अमन-शांति : विश्व बंधुत्व की सोच बढ़े

Last Updated 25 May 2023 01:35:04 PM IST

विश्व के अधिकांश लोग धर्म, नस्ल, देश, महाद्वीप के आधार पर अपनी पहचान बताते हैं। इन सब से हटकर एक अन्य पहचान भी हो सकती है, जो बहुत महत्त्वपूर्ण है पर इस पहचान को बहुत कम महत्त्व मिला है।


अमन-शांति : विश्व बंधुत्व की सोच बढ़े

यह विश्व नागरिकता या विश्व बंधुत्व की पहचान है। इस सोच में पूरे विश्व को एक बड़े परिवार के रूप में ही देखा जाता है। इस सोच में रंग, नस्ल, लिंग, जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता, किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता। सभी लोगों की भलाई को सोच का आधार बनाया जाता है।

इस सोच में निहित है कि जहां कहीं भी टकराव की कोई संभावना उत्पन्न होगी उसका शांतिपूर्ण समाधान निकाल लिया जाएगा क्योंकि मूल सोच तो सबकी भलाई की है, स्वार्थ साधने की नहीं। इस तरह की सोच का जितना प्रसार होगा, युद्ध, गृह युद्ध और हर तरह की हिंसा की संभावना अपने आप कम होती जाएगी। यह किसी भी समय के लिए बड़ी उपलब्धि होती पर वर्तमान दौर में, जब युद्ध और हथियार अत्यधिक विनाशक हो चुके हैं, युद्ध की संभावना को कम कर पाना पहले से कहीं अधिक जरूरी हो गया है। इसी तरह दुनिया की सबसे बड़ी पर्यावरणीय समस्याओं (जैसे जलवायु बदलाव आदि) के लिए विभिन्न देशों को अपने संकीर्ण दृष्टिकोणों से ऊपर उठने की जरूरत है।

यह तो धरती की जीवनदायिनी क्षमता को बचाने का सवाल है। यदि विश्व नागरिकता और विश्व बंधुत्व की सोच विकसित होगी तो इससे गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं को सुलझाने में मदद मिलेगी। विश्व बंधुत्व की सोच यदि सभी मनुष्यों तक सीमित रहे, तो भी इसमें कुछ संकीर्णता आ जाएगी। अत: इस सोच में जीवन के सभी रूपों की रक्षा और भावी पीढ़ियों की रक्षा की सोच को भी शामिल करना चाहिए। यदि विश्व नागरिकता और विश्व बंधुत्व की सोच को विभिन्न स्तरों पर प्रोत्साहित किया गया और इसे व्यापक जन-अभियान का रूप दिया गया तो इससे विश्व की अनेक गंभीर समस्याओं के समाधान में सहायता मिल सकती है। इसकी अनुकूल भूमिका तैयार करने के लिए विश्व बंधुत्व और नागरिकता पर कई स्तरों पर विमर्श जरूरी है। इसमें भारत के गांधीवादी आंदोलनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। सवरेदय आंदोलन की ‘जय जगत’ की सोच इसके बहुत अनुकूल है। विश्व में अमन-शांति के कई आंदोलन और अभियान हैं। उनका सहयोग इस कार्य में बेहतर से बेहतर ढंग से मिल सके, यह सुनिश्चित करने में संयुक्त राष्ट्र भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इतना निश्चित है कि ये प्रयास इस समय व्यापक स्तर पर जरूरी हैं और इनसे दुनिया की अनेक पेचीदा समस्याओं के समाधान में मदद मिलेगी।

आज जलवायु बदलाव का सामना करने के तकनीकी उपायों पर ही अधिक चर्चा हो रही है, पर महात्मा गांधी ने बताया कि सादगी और समता के मूल मूल्यों पर आधारित समाज में ही इस तरह के विनाश से बचाव की अधिक संभावना है। ऐसी समस्याओं पर गहराई से अध्ययन करने वाले विद्वान भी कहीं न कही इसी निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि पर्यावरण संकट के समाधान के लिए समाज के बुनियादी मूल्यों में बदलाव चाहिए, सादगी और समता आधारित समाज चाहिए। इसी तरह यु़द्ध और अति विनाशक हथियारों के उपयोग की संभावना को समाप्त करने के लिए माना जा रहा है कि समय-समय पर होने वाले समझौते और शांति प्रयास ही पर्याप्त नहीं हैं। मूल्यों में ऐसे बदलाव चाहिए जिससे युद्ध हिंसा और शस्रें की दौड़ भी रुक सके। इसके लिए लालच, दूसरों का हिस्सा छीनने, दूसरों पर आधिपत्य करने की प्रवृत्तियों पर रोक लगाने के साथ सादगी, संयम और अहिंसा के सिद्धांतों के लिए प्रतिबद्धता जरूरी है। यदि महात्मा गांधी की सोच को इस तरह से सामने रखा जाए जहां वह प्रमुख समकालीन समस्याओं के समाधान से जुड़ती नजर आए तो इससे उनके विचारों को नई ताजगी से अधिक लोगों विशेषकर बढ़ती संख्या में युवाओं तक पहुंचने का अवसर मिलेगा। इसके लिए जहां यह जरूरी है कि गांधी जी के विचारों को समकालीन समस्याओं से जोड़ कर प्रस्तुत किया जाए, वहां यह भी जरूरी है कि उनके विचारों में अनुचित तोड़-मरोड़ न की जाए।

विश्व के विभिन्न देशों में अनेक सार्थक जन आंदोलन सक्रिय हैं। वे एक-दूसरे के अनुभवों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। इस वजह से एक-दूसरे के नजदीक आने की, एक दूसरे को बेहतर जानने की जरूरत सदा रही है। पर हाल के समय में जो स्थितियां विश्व स्तर पर तेजी से उत्पन्न हो रही हैं, उनके कारण विश्व भर के जन आंदोलन की नजदीकी और मित्रता को तेजी से बढ़ाने की जरूरत अब पहले से कहीं अधिक हो गई है। विश्व के अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि अब तो धरती पर विविधता भरे जीवन को पनपाने वाली स्थितियां ही संकटग्रस्त हो गई हैं। ऐसा तरह-तरह के पर्यावरण विनाश के कारण हुआ है। भविष्य के युद्धों में महाविनाशक हथियारों का उपयोग हुआ तो इस कारण भी धरती की जीवनदायिनी क्षमता खतरे में पड़ जाएगी। इस तरह के महाविनाशक हथियारों की होड़ और दौड़ जारी है।

दूसरी ओर, विश्व के मौजूदा नेतृत्व को अभी तक ऐसी कोई सफलता नहीं मिली है जिससे धरती पर जीवन की स्थितियों को संकटग्रस्त करने वाले कारकों पर असरदार रोक लगे। अनेक अति शक्तिशाली देशों के नेतृत्व ने समस्याओं को अभी अपनी प्राथमिकता तक नहीं बनाया है और इस जिम्मेदारी से पीछे हट रहे हैं। इस स्थिति में विश्व के जन आंदोलनों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि समस्याओं को समझ कर सुलझाने में अपनी बढ़ती भूमिका को स्वीकार करें। इसके लिए उन्हें व्यापक एकता बनानी होगी-अपने देश में भी व उससे बाहर भी। बहुत छोटे स्तर पर कार्य करते हुए वे व्यापक मुद्दों को प्रभावित नहीं कर पाएंगे। जन-आंदोलनों की एक मुख्य भूमिका यह है कि जीवन के अस्तित्व मात्र को खतरे में डालने वाली समस्याओं को जनसाधारण के बीच ले जाएं ताकि आम लोगों की ओर से समस्याओं को उच्च प्राथमिकता देने के लिए बड़ा दबाव बने। यह भी जरूरी है कि समस्याओं के जो भी समाधान खोजे जाएं, न्याय, समता और लोकतंत्र की परिधि में खोजे जाएं। इस तरह की सही राह तलाशने और इस पर व्यापक सहमति बनाने में जन-आंदोलनों और जन-संगठनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, पर इस भूमिका को सफलतापूर्वक निभाने के लिए उन्हें बहुत मेहनत और तैयारी करनी पड़ेगी।

भारत डोगरा


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