मुद्दा : चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा

Last Updated 31 May 2023 07:17:18 AM IST

चिकित्सा से जुड़े लोगों को गंभीर चुनौतियों से गुजरना पड़ रहा है। फिलहाल केरल में एक दुखद हादसे ने चिकित्सकों की सुरक्षा पर चर्चा फिर से तेज कर दी है।


मुद्दा : चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा

11 मई को कोल्लम जिले (Kollam Distt) के एक तालुक अस्पताल में महिला डॉक्टर की हत्या कर दी गई। डॉ. वंदना दास को उसी व्यक्ति ने मार डाला जिसका वह इलाज कर रही थीं। आरोपी जी. संदीप निलंबित शिक्षक है। नशे की हालत में अपने परिजनों के साथ मारपीट के दौरान घायल हो गया था। पुलिस उसे अस्पताल लाई थी। डॉक्टर उसके पैर में हुए घाव की ड्रेसिंग कर रही थीं। अचानक वह उत्तेजित हो गया और कैंची और सर्जिकल छूरे से डॉक्टर पर हमला कर दिया। इलाज के दौरान डॉ. दास की मौत हो गई।

केरल उच्च न्यायालय ने इस हत्या को ‘व्यवस्थागत नाकामी’ करार दिया। अदालत की विशेष पीठ ने केरल में सभी सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों तथा स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए नये प्रोटोकॉल बनाने का निर्देश दिया। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने आपातकालीन बैठक करके केरल हेल्थकेयर सर्विस पर्सन एंड हेल्थकेयर सर्विस इंस्टीट्यूशंस (हिंसा एवं संपत्ति को नुकसान की रोकथाम) अधिनियम, 2012 में संशोधन के लिए अध्यादेश जारी किया। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने 23 मई को अध्यादेश पर हस्ताक्षर कर दिए।

इसमें स्वास्थ्यकर्मिंयों को गंभीर शारीरिक नुकसान पहुंचाने वालों को सात साल तक कैद और पांच लाख रुपये तक जुर्माने सहित कड़ी सजा का प्रावधान किया गया। यह पहल फौरी राहत लगती है। लेकिन चिकित्सा कायरे से जुड़े लोग राष्ट्रीय कानून की मांग कर रहे हैं ताकि पूरे देश में मेडिकल सेवाओं से जुड़े सभी लोगों को भयमुक्त वातावरण में काम करने का अवसर मिल सके। मार्च, 2022 में राजस्थान के दौसा में एक महिला डॉक्टर की आत्महत्या भी काफी चर्चा में रही। एक गर्भवती महिला की मौत के बाद परिजनों ने डॉ. अर्चना शर्मा पर हत्या का आरोप लगाते हुए मामला दर्ज कराया। प्राथमिकी में उनके पति डॉ. सुनीत उपाध्याय को भी आरोपी बनाया गया था। इससे आहत होकर डॉ. अर्चना ने आत्महत्या कर ली। 2019 में पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों पर हमलों की कई घटनाओं ने चिकित्सा पेशेवरों को हिंसा से बचाने के लिए विशेष कानून पर चर्चा तेज कर दी थी।

तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हषर्वर्धन ने सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर कहा था कि डॉक्टरों की सुरक्षा सुनिश्चित करना राज्य का कर्त्तव्य है। डॉ. हषर्वर्धन ने अपने मंत्रालय से राज्यों को भेजे गए सात जुलाई, 2017 के पत्र का हवाला दिया था जिसमें आईएमए द्वारा उठाए गए मुद्दों की समीक्षा के लिए मंत्रालय द्वारा गठित अंतरमंत्रालयी समिति के निर्णय शामिल थे। समिति ने सिफारिश की थी कि स्वास्थ्य मंत्रालय उन सभी राज्य सरकारों को सुझाव देगा, जिनके पास डॉक्टरों और स्वास्थ्य पेशेवरों की सुरक्षा के लिए विशिष्ट कानून नहीं है। आईएमए के अनुसार देश के 75 फीसदी से अधिक डॉक्टरों ने किसी न किसी प्रकार की हिंसा का सामना किया है।

एक रिपोर्ट के अनुसार कार्यस्थल पर स्वास्थ्यकर्मिंयों के साथ हिंसा के मामले अन्य पेशागत कायरे की तुलना में चार गुना अधिक हैं। अनेक मामलों की रिपोर्ट तक नहीं दर्ज हो पाती। देश में ‘पुलिस’ और ‘विधि-व्यवस्था’ राज्य के विषय हैं। स्वास्थ्य ‘राज्य सूची’ में है। लिहाजा, डॉक्टरों की सुरक्षा का दायित्व राज्यों का है न कि केंद्र सरकार का। लिहाजा, विभिन्न राज्यों ने ‘मेडिकल प्रोटेक्शन एक्ट’ (एमपीए) बनाए हैं। तेइस राज्यों में ऐसे कानून हैं। 2007 में एमपीए लागू करने वाला पहला राज्य आंध्र प्रदेश है। यह एक्ट स्वास्थ्य सेवा से जुड़े व्यक्तियों और चिकित्सा सेवा संस्थानों (हिंसा एवं संपत्ति को नुकसान की रोकथाम) अधिनियम, के नाम से जाना जाता है। इसमें हिंसा या ऐसा प्रयास करने या उकसाने वाले को तीन साल तक जेल और पचास हजार तक जुर्माने का प्रावधान है। ऐसे अपराध सं™ोय और गैर-जमानती होंगे।

लेकिन ऐसे कानून के बावजूद समस्या कायम है। पंजाब और हरियाणा में एक अध्ययन से पता चला है कि 2010-15 के बीच इस कानून के तहत किसी को दंडित नहीं किया गया। ज्यादातर मामलों में रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की गई। कई मामलों में समझौता हो गया। महाराष्ट्र में पुलिस को इस कानून की जानकारी तक नहीं थी जबकि वहां 2010 में यह कानून पारित किया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर एक विधेयक 2018 में संसद में पेश किया गया था। लेकिन इसे यह कहकर स्थगित कर दिया गया कि डॉक्टरों के लिए अलग कानून नहीं हो सकता। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि आईपीसी और सीआरपीसी की मौजूदा धाराएं स्वास्थ्य सेवा के कार्यस्थल पर हिंसा से निपटने के लिए पर्याप्त हैं। स्वास्थ्यकर्मिंयों के लिए विशेष कानून बनाने से वकीलों और अन्य पेशेवरों की समान मांगों का द्वार खुल जाएगा।

फिलहाल, मामला राज्यों के कानून बनाम केंद्रीय कानून की बहस में लटका हुआ है। डॉक्टर केंद्रीय कानून चाहते हैं। आईएमए के राष्ट्रीय सचिव रहे जयेश लेले के अनुसार 23 राज्यों में स्वास्थ्यकर्मिंयों की सुरक्षा संबंधी कानून बने हैं, लेकिन सुरक्षा के लिहाज से बिल्कुल निष्प्रभावी हैं। जाहिर है कि नागरिक स्वास्थ्य से जुड़े इस व्यापक विषय पर केंद्र सरकार की बड़ी पहल से ही कोई रास्ता निकलेगा।

विष्णु राजगढ़िया


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