तर्क-वितर्क : विषैले प्रचार से आहत होता संसदीय लोकतंत्र

Last Updated 30 Apr 2023 01:09:48 PM IST

भारतीय लोकतंत्र (Indian Democracy) में नेताओं द्वारा चुनाव प्रचार और फिर चुनाव प्रचार के मीडिया में प्रचार में भिन्नता (Variation in media coverage of election campaign) दिखती है।


विषैले प्रचार से आहत होता संसदीय लोकतंत्र

कर्नाटक में विधानसभा चुनाव (Karnataka Assembly Election) के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं द्वारा मीडिया में प्रमुखता पाने वाले प्रचार से यह लगता है कि भारतीय जनता पार्टी (BJP) और कांग्रेस पार्टी (Congress Party) एक दूसरे के खिलाफ चुनाव प्रचार में तीखापन पैदा करने की कोशिश (Trying to create acrimony in the election campaign0 कर रहे हैं।  

राजनीतिक दल यह समझने लगे हैं कि तीखापने के भाव से मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है, या फिर विरोधी के खिलाफ मतदाताओं को खड़ा किया जा सकता है। कर्नाटक में 10 मई के लिए मतदान से पहले चुनाव प्रचार जोरों पर है। दक्षिण भारत में उत्तर प्रदेश जैसा समझे जाने वाले कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी अपनी सत्ता को किसी भी तरह से बचाना चाहती है, और कांग्रेस का मानना है कि 1979 में जिस तरह से इंदिरा गांधी लोक सभा के लिए कर्नाटक से उपचुनाव जीतने के बाद 1980 में सत्ता में वापस आ गई थीं, उसी तरह कर्नाटक विधानसभा की जीत से 2024 में वापसी की पृष्ठभूमि तैयार हो सकती है।

कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी की उसकी विभाजनकारी नीतियों के कारण आलोचना करती रही है। इसी आलोचना के लिए जन समर्थन जुटाने के उद्देश्य से राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा भी की, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकाजरुन खड़गे ने गदग जिले के नारेगल की एक रैली को कन्नड़ भाषा में संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विषैले सांप की तरह कहा। उन्होंने कहा कि सांप के इस विष को टेस्ट करने की कोशिश भर से मौत हो सकती है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की विषैली उपमा के साथ मोदी सरकार के बारे में उनकी राय को व्यक्तिगत तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ टिप्पणी के रूप में बताया गया। संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रिया के पूरे होने में चुनाव प्रचार का पड़ाव बेहद संवेदनशील होता है।

संसदीय लोकतंत्र की स्थापना के बाद शुरु आती दिनों के चुनाव प्रचार को मतदाताओं के प्रशिक्षण के रूप में लिया जाता था। नीतियों को लेकर मतदाताओं के बीच संवाद की स्थिति बने यह उद्देश्य होता था, लेकिन संसदीय लोकतंत्र आखिरकार, व्यक्तिगत होता चला गया है। दरअसल, व्यक्ति और किसी व्यक्ति के नाम और चेहरे का पार्टी के चिह्न के रूप में इस्तेमाल होने में बेहद महीन रेखा होती है। किसी पार्टी के नेता के भीतर एक आंतरिक संघर्ष चलता है। वह यह कि उसकी अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक पृष्ठभूमि होती है, और दूसरा उसे पार्टी व संगठन के विचारों, नीतियों के लिए अपनी जिम्मेदारी और भूमिका पूरी करनी होती है। इन दोनों के बीच जो राजनीतिज्ञ तालमेल बेहतर तरीके से बना लेते हैं, उन्हें इस बात का अहसास बराबर रहता है कि किन बातों से किस तरह के विवाद पैदा हो सकते हैं। खड़गे बेहद मंजे हुए राजनीतिज्ञ हैं, और कन्नड़ भाषी हैं।

उन्हें यह समझ हो सकती है कि लोगों को किस तरह की भाषा और लोगों को अपनी बात को समझाने के लिए किस तरह के उदाहरण या प्रतीकों का इस्तेमाल करना चाहिए, मगर सांप लोगों के बीच में आम तौर पर एक विषैले जीव के रूप में देखा जाता है। उसका भय लोगों के बीच में हर वक्त व्याप्त रहता है। खड़गे ने भले ही नरेन्द्र मोदी की सरकार की नीतियों को लोगों को सांप की उपमा से संप्रेषित करने की कोशिश की हो लेकिन जब भारतीय गणतंत्र में संसदीय लोकतंत्र के परिपक्व होने का दावा करते हैं, तो इस तरह की उपमाओं का चुनाव प्रचार में इस्तेमाल स्वीकार्य नहीं हो सकता। लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था की भाषा और उपमाएं भारतीय समाज में लोक के स्तर पर प्रचारित भाषा और उपमाओं से टकराती हैं। इसका ध्यान रखना जरूरी होता है। हालांकि खड़गे ने बाद में स्पष्ट करने की कोशिश की कि उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को व्यक्तिगत तौर पर नहीं, बल्कि भाजपा को और उसकी नीतियों को विषैले सांप की उपमा दी है। उनका आशय यह है कि मोदी का संबोधन भाजपा और उसकी नीतियों के नाम और काम के चिह्न के रूप में स्थापित हुआ है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र में जिस तरह की भाषा का वर्चस्व है, उसमें ऐसी उपमाएं वर्जित मानी जाती हैं।

कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे की भाषण शैली ऐसी ही है, यहां उससे इतर भी एक स्थिति यह दिखती है कि किसी भी चुनाव से पहले कोई एक नेता कोई ऐसी बात कह देता है, जो भावनाओं को एक नई दिशा की तरफ मोड़ने में सहायक हो सकती है। यह बात कई राजनीतिक पार्टयिों के नेताओं पर लागू होती है। कांग्रेस के बीच कई नेता ऐसे हैं, जो अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि और अपने व्यक्तिगत आचरण का प्रदशर्न चुनाव प्रचार के दौरान कर ही देते हैं। दरअसल, यह एक तरह का बहकाव होता है। कुछ दिनों से कर्नाटक चुनाव पर नजर रखने वाले लोगों के बीच यह बात लगातार चलती रही है कि कर्नाटक में कांग्रेस बेहतर स्थिति में दिख रही है। लिहाजा, कोई-न-कोई विवादास्पद बात या स्थिति जरूर खड़ी हो सकती है। यह आशंका कांग्रेस की पूरी बुनावट के मद्देनजर रहती है। ऐसा इसीलिए कहा जा रहा है क्योंकि कांग्रेस अंदरूनी तौर पर बिखरी हुई है, और उसे पुनर्गठित करने की कोशिश देखी जा रही है। दिक्कत यह है कि वह लंबे समय तक सत्ता में रही है, और पुनर्गठन में सत्ता का वह स्वाद आड़े आता है। कांग्रेस नेताओं के बारे में यह टिप्पणी की जाती है कि उनके एक खेमे को जैसे ही किसी राज्य में सत्ता में वापसी की स्थितियां दिखती हैं, तो वे बेहद हड़बड़ी में दिखने लगते हैं। उनके भीतर से चुनाव प्रचार के प्रति संवेदनशीलता का भाव बहक जाता है। घड़े में पानी भरने की बजाय उसे झलका कर नीचे बहाने लगते हैं।  
यह आकलन करना जल्दीबाजी है कि एक भाषण से चुनाव के परिणाम बदल सकते हैं। दरअसल, भाषण में कोई नीतिगत घोषणा होती है, और वैसी नीतिगत घोषणा जो एक ऐसी भावना की रचना कर सके जिससे तटस्थ मतदाता अपने को सक्रिय मतदाता में परिवर्तित कर लें तो उसका मतदान तक आते- आते एक परिणाम तक पहुंचने की स्थिति बन सकती है। कर्नाटक में भाजपा और कांग्रेस के नेता इस तरह की मतदाताओं के बीच ऐसी सामूहिक भावना विकसित करने की कोशिश में लगे हैं, लेकिन मल्लिकाजरुन खड़गे का प्रधानमंत्री मोदी को विषैले सांप की तरह का बताना, संसदीय लोकतंत्र की मर्यादाओं के अनुरूप नहीं है, यह तो माना जा सकता है।

यह भी माना जा सकता है कि यह भाषण नरेन्द्र मोदी के उन समर्थकों के बीच विचलन को रोकने में मदद कर सकता है, जो बीच की स्थिति में पहुंच रहे थे। इस भाषण के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया भी हो सकती है, लेकिन वह तात्कालिक ही होगी बशर्ते मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस तरह की बातों को अपने चुनाव प्रचार के लिए जरूरी नहीं मान लिया हो। क्योंकि खड़गे ने तत्काल अपनी सफाई भी दे दी। इसका मतलब यह माना जा सकता है कि वे चुनाव प्रचार में इस तरह की बातों को अपनी भाषण शैली का हिस्सा नहीं बनाएंगे।

अनिल चमड़िया


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment