अटल जयंती : हाजिरजवाबी में नहीं था कोई जवाब
भूतपर्व प्रधानमंत्री, कुशलतम वक्ता, कवि और पत्रकार। भारतरत्न और पद्मविभूषण जैसे अलंकरणों से विभूषित स्मृतिशेष अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व के एक नहीं कई आयाम हैं, लेकिन इनमें से किसी भी आयाम की चर्चा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक उनकी हाजिरजवाबी का जिक्र न किया जाए।
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दरअसल, यह उनकी साफगोई मिश्रित हाजिरजवाबी ही थी, जो उनके इन सारे रूपों को सजासंवार कर परिपूर्णता की ओर ले जाती थी। अब जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तब भी इससे जुड़े वाकये बरबस हमारी यादों का हिस्सा बनते रहते हैं। ये वाकये हर उस शख्स की धरोहर हैं, जो कभी-न-कभी उनके संपर्क में आया-खासकर उन पत्रकारों की, जिन्हें संवाददाता सम्मेलनों या साक्षात्कारों में उनसे सवाल-जवाब करने के मौके मिले। अकारण नहीं कि वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर आधारित अपनी पुस्तक ‘हार नहीं मानूंगा: एक अटल जीवन गाथा’ में उनकी हाजिरजवाबी की तो भरपूर झलक दिखलाई ही है, उनकी साफगोई और चतुराई से जुडे कई वाकये भी बयान किए हैं। उनकी हाजिरजवाबी की एक बड़ी खासियत यह थी कि वह सिर्फ हाजिरजवाबी के लिए नहीं थी। वे उसमें कोई कटाक्ष करें या मजाक पूरी संजीदगी के साथ किया करते थे। मजे की बात यह कि उनका आजीवन अविवाहित रहना अरसे तक पत्रकारों का सबसे पसंदीदा विषय हुआ करता था। इसलिए दूसरे सवालों से घूम-फिरकर वे उसी पर आ अटकते थे कि आपने अविवाहित रहने का फैसला क्यों किया? राजनीतिक जीवन के शुरु आती दशकों में अटल ऐसे सवालों को मुस्कुराकर टाल देते थे, लेकिन बाद में ऐसे-ऐसे जवाब देने लगे, जो पत्रकारों की उत्सुकता का शमन करने के बजाय उसे और बढ़ा देते थे। एक बार उन्होंने कुछ ज्यादा ही साफगोई से काम लेते हुए यह तक कह दिया था कि ‘मैं अविवाहित भले हूं, कुंआरा नहीं हूं।’
संवाददाता सम्मेलनों में तो रस लेने के लिए उनसे इससे जुड़े सवाल पूछे ही जाते थे, साक्षात्कारों, दावतों व भोज वगैरह में भी उनका पीछा नहीं छोड़ते थे। एक दावत में एक महिला पत्रकार उनके अविवाहित रहने का ‘रहस्य’ जानने के लिए कुछ ज्यादा ही पीछे पड़ गई तो उनका जवाब था, ‘अभी आदर्श पत्नी की खोज पूरी नहीं कर पाया हूं। एक मिली भी तो बात इसलिए नहीं बन पाई कि उसे भी आदर्श पति की तलाश थी!’ बेचारी महिला पत्रकार इसके बाद भला क्या पूछती? लेकिन इस सवाल से उन्हें प्रधानमंत्री बनने के बाद भी निजात नहीं मिली। 1999 में पड़ोसी पाकिस्तान से बेहतर रिश्तों के लिए पहल कर उन्होंने अमृतसर से लाहौर के बीच बस सेवा शुरू कराई और खुद बस में सवार होकर लाहौर गए और भरपूर स्वागत-सत्कार के बाद मीडिया से रूबरू हुए तो एक पाकिस्तानी महिला पत्रकार ने छूटते ही पूछ लिया, ‘आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’ पूछकर ही रह जाती और उनके जवाब की प्रतीक्षा करती तो भी कोई बात होती, लेकिन उससे पहले ही अधीर-सी होकर, जैसे किंचित भी देर करने से उसकी ट्रेन छूट जाएगी और मौका हाथ से निकल जाएगा, यह कहकर उन्हें प्रपोज भी कर डाला कि ‘मैं आपसे शादी करना चाहती हूं, लेकिन मुंह दिखाई के तौर पर मुझे कश्मीर चाहिए।’ शायद उसे इल्म न था कि उसका सामना अटल बिहारी वाजपेयी से है, जो बड़ों-बड़ों से अपनी हाजिरजवाबी का लोहा मनवा चुके हैं। अटल ने उसके प्रस्ताव के नहले पर यह कहते हुए दहला जड़ दिया कि ‘मैं आपसे शादी के लिए तैयार हूं। लेकिन आपकी ही तरह मेरी भी एक शर्त है। दहेज में मुझे पूरा पाकिस्तान चाहिए।’ कहते हैं कि इसके बाद समूचा संवाददाता सम्मेलन ठहाकों से गूंज उठा था। अटल भी मुस्कुराने लगे और उक्त पत्रकार भी। अगले दिन के अखबारों की खबरों में मूल विषय से हटकर उक्त पत्रकार के अटल से शादी के प्रस्ताव का मामला ही छाया रहा था।
जानकार बताते हैं कि शादी के बाद उनसे सबसे ज्यादा सवाल पड़ोसी पाकिस्तान को लेकर पूछे जाते थे और उनके जवाबों में भी वे हाजिरजवाबी और साफगोई से दामन नहीं ही बचाते थे। एक बार पाकिस्तान की शरारतों व दगाबाजियों के प्रति कुछ ज्यादा ही नरमी बरतने के आरोप के जवाब में उन्होंने कहा था, ‘आप दोस्त चुन सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं। पड़ोसी जो भी हो और जैसा भी हो, उसी के साथ निभाना ही पड़ता है।’
एक अन्य मौके पर उन्होंने पाकिस्तान को इंगित करते हुए कहा था, ‘पड़ोसी देश कहता है कि एक हाथ से ताली नहीं बजती। मैं कहता हूं, ताली नहीं तो चुटकी तो बज सकती है।’ एक बार एक पाकिस्तानी मंत्री ने कह दिया कि कश्मीर के बिना पाकिस्तान अधूरा है तो अटल ने यह कहकर उसकी बोलती बंद कर दी कि पाकिस्तान के बिना हिंदुस्तान भी अधूरा ही है। एक समय अपने संरक्षक अमेरिका से कई समझौतों के बाद पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ कुछ ज्यादा ही शेखियां बघारनी शुरू कर दीं तो अटल के भीतर के राजनेता ने जवाब देने के लिए अपने भीतर के कवि को आगे कर दिया। उन्होंने कविता रची: एक नहीं, दो नहीं करो बीसों समझौते/पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा/अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतंत्रता/अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतंत्रता/त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतंत्रता/दुखी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतंत्रता/इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो/चिनगारी का खेल बुरा होता है।/औरों के घर आग लगाने का जो सपना/वह अपने ही घर में सदा खरा होता है।
शब्दों के जादूगर तो वे यों भी थे, लेकिन पाकिस्तान संबंधी जवाबों में यह जादूगरी काफी सावधानी से करते थे। उसकी एक शरारत के सिलसिले में उन्होंने कह दिया कि हम इसका प्रतिकार करेंगे तो पाकिस्तानी हुक्मरान हफ्तों प्रतिकार का मतलब समझने में हलकान रहे थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि प्रतिकार से उनका मतलब उस पर हमला करने है या हाट परस्यूट यानी खदेड़कर मारने से! शादी और पाकिस्तान के बाद उनसे पार्टी से जुड़े सवाल भी पूछे ही जाते थे। एक बार उनकी और उनके नंबर दो लालकृष्ण आडवाणी के बीच मनमुटाव की खबरों के बीच एक पत्रकार ने कहा कि लगता है, भाजपा में अब एक आपका दल है और दूसरा आडवाणी का, तो उनका रहस्यमय और निरु त्तर कर देने वाला उत्तर था, ‘मैं किसी दलदल में नहीं हूं। मैं तो औरों के दलदल में अपना कमल खिलाता हूं।’
एक रैली में बिहार में लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने बातों ही बातों में यह कहकर तालियां पिटवा ली थीं कि ‘मैं अटल भी हूं और बिहारी भी हूं।’ इससे बहुत पहले सत्तर के दशक में पुणो में उनकी एक सभा में पार्टी कार्यकर्ताओं में उन्हें मालाएं पहनाने की होड़ मच गई, जिससे वे फूलमालाओं से लद गए तो बाद में अपने भाषण में उन्होंने कहा था, ‘अब समझ में आया कि ईश्वर की मूर्ति पत्थर की क्यों होती है ताकि वह भक्तों के प्यार के बोझ को सहन कर सके।’
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