेलो को, पार्टी और परिवार में टूट के बाद, अभय सिंह चौटाला सभी 90 विधानसभा क्षेत्रों की परिवर्तन यात्रा से नये सिरे से खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, तो दिल्ली और पंजाब जीत चुकी आप भी हरियाणा में गंभीर चुनावी दांव लगाने की तैयारी में है। इनेलो के चश्मे की नजर किसे लगेगी और आप की झाडू किसी पर चलेगी-यह देखना दिलचस्प होगा, और हरियाणा के भावी राजनीतिक परिदृश्य के लिए निर्णायक भी।

राज कुमार सिंह


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