इक्कीसवीं सदी : जलवायु बदलाव, वायु प्रदूषण और जल-संकट की चुनौतियां और सार्थकता
इक्कीसवीं सदी धरती पर सबसे बड़ी चुनौतियों की सदी है। इस सदी की विशिष्ट पहचान है कि पहली बार किसी सदी का आरंभ ऐसी स्थितियों में हुआ जब धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में पड़ चुकी थी।
![]() इक्कीसवीं सदी : चुनौतियां और सार्थकता |
2020-23 के बीच यह स्थिति और विकट हो गई है। इसके दो मुख्य कारण हैं। पहला, जलवायु बदलाव, वायु प्रदूषण, जल-संकट आदि दर्जनभर गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं। दूसरा, 13000 से अधिक परमाणु हथियारों और अन्य अति विनाशक हथियारों का विशाल भंडार। यदि इनमें से मात्र 10 प्रतिशत का भी वास्तव में उपयोग होता है तो इसके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष असर से धरती का अधिकांश जीवन नष्ट हो सकता है।
हालांकि बाहरी तौर पर अधिकांश लोग सामान्य दैनिक कार्यों में व्यस्त नजर आते हैं, पर हकीकत यह है कि धरती के इतिहास में उसका जीवन और उसकी जीवनदायिनी क्षमता कभी इतने संकटग्रस्त नहीं हुए जितने वे आज हैं। यह 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती है। इसके साथ पहले से चली आ रही बड़ी चुनौतियां भी कम नहीं हुई हैं। आज भी समता और न्याय की व्यवस्था स्थापित करना और लोकतंत्र को मजबूत करना पहले जितना ही जरूरी है। यह कहना अधिक सही है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता की रक्षा का कार्य न्याय और लोकतंत्र की व्यवस्था या परिधि के बीच ही प्राप्त करना बड़ी चुनौती है। हम सबके सामने बड़ा सवाल है कि इस चुनौती से हम आम लोग कैसे जुड़ सकते हैं।
इतना तो समझ आता है कि जो बड़ी चुनौती है, उससे अपने को जोड़ना चाहिए, बड़ी समस्याओं के समाधान में योगदान देना चाहिए, पर इस बारे में अधिक स्पष्टता की जरूरत है कि हम ठीक-ठीक यह कैसे कर सकते हैं। इतना तो स्पष्ट है कि जो समाधान की राह है, वह मूलत: अमन-शांति, न्याय, समता, पर्यावरण रक्षा और लोकतंत्र की राह है। इस राह पर अधिक लोग चलते हैं, तो बड़ी समस्याओं को सुलझाने का मार्ग भी प्रशस्त होता है। अनेक बड़ी समस्याओं का समाधान छोटे स्तर पर ही आरंभ होता है। अनेक शहरों में जो कूड़े के पहाड़ या लैंडफिल हैं, उनसे मीथेन गैस का उत्सर्जन बहुत होता है, जो कार्बन डायऑक्साइड से कहीं अधिक खतरनाक ग्रीनहाऊस गैस है। घरों और कार्यालयों के स्तर पर कूड़े का वर्गीकरण कर उसका बेहतर से बेहतर उपयोग किया जाए विशेषकर खाद्यों को व्यर्थ करने की प्रवृत्ति को न्यूनतम किया जाए तो इससे लैंडफिल और मीथेन उत्सर्जन की समस्या को बहुत कम किया जा सकता है।
कृषि में रासायनिक खाद, कीटनाशकों के अधिक उपयोग से भी जलवायु बदलाव की समस्या बढ़ती है, जबकि प्राकृतिक खेती से मिट्टी की गुणवत्ता, खाद्यों की गुणवत्ता सुधारने के साथ जलवायु बदलाव का संकट कम किया जा सकता है। सभी धर्मो के प्रति सद्भावना की सोच फैलाकर और नाहक होने वाले झगड़ों के विरुद्ध संदेश देकर, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा कम कर हम अपने आसपास का दुख-दर्द और तनाव कम कर सकते हैं। विश्व को जो अमन-शांति चाहिए, स्थानीय स्तर पर इसके लिए अनुकूल माहौल भी तैयार कर सकते हैं। इस तरह यदि बढ़ती संख्या में लोग अपने आसपास की समस्याओं को कम करने के साथ विश्व स्तर की समस्याओं के समाधान से भी अपने को जोड़ते हैं तो वे इस तरह के रचनात्मक प्रयासों की तरफ बढ़ सकते हैं, जहां स्थानीय समाधान राष्ट्रीय और विश्व स्तर के समाधानों से जुड़ते जाते हैं। हां, इतना जरूर है कि कोई संगठन हो, जन-आंदोलन हो, जो इस तरह की रचनात्मक सोच के बेहतर प्रचार-प्रसार में सहायता करे तो यह कार्य अधिक बेहतर ढंग से हो सकेगा। इसी तरह ऐसे विद्वान जुड़ें जो समाधानों की राह को बेहतर से समझा सकें तो इससे भी मदद मिलेगी।
आगे सवाल यह है कि इस तरह की भूमिका के लिए जो आगे आना चाहते हैं, वे इस भूमिका को बेहतर ढंग से निभाने के लिए अपने को कैसे तैयार कर सकते हैं। निश्चय ही इस भूमिका को स्थायी तौर पर वही निभा सकेंगे जिनकी अमन-शांति, सद्भावना, पर्यावरण और सब तरह के जीवन की रक्षा, समता, न्याय और लोकतंत्र की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता है। बड़ी बात यह है कि हमें नशे और बुरे व्यसन से दूर रहना चाहिए। भोग-विलासिता भरे जीवन और उपभोक्तावाद के लालच से मुक्त होना चाहिए।
इस तरह जो नागरिक अपने को तैयार करेंगे वे अपने आसपास के जीवन की समस्याओं को कम करने का कार्य टिकाऊ तौर पर इस तरह कर सकेंगे जिससे कि वे विश्व स्तर की समस्याओं के समाधान से भी जुड़ सकें। विश्व स्तर पर लाखों, फिर करोड़ों लोग इस तरह का जीवन जीने का सतत् प्रयास करें तो विश्व स्तर की समस्याओं को कम करने में अवश्य सहायता मिलेगी। सबसे बड़ा सवाल अंत में यही है कि बड़ी संख्या में लोगों को स्थानीय और वैश्विक समाधानों की राह अपनाने के लिए प्रेरित कैसे किया जाए। अभी दैनिक व्यस्तताओं के चलते लोग इस राह के लिए प्रयास और समय नहीं दे पा रहे हैं। ऐसे प्रयासों का आरंभिक समय कठिन होता है पर आगे चलकर सार्थक परिणाम भी मिलते हैं।
जरूरत इस बात की है कि जो भी न्याय, समता, अमन-शांति और लोकतंत्र को मजबूत करने के संगठन और जन-आंदोलन हैं, वे आपसी एकता और एकजुटता बढ़ाएं तथा साथ में धरती की जीवनदायिनी शक्ति की रक्षा से जुड़ने के लिए अपने कार्य में जरूरी विस्तार भी करें। धरती की रक्षा के व्यापक मुद्दों को लोगों के दुख-दर्द कम करने के मुद्दों से जोड़कर इनके लिए व्यापक समर्थन प्राप्त किया जा सकता है तथा ऐसे प्रयासों के दौरान जनसाधारण की धरती की जीवनदायिनी क्षमताओं संबंधी समझ भी बढ़ाई जा सकती है। उदाहरण के लिए, अमन-शांति के आंदोलन दैनिक जीवन में हिंसा के विरुद्ध कार्य करें पर साथ में महाविनाशक हथियारों के विरुद्ध क्या करना जरूरी है, इसकी समझ भी बनाएं। इस तरह जमीनी स्तर पर जब धरती की रक्षा संबंधी मुद्दों की समझ व्यापक बनेगी और नीचे से ऊपर तक निरंतरता से इसके लिए जरूरी कदम उठाने का दबाव बनेगा तब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इनके बारे में असरदार कार्यवाही की संभावना बढ़ सकेगी।
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