सामयिक : जाति-धर्म में न उलझे देश
जहां दुनिया और मानवता के सामने फिलवक्त बड़ी चुनौतिया हैं।
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दुनिया के सारे देश भविष्य की चुनौतियों का आकलन करने में तथा उससे निपटने में अपनी संपूर्ण मेधा को झोंके हुए है; वहीं भारत में काफी संख्या में राजनीतिक नेतृत्व आज भी जाति और धर्म के विमर्श को ही मुख्य विमर्श बनाने में अपनी पूरी ऊर्जा खपाए हुए है।
नब्बे के दशक से भारत ने धर्म के नाम पर काफी बदनामी और तबाही झेली है और जाति के नाम पर भी उलझन में रहा है। इस वक्त कोविड महामारी के बाद की दुनिया बेरोजगारी, तरह-तरह की बीमारी, मंदी इत्यादि से जूझ रही है, साथ ही आने वाली चुनौतियों को लेकर बेचैन है। इसके अलावा पर्यावरण, ग्रीन गैसों के आतंक, प्रदूषण तथा गैस उत्सर्जन के कारण तरह-तरह के होते बदलाव को लेकर भी चिंतित है। जहां गर्मी पड़ती थी वहां ठंड रफ्तार पकड़ रही है तथा यूरोपीय देशों में 45-46 के बढ़ते तापमान ने लोगों को परेशान कर रखा है। जल संकट आने वाले समय की बड़ी चुनौती बनता दिख रहा है तो भारत में राजनैतिक नेतृत्व मानो सभी तथ्यों से बेखबर कभी हिंदू बनाम मुसलमान तो कभी मंदिर-मस्जिद में उलझा हुआ दिखता है; कभी रामचरितमानस तो कभी हरिजन या एससी-एसटी बनाम शूद्र में तो कभी पिछड़ों की पहचान में और देश को सैकड़ों साल पहले की बहस में घसीट कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ले रहा है। इसे वैचारिक दिवालियापन ही कहा जाएगा।
भारत इस वक्त 45 साल की सबसे बड़ी बेरोजगारी का शिकार है। पहले नोटबंदी और फिर कोविड महामारी ने अर्थव्यवस्था को बड़ा धक्का पहुंचाया है। बहुत बड़ी तादाद में नौकरियां चली गई तो न जाने कितने कारोबार बंद हो गए। कोविड के कारण अकारण लोगों की मौतें हों या अर्थव्यवस्था के प्रभाव से आत्महत्याएं; इनके आंकड़े डराते हैं। सरकारी भर्ती या तो रु की हुई है या फिर पद घट रहे हैं या निजीकरण की रफ्तार का प्रभाव है कि रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। ऐसे में लड़ाई और विमर्श तो इस बात पर होनी चाहिए कि रोजगार के अवसर कैसे बढ़े या विकेंद्रित कारोबार कैसे बढ़े, स्वरोजगार के अवसर कैसे बढ़े?
ऐसी परिस्थिति में जब पूंजी का केंद्रीकरण ही बढ़ रहा हो, अंधाधुंध शहरीकरण के कारण कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही हो, गांवों की अव्यवस्था और मूलभूत सुविधाओं के अभाव में शहरों की तरफ पलायन बढ़ रहा है तो बढ़ती आबादी में परिवारों में बंटवारा होने के करण खेत के छोटे-छोटे टुकड़े होते जा रहे हों, जो किसी भी दृष्टि से लाभदायक नहीं है और परिवार का बोझ उठाने में भी असमर्थ साबित हो रहे हैं। चिकित्सा और शिक्षा महंगी होती जा रही है। देश में आर्थिक विषमता सिर्फ बढ़ ही नहीं रही है बल्कि सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है। सौ घरानों के पास देश की 90 फीसद से ज्यादा संपदा हो गई है। पड़ोसी देशों की चुनौतियां भी मुंह बाये खड़ी है। ऐसे में जिन मुद्दों का इंसानों की बेहतरी से कोई संबंध नहीं है और कम-से-कम 90 फीसद से ज्यादा लोगों का तो कोई संबंध नहीं है; उन मुद्दों से देश को भटकाना क्या देश और समाज के साथ गद्दारी नहीं है।
सबसे बड़ा सवाल तो यही पूछा जाना चाहिए कि कोरोना के वक्त धर्म और धार्मिक संगठनों ने आमजन की कितनी मदद की या जातीय संगठन तथा कथित ठेकेदारों ने लाचार लोगों को कितनी मदद की? इसी परिप्रेक्ष्य में एक सवाल पूछ लिया जाए कि इन वर्षो में धर्म का इस्तेमाल सिर्फ राजनीति और वोट के अलावा और किस रूप में हुआ है? क्या इसके ठेकेदार इस बात का दावा करते हुए आंकड़े दे सकते हैं कि इन विवादों के छिड़ने के बाद से आबादी में कितनों में राम, लक्षमण, भरत के गुणों का विकास हुआ या कितनों ने सचमुच में राम जैसी मर्यादा, लक्ष्मण का समर्पण, भरत का आदर्श अपनाया है? असल में तो यही प्रतीत होता है कि रावण और कैकेयी जैसों की संख्या ही बढ़ रही है?
कितनों ने कृष्ण से या महाभारत से शिक्षा ली है? क्या यह आश्चर्यजनक तथ्य नहीं है कि जितनी चर्चा धर्म की बढ़ी और धर्मस्थल कदम-कदम पर बने उतना ही धर्म और ईश्वर का डर खत्म हो गया। तभी तो चारों तरफ पाप बढ़ा हुआ है और धर्म के ठेकेदारों ने साभी पापियों के लिए पाप करने के बाद उसे धोने के रास्ते भी निकाल लिये हैं। क्या यह सच नहीं है कि सीता के वनगमन का दृश्य देखकर आंसू बहाने वाले लोग फिल्म या धारावाहिक खत्म होते ही बीबी को पीटने लगते हैं, भारत मिलाप के दृश्य पर सुबकने वाले अपने ही भाई से मुकदमा लड़ रहे होते हैं या उसके खिलाफ षड्यंत्र कर रहे होते हैं, द्रौपदी के चीरहरण पर दुखी होने वाले अपने बहुत करीबी से या आसपास चीरहरण से भी ज्यादा घृणित काम कर बैठते हैं। रोज इन समाचारों से अखबार रंगे रहते हैं।
सवाल है कि फिर सभी धार्मिंक पुस्तकों और प्रतीकों ने अपने मानने वालों पर क्या प्रभाव डाला है? अगर कुछ नहीं तो उनका उपयोग क्या है? यही सवाल जातियों के ठेकेदारों से भी है कि क्यों नहीं कोई दूसरा महत्मा फुले या बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर पैदा हो पाए आजतक? और कैसे जातियों के उत्थान के नाम पर सत्ता पाए लोग अरबपति-खरबपति बन गए। ऊंच बनाम नीच की लड़ाई लड़ते-लड़ते लोग खुद ऊंचे बन जाते हैं। भारत का नौजवान क्या पिछली शताब्दी में ही अटका है या इस प्रतिस्पर्धी युग में उसका मुकाबला करने और उस चुनौती को स्वीकार कर आगे बढ़ने की मानसिकता बना चुका है जिसके परिणामस्वरूप वह जाति और धर्म से उठकर देश और दुनिया में नौकरी हो या व्यापार या अनुसंधान सभी में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा सके।
किसी भी देश और समाज के नेतृत्व की जिम्मेदारी होती है कि वो अपने यहां धार्मिंक और सामाजिक कटुता दूर करे, अंधविश्वास खत्म करे और इतिहास की कटुता से अपने समाज और देश को दूर करने का जरिया बने। नई पीढ़ी को नया प्रगतिशील समाज और देश बनाने को प्रेरित करे न कि पुरानी कटुता अगली पीढ़ी को सौंपे। फिर भी जो लोग ऐसा करते हैं वो वैसे लोग हैं जिनके पास देश, समाज और मानवता के लिए कोई सार्थक सपने नहीं है, सिद्धांत नहीं है, जबकि आम भारतीय तो अपने दैनंदिनी संघर्ष से जूझ कर हल ढूंढ रहा है। इसे जाति और धर्म में उलझा कर अज्ञानी नेतृत्व मुद्दों से मुंह छुपाना चाहता है। देश और समाज को इन लोगों को आईना दिखाना ही होगा तभी ऐसे लोगों से मुक्ति मिलेगी।
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