नया संसद भवन : यह इतिहास का निर्माण है

Last Updated 30 May 2023 01:36:57 PM IST

नए संसद भवन (New Parliament inauguration) के उद्घाटन के समय लगभग राजनीतिक परिदृश्य वही था जो हमने इसके शिलान्यास- भूमि पूजन और योजना के संदर्भ में देखी। विपक्षी दलों के बड़े समूह ने इसका बहिष्कार किया।


नया संसद भवन : यह इतिहास का निर्माण है

क्या करीब 100 वर्ष पहले अंग्रेजों द्वारा अपने शासन की मानसिकता से बनाया गया संसद भवन और उसके आसपास की पूरी रचना अनंतकाल तक रहनी चाहिए थी?  

आजादी के समय न हमारे पास इतना समय था और न संसाधन कि उसका परित्याग कर नए भवन में संविधान सभा चले या निर्वाचित सांसद संसदीय गतिविधियों में हिस्सा ले सकें।   कहा जा रहा है कि इसी भवन में हमारी आजादी की घोषणा हुई , संविधान सभा वहीं बैठी आदि आदि।  क्या इसके आधार पर उसी संसद भवन को बनाए रखा जाएगा? इसमें लगातार फेरबदल और निर्माण होते भी रहे हैं। 1956 में और मंजिलें जोड़ीं गई थो 1975 में संसद एनेक्सी का निर्माण हुआ। 2002 में अपग्रेडेशन हुआ, पुस्तकालय भवन बना जिसमें कमिटी कक्ष के अलावा सम्मेलन कक्ष और एक सभागार तैयार करना पड़ा। यह भी कम पड़ा तो 2016 में संसद एनेक्सी का और विस्तार किया गया। संसद भवन परिसर की केवल मुख्य संरचना ही एक हद तक पुरानी है, शेष बहुत कुछ लगातार निर्मिंत हुआ है। संसद भवन में अब वर्तमान एवं भविष्य के आवश्यकताओं को देखते हुए बहुत ज्यादा परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रह गई थी। कई पीठासीन अधिकारियों ने सांसद भवन के अंदर की समस्याओं पर चिंता व्यक्त करते हुए इसके समाधान करने की बात की।  2026 में परिसीमन के बाद सांसदों की संख्या बढ़ने की संभावना है।

नया संसद भवन सुविधाओं से युक्त हर तरह की आवश्यकता को पूरी करने वाली है। न केवल सांसदों की बढ़ी हुई संख्या अगले 100 वर्षो तक इसमें समायोजित हो सकेंगी बल्कि आधुनिक तकनीकों में भी अद्यतन है। स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षो बाद अंग्रेजों का भवन ही हमारे लोकतंत्र की शीर्ष इकाई का स्थान हो यह समझ नहीं आता। अंग्रेजों ने संसद से लेकर आसपास के इलाकों को, जिसे सेंट्रल विस्टा कहा जाता है, अपने अनुसार विकसित किया। उनमें पिछले 75 वर्षो में हुए परिवर्तन भी नाकाफी हैं। आवश्यक हो गया था कि कोई सरकार साहस कर भविष्य की चुनौतियों और आवश्यकताओं का आकलन करते हुए पूरे क्षेत्र का पुनर्निर्माण करे। विरोधी पार्टयिां भले राष्ट्रपति से उद्घाटन न कराए जाने को मुद्दा बनाएं, सच यही है कि वे पूरी परियोजना के विरुद्ध थे। न्यायालय से लेकर हर स्तर पर इसे बाधित करने की कोशिश हुई। राष्ट्रपति उद्घाटन करते इसमें समस्या नहीं थी पर प्रधानमंत्री करें इसमें भी समस्या नहीं होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध करना एक बात है, किंतु यह पूरे देश के लिए आत्मसंतोष का विषय होना चाहिए कि हम इस स्थिति में है कि विश्व के श्रेष्ठ संसद भवन निर्मिंत करा सकते हैं और उसके अनुरूप आसपास के सरकारी भवनों और स्थलों को भी उत्कृष्ट ढांचे में नए सिरे से खड़ा कर सकते हैं। विरोध और समर्थन करने वाली पार्टयिों की संख्या महत्त्वपूर्ण नहीं है। इस आधार पर मूल्यांकन करना उचित नहीं होगा कि कितनी संख्या साथ है कितनी दूर।

मुख्य बात यह है कि क्या विरोध करने वाली पार्टयिों का देश, लोकतंत्र और उससे संबंधित ढांचे आदि को लेकर कोई विशेष विजन यानी कल्पना है या नहीं? नरेन्द्र मोदी से सहमत हों,  असहमत हों,  एक विजन के तहत उन्होंने समस्त परिवर्तन किए हैं। 1967 से इंडिया गेट के पास मूर्ति की खाली जगह पर सुभाषचंद्र बोस की मूर्ति लगी। जॉर्ज पंचम की मूर्ति हटाने के बाद किसी को शायद आज तक समझ नहीं आया कि वहां किसकी मूर्ति लगानी चाहिए। यह भी प्रश्न है कि 1947 के बाद 20 वर्षो तक वहां जॉर्ज पंचम की मूर्ति क्यों थी? उसके साथ वहां युद्ध स्मारक बनाया गया। इंडिया गेट तक का राजपथ कर्तव्य पथ बना। तो इन सबके पीछे निश्चित रूप से देश के संदर्भ में यह सोच है कि इन स्थानों से क्या संदेश जाए और लोगों के अंदर कैसी मानसिकता पैदा हो।  सुभाषचंद्र बोस स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए लोगों के अंदर दासता से मुक्ति के लिए सैन्य- वीरत्व-आत्मोसर्ग भाव की प्रेरणा है। आधुनिक भारत में उनसे बड़ी प्रेरणा का स्रोत कोई नहीं हो सकता। भारत के पास कभी अपना युद्ध स्मारक नहीं रहा, जबकि हमें अनेक युद्ध लड़े, जिनमें हमारे जवानों ने अद्भुत वीरता का प्रदशर्न किया और अनेक वीरगति को प्राप्त हुए। इन सबको मिलाकर संसद और आसपास की सेंट्रल विस्टा परियोजना को देखना होगा। जीवन में स्थलों और प्रतीकों का व्यापक महत्त्व होता है क्योंकि वहां से आपकी मानसिकता बनती है और संदेश निकलता है। अनेक स्थलों का मोदी काल में इसी तरह या तो पुनर्निर्माण हुआ है , जीर्णोद्धार हुआ है या उन स्थानों पर मूर्तियां लगी हैं।

भारत यदि विश्व के प्रमुख देशों की कतार में खड़ा है तो उसके अनुसार उसके सरकारी भवनों में भी भव्यता होनी चाहिए। दिल्ली आने वाले या रहने वाले लोगों को संसद के आसपास पूरे सेंट्रल विस्टा में निर्मिंत या निर्माणाधीन स्थलों को देखकर भव्यता का अहसास होता है। आज भारत जैसे देश के लिए स्वयं को हर स्तर पर एक बड़े ब्रांड के रूप में पेश करने पर किया गया यह खर्च किसी दृष्टि से अनावश्यक नहीं कहा जाएगा। यह दृष्टि का ही अभाव था कि 14 अगस्त, 1947 को प्राप्त सेंगोल यानी राजदंड को पंडित नेहरू ने वह स्थान नहीं दिया जो उसे मिलना चाहिए था।
देश में किसे याद था कि अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के समय भारतीय परंपरा के अनुसार राजदंड स्वयं नेहरू जी ने ग्रहण किया जिसे बाद में शायद विचारधारा के अनुकूल न मानते हुए दिल्ली से बाहर भेज दिया गया। क्या राजदंड आनंद भवन और संग्रहालय के लिए दिया गया था? मोदी सरकार नहीं होती तो उस राजदंड को पुनस्र्थापित करने का कार्यक्रम तो छोड़िए कल्पना भी कोई नहीं करता। स्पष्ट है कि विरोधी इस महत्त्वपूर्ण अवसर का महत्त्व नहीं समझ पाए। वे यह भी नहीं सोच पाए कि बरसों बाद जब संसद के उद्घाटन की तस्वीरें देखी जाएंगी या फिर कौन-कौन शामिल थे इसका उल्लेख होगा तो उनमें इस समय के बहिष्कार करने वाले विपक्षी नेता और सांसद नहीं दिखेंगे। इतिहास के अध्याय से स्वयं को वंचित रख ये नेता क्या पाना चाहते हैं? इतिहास किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।

अवधेश कुमार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment