चिंतन : राजनीति का समकाल और अमृतकाल

Last Updated 16 Apr 2023 01:04:05 PM IST

राजनीति और उससे जुड़े विमर्श पर आज तात्कालिकता काफी हावी है। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। भविष्य की संभावना को तात्कालिकता की कसौटी पर समझना खतरनाक है।


चिंतन : राजनीति का समकाल और अमृतकाल

अलबत्ता, तत्काल में भविष्य के कुछ बीज जरूर छिपे होते हैं। लिहाजा, अगले साल होने जा रहे आम चुनाव को लेकर जो कुछ बातें अभी चर्चा में हैं, उसका विश्लेषण एक सुचिंतित विवेक के साथ करना जरूरी है। इस विवेक और विमर्श की पूर्वपीठिका यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने आजादी के 75 वर्ष (75 years of independence) पूरी होने के साथ अगले 25 वर्षो के लिए देश की तरक्की का जो विजन दिया है, वह एक सोचा-समझा राजनीतिक निर्णय भी है। केंद्र सरकार के तकरीबन सभी मंत्री अमृतकाल के इस विजन के आधार पर ही अपनी बातें कहते हैं। इस विजन के साथ खास बात यह है कि इसमें जहां एक तरफ पूरे देश के लिए प्रबल राष्ट्रवादी उत्साह है, वहीं आगे के लिए एक सुनिश्चित गंतव्य।

इस उत्साह और गंतव्य की बीज व्याख्या के लिए इतिहास में 75 साल गहरे गोता लगाने से बेहतर है कि हम बीते पांच दशकों के घटनाचक्र को सामने रखें। इन पचास सालों से जुड़ने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह भारत के समकालीन परिदृश्य को देखने-समझने में जहां हमारी ज्यादा सैद्धांतिक मदद करता है, वहीं यह अगले लोक सभा को लेकर हो रही कयासबाजी को समझने में भी ज्यादा मदद करता है। इसमें कहीं दो मत नहीं कि 1977 के बाद 2024 का लोक सभा चुनाव देश के राजनीतिक मन-मिजाज को गाढ़ेपन में बदलने वाला सबसे बड़ा चुनाव होगा। पर यह भी सच है कि 2014 में पहले ही देश की राजनीति के सूर्य के दक्षिणायन होने के साथ सेक्युलर और गैर-कांग्रेसवादी राजनीति का पटाक्षेप हो गया था। 2019 के चुनाव में मोदी का दोबारा प्रधानमंत्री बनना इस पटाक्षेप पर तारीखी मोहरबंदी थी। अगले साल होने वाला लोक सभा चुनाव इस लिहाज से खास है कि यह देश में गैर-भाजपावाद की राजनीति के अखिल भारतीय अभ्युदय को ऐतिहासिक तौर पर तय करेगा। यही कारण है कि राहुल गांधी की सांसदी छिनने के साथ भाजपा खेमे और गैर-भाजपा दलों के बीच जो चहल-पहल दिख रही है, उस पर सबकी निगाहें हैं।

अलबत्ता, इस घटना के बाद पश्चिम बंगाल और बिहार में जो सांप्रदायिक हिंसा (sectarian violence) हुई, वह भी बहुत कुछ कहती है। तुष्टिकरण (appeasement) की कांग्रेसधर्मी राजनीति (congressional politics) के आगे मोदी ने संतुष्टिकरण की जो बड़ी लकीर खींची है, वह देश में हिन्दुत्व से ज्यादा समावेशी राजनीतिक हित को सामने रखता है। इस लिहाज से लोक सभा सीटों को लेकर जो आंकिक व्याख्याएं हो रही हैं, उसे देखना दिलचस्प तो है ही यह देश की भावी राजनीतिक करवट को समझने के लिहाज से भी अहम है। गैर-भाजपा दलों की एकता को लेकर सबसे उत्साही तथ्य सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसाइटी (CSDS) के आंकिक जोड़-तोड़ में सामने आया है। इसके मुताबिक यदि भाजपा (BJP) को छोड़ कर सभी अन्य दल एक साथ होकर चुनाव लड़ें तो इन दलों को अगले लोक सभा चुनाव में आसानी से बहुमत मिल जाएगा। वैसे इस भविष्यवाणी में सीधे तौर पर भाजपा की चिंता और विपक्ष की खिलती बांछें देखने से ज्यादा जरूरी है यह बात ध्यान रखना कि देश में अब भी भाजपा के खिलाफ विपक्ष की गोलबंदी वक्तव्यों या कयासों में ज्यादा है, जमीन पर कम। और तो और विपक्षी एकता को लेकर कई बड़े विरोधाभास भी हैं, जिनमें इस नेतृत्व की कमान और प्रधानमंत्री का चेहरा अहम है।

हाल के कई सर्वे इसलिए यह दिखाते भी हैं कि BJPको अभी बहुत भारी बढ़त हासिल है। इस तरह वह तीसरी बार सत्ता में आने जा रही है, यह मानने में कहीं कोई गुरेज नहीं है। पर राजनीतिक घटनाक्रम का तेजी से बदलना दूसरी संभावनाओं को भी सिरे से खारिज नहीं करता है। ऐसी ही एक संभावना की टोह सीएसडीएस ने दी है। CSDS ने यह आंकड़ा पिछले साल तमाम दलों को मिले सीटों और वोट फीसद के हिसाब से निकाला है। यह साफ-साफ इस निष्कर्ष को रेखांकित करता है कि भाजपा को छोड़कर सारी पार्टयिां एकजुट होकर चुनाव लड़ती हैं तो भाजपा को 235-240 सीटों से संतोष करना पड़ेगा, जबकि विपक्ष को 300-305 सीटें मिल सकती हैं। जाहिर तौर पर यह बड़े उलटफेर की ओर इशारा है। गौरतलब है कि 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को 303 सीटें और विपक्षी दलों को 236 सीटें हासिल हुई थीं। इस सारे आकलन में यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि ऐसा तभी होगा, जब सभी दूसरी पार्टयिां एक साथ आ जाएं और चुनाव लड़ें। सीएसडीएस इस बात का अपने विश्लेषण में कोई पुख्ता आधार नहीं देता है कि विपक्ष की मजबूत गोलबंदी तय है। अलबत्ता, वह यह जरूर कहता है कि यदि विपक्ष का पांच फीसद वोट छिटक जाता है तो फिर भाजपा की सीटें 242-247 हो जाएंगी और विपक्ष को 290-295 सीटें मिल सकती हैं।

2019 में मिले वोटों में अगर विपक्ष के खाते से दस फीसद वोट चला जाता है तो फिर भाजपा को 272-277 सीटें आ सकती हैं, जबकि विपक्ष के पास 263-268 सीटें रहेंगी। वैसे इन आंकड़ों के बरक्स कई दूसरी चीजें भी हैं जो राजनीतिक गलियारे में तेजी से आकार ले रही हैं। अच्छा होता कि सीएसडीएस आंकड़ों के संभावित उलटफेर में इन बातों को भी शामिल करता। इस उलटफेर में एक बड़ा सियासी दांव तो स्वयं मोदी के अमृतकाल के विमर्श से ही जुड़ा है। यह विमर्श इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता है कि भाजपा इस चुनाव में अपने राष्ट्रवादी तेवर को नई अंगड़ाई के साथ पेश करके तमाम जोखिमों को खारिज करे। हाल में घटी बिहार, पश्चिम बंगाल और रह-रहकर कर्नाटक में घट रही घटनाएं इस संभावना को बल देती हैं। लिहाजा, इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मोदी की सहमति से हिन्दुत्व का नया पोस्टर ब्वॉय सामने आए। यह संभावना जिस नेता की ओर बरबस ध्यान ले जाती है, वे हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ।

मुख्यमंत्री रहते छह साल में उनकी राजनीतिक प्रौढ़ता और काबिलियत आज उस मुकाम पर है जब भाजपा के साथ संघ परिवार उन्हें अपने नये मल्लाह के तौर पर देखे। अमृतकाल के साथ हिन्दुत्व के नये सारथी के साथ भाजपा जहां 2024 की चुनौती को अपने पक्ष में कर सकती है, वहीं देश की राजनीति के मौजूदा हलचल में नई लहर भी पैदा कर सकती है। एक ऐसी लहर जिसके बारे में अब तक विपक्ष ने भी कोई तैयारी नहीं की है। बड़ी बात यह भी है कि इस एक दांव से विपक्षी एकता की जो कवायद प.बंगाल से लेकर बिहार, झारखंड, ओडिशा और उप्र में चल रही है, उसे भाजपा इससे एक साथ साध सकती है। हिन्दी पट्टी से लेकर देश के आदिवासी अंचलों तक में अगर विपक्ष अपनी ताकत नहीं दिखा पाया तो 2024 के समर में उसका बच पाना तो दूर दिख पाना भी मुश्किल हो जाएगा।

प्रेम प्रकाश


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