आनंद मोहन : सियासी नफा-नुकसान

Last Updated 29 Apr 2023 01:41:28 PM IST

वर्ष 1990 के दशक में उठी मंडलवादी राजनीति ने यूं तो पूरी हिंदी पट्टी को कमोबेश प्रभावित किया, किंतु बिहार इससे कुछ ज्यादा ही प्रभावित हुआ।


आनंद मोहन : सियासी नफा-नुकसान

तब लालू प्रसाद यहां मुख्यमंत्री थे। उन्होंने आरंभ से ही मंडल-राजनीति  के प्रति अपने रु ख को स्पष्ट कर दिया था। उत्तर प्रदेश की स्थिति थोड़ी भिन्न थी। वहां मुलायम सिंह यादव ने वीपी सिंह की राजनीति का विरोध किया और अंतत: 1991 के लोक सभा चुनाव में वह खुद बुरी तरह पिट गए। लालू प्रसाद बिहार की राजनीति में एक नई ताकत के साथ उभरे। तब बिहार और झारखंड एक था। उसकी कुल 54 सीटों में से 48 पर 1991 में लालू प्रसाद ने कब्जा जमा लिया। सामाजिक रूप से भी एकता की मौन किंतु बड़ी क्रांति हुई। दलित-पिछड़े, मुसलमान और आदिवासी जनसमाज लालू की राजनीतिक छतरी तले इकट्ठे थे।

बिहार की नई राजनीति के नायक लालू प्रसाद थे, लेकिन तथाकथित ऊंची जातियों में इसे लेकर एक क्षोभ था। इसकी प्रतिक्रिया अनेक रूपों में हुई। उसी में एक रूप था आनंद मोहन का। हालांकि वह जनता दल के ही विधायक थे, लेकिन उनकी राजनीतिक आकांक्षा कुलबुला रही थी। जाति के हिसाब से वह राजपूत थे। इस जाति का एक  बड़ा हिस्सा लालू प्रसाद के साथ था, क्योंकि मंडल राजनीति की धुरी रहे वीपी सिंह इसी जाति से आते थे और 1989 के चुनाव में लगभग पूरे उत्तर भारत में इनके वोट कांग्रेस से छिटक कर जनता दल में आ गए थे, लेकिन लालू प्रसाद के कारण राजनीति में तेजी से सामाजिक ध्रुवीकरण हो रहा था, इसके कारण तथाकथित सवर्ण समाज का एकीकरण हो रहा था।

आनंद मोहन ने इसी का लाभ लेना चाहा। स्थितियां तेजी से उनके पक्ष में आ रही थीं। उन्हें महसूस हो रहा था कि राजपूतों और भूमिहारों की सामाजिक एकता यदि हो गई तो झक मार कर तमाम लालू विरोधी ताकतें उनके पक्ष में आ जाएंगी। अपने जिले-जवार में आनंद मोहन यादवों के खाड़कू नेता पप्पू यादव की कार्रवाइयों का उनकी ही शैली में जवाब दे रहे थे। इससे एक खाड़कू सवर्ण नेता के तौर पर उनकी पहचान बन रही थी। 1992 में वैशाली जिले के एक प्रखंड मुख्यालय में तत्कालीन विधायक और जाने-माने कांग्रेस नेता ललितेर शाही के बेटे हेमंत शाही की हत्या हो गई थी। इन सब को लेकर वहां तनाव था।

इसी बीच 1994 के मध्य में जब वैशाली लोक सभा का उपचुनाव हुआ तो लालू प्रसाद ने कांग्रेस के चर्चित राजपूत नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा की पत्नी किशोरी सिन्हा को अपनी पार्टी में लेकर उम्मीदवार बनाया। कांग्रेस से दिग्गज भूमिहार नेता महेश बाबू की बेटी उषा सिंह उम्मीदवार थीं। इसी चुनाव में आनंद मोहन ने 26 वर्षीया पत्नी लवली सिंह को निर्दलीय उम्मीदवार बनाया और वह जीत गई। यह मानो करिश्मा था। लालू के बढ़ते राजनीतिक रथ को मानो किसी ने एकबारगी रोक दिया हो। लालू प्रसाद ने क्षुब्ध मन से बयान दिया-‘दरअसल इस चुनाव में सामाजिक न्याय के विरोधी और समाज विरोधी लोग एकजुट हो गए।’

चुनाव नतीजों ने आनंद मोहन को तो उत्साहित किया ही, उससे अधिक नीतीश कुमार और जनता दल के अन्य लालू विरोधी कैंप को किया। इस नतीजे के कुछ ही रोज बाद जनता दल दो फाड़ हो गई। जार्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में जनता दल के चौदह सांसद 21 जून 1994 को अलग हो गए। आनंद मोहन ने भी अपनी अलग पार्टी बना ली-बिहार पीपुल्स पार्टी। 1995 के आरम्भ में बिहार में विधानसभा चुनाव होना था। 1994  दिसम्बर के आरम्भ में वैशाली में छोटन शुक्ल की हत्या हो गई। ऐसी हत्याओं के बाद स्वाभाविक तौर पर विरोध-प्रदर्शन होते हैं, लेकिन इस बार जो हुआ वह लोमहषर्क था। उस वक्त गोपालगंज जिले के जिलाधिकारी जी कृष्णैय्या की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसी मामले में आनंद मोहन को निचली कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई।

उनके निवेदन पर पुनर्विचार करते हुए हाईकोर्ट ने फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया। 26 अप्रैल की सुबह तक वह इसी मामले में जेल में थे। पिछले 10 अप्रैल को बिहार सरकार ने अपने जेल कानून में एक बड़ा संशोधन किया। 1894 से चले आ रहे उस प्रावधान को हटा दिया, जिसमें किसी लोकसेवक की हत्या को राष्ट्रद्रोह के बराबर अक्षम्य माना जाता रहा था। इस तरमीम के बाद सरकार ने आनन-फानन आनंद मोहन और अन्य 26 लोगों को कारा मुक्त कर दिया। इसे लेकर न केवल भारतीय प्रशासनिक संघ, बल्कि दिवंगत कृष्णैय्या की विधवा और उनकी बेटी ने कड़ा विरोध दर्ज किया है। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती सहित अनेक दलित नेताओं ने बिहार सरकार के इस फैसले की निन्दा की है।

चौतरफा हमलों के बीच बिहार के मुख्यसचिव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके स्थिति स्पष्ट की है कि यह सब कानून के तहत हुआ है। आनंद मोहन कारा-मुक्त हो चुके हैं, लेकिन इस मामले को लेकर बहस का सिलसिला बंद नहीं हुआ है। होगा भी नहीं। संभवत: नीतीश आनंद मोहन के मार्फत वह अपनी राजनीति दुरुस्त करना चाह रहे होंगे, लेकिन जो प्रतिक्रिया उभर रही है, उसकी उम्मीद संभवत: नीतीश कुमार को भी नहीं होगी। भाजपा ने आरम्भ में इस पर चुप्पी साधी। फिर उसके एक केंद्रीय मंत्री ने आनंद मोहन के समर्थन में बयान दिया, मगर जब मायावती का बयान सार्वजानिक हुआ तब भाजपा ने भी पुनर्विचार किया। पूर्व उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता सुशील मोदी ने बिहार सरकार के इस फैसले का सार्वजनिक विरोध किया है।

कांग्रेस की चुप्पी बनी हुई है। कम्युनिस्ट भी स्पष्ट नहीं हुए हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जातियों की संख्या 16 .6 फीसद और अनुसूचित जनजातियों की संख्या 8 .6 फीसद है। दोनों मिला कर संख्या 25 .2 फीसद यानी कुल आबादी का एक चौथाई है। इस फैसले के दलित संगठनों और नेताओं द्वारा जोरदार विरोध से यही आभास होता है कि इस कदम से नीतीश कुमार ने एक बड़ी संख्या वाले वोट बैंक को अपने विरु द्ध कर लिया है। 2024 के चुनाव में न केवल नीतीश को बल्कि कांग्रेस को भी जवाब देना होगा। यदि भाजपा-विरोधी वोट राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस गठबंधन के विरु द्ध जाते हैं, या उससे कन्नी काटते हैं, तब इसका सीधा अर्थ होगा भाजपा फायदे में होगी। इसी समझ के साथ भाजपा ने इस मसले पर अपना रु ख स्पष्ट किया है।

प्रेमकुमार मणि


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