द. अफ्रीका : कैसे मिटेगा चोकर्स का धब्बा
बीते हफ्ते रविवार की सुबह नीदरलैंड और साउथ अफ्रीका के बीच मुकाबले से पहले विश्व कप का रंग बिल्कुल जुदा था।
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इस एक मैच का नतीजा आते ही एक साथ चार टीमों की किस्मत पलट गई। इस मुकाबले से पहले माना जा रहा था कि साउथ अफ्रीका और टीम इंडिया आसानी से अपना-अपना मैच जीत लेंगी। साउथ अफ्रीका 7 और टीम इंडिया 8 अंकों के साथ सेमीफाइनल में पहुंच जाएंगी। बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच मैच तब औपचारिकता भर था। हालांकि नीदरलैंड ने साउथ अफ्रीका की टीम को 13 रन से हराकर इस विश्व कप से बाहर कर दिया और पाकिस्तान के भाग्य खुल गए। साउथ अफ्रीका पर चोकर्स का ठप्पा और गहरा हो गया।
दरअसल, ऑस्ट्रेलिया में खेला जा रहा टी-20 विश्व कप बेहद उलटफेर वाला रहा लेकिन इसके साथ एक बार फिर साबित हो गया कि साउथ अफ्रीका क्रिकेट जगत की सबसे अनलकी टीम है। हर बड़े टूर्नामेंट में जबरदस्त आगाज के बाद फाइनल से पहले ही यह टीम बिखर जाती है। यह सिलसिला 90 के दशक से चला आ रहा है। 1992 से क्रिकेट विश्व कप का हिस्सा बन रही इस टीम ने अब तक नौ विश्व कप खेले हैं, लेकिन कभी भी चैंपियन नहीं बन सकी। क्रिकेट के जानकारों का मानना है कि कभी खराब किस्मत तो कभी बड़ी गलतियों के कारण टीम ‘चोकर’ बन गई। हालांकि, वैश्विक क्रिकेट को देखें तो कुछ और फैक्टर्स हैं, जिन पर इस टीम ने काम नहीं किया।
दिलचस्प है कि साउथ अफ्रीकी टीम के पास एक से एक दिग्गज क्रिकेटर है। बल्लेबाजी लाइनअप में टीम के पास क्विटंन डिकॉक, फाफ डु प्लेसिस, डेविड मिलर और खुद कप्तान तेंबा बावुमा हैं, तो वहीं कागिसो रबादा, तबरेज सम्सी और एनिरक नॉरत्जे जैसे गेंदबाज किसी भी बल्लेबाज को धराशायी करने में सक्षम हैं, लेकिन टीम ने अभी तक खुद को मानसिक रूप से मजबूत बनाने पर उस तरह से काम नहीं किया है, जिस तरह भारत और ऑस्ट्रेलिया की टीमों ने किया है। भारत ने तो खास कर विश्व कप को देखते हुए पैडी अप्टन को टीम से जोड़ा है यानी व्यस्त कार्यक्रम के लिहाज से खिलाड़ियों का मानसिक रूप से मजूबत होना जीत के मुख्य कारकों में से एक महत्त्वपूर्ण कारक है। साउथ अफ्रीकी टीम के लिए यह और अहम हो जाता है।
1889 में इस देश की टीम को मान्यता मिली। 70 के दशक में रंगभेद की नीति के कारण इस पर इंटरनेशनल क्रिकेट खेलने पर बैन लगा दिया गया। करीब 21 वर्षो तक यह दर्द सहने के बाद 1991 में अपनी नीतियों में बदलाव के बाद टीम ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी की। 70 के दशक से पहले वाली साउथ अफ्रीकी टीम को बेहद मजबूत टीमों की श्रेणी में रखा जाता था। हालांकि, एकदिवसीय क्रिकेट आने के महज कुछ दिनों बाद ही टीम पर बैन लगने के कारण उसे खेल के इस प्रारूप में खेलने के ज्यादा मौके नहीं मिले। साउथ अफ्रीकी टीम के खेल में कोई तकनीकी कमी नहीं दिखती लेकिन बड़े मैचों में उस पर बैन का प्रभाव दिखता है। उसमें वह मानसिक मजबूती नहीं दिखती जो बेहतर शुरु आत को अंजाम तक पहुंचा सके।
दूसरा अहम फैक्टर टीम में लगातार हो रहा बदलाव है। किसी भी टीम को बनाने, संवारने और बड़े टूर्नामेंट के लिए तैयार करने में काफी समय लगता है। अफ्रीकी टीम ने हाल के दिनों में काफी बदलाव देखे हैं। इस साल की शुरुआत में ही एक बार फिर फूटे नस्लवाद के बम ने तो अफ्रीकी टीम पर जोरदार चोट की। इस बीच प्रशासनिक संकट, स्टार खिलाड़ियों के संन्यास और कप्तान के बदलाव ने भी टीम की निरंतरता को चोट पहुंचाई।
तीसरा अहम फैक्टर, जो इस टीम से चोकर्स का ठप्पा नहीं हटने दे रहा है, उसके खिलाड़ियों का निरंतर प्रदशर्न भी है। 2021 के बाद से साउथ अफ्रीकी टीम ने नौ टूर्नामेंट खेले हैं, जिनमें से पांच जीते और एक ड्रॉ रहा। इस लिहाज से टीम का प्रदशर्न बेहतरीन कहा जा सकता है, लेकिन नीदरलैंड के खिलाफ रविवार के मैच का आकलन करें तो खिलाड़ियों के प्रदशर्न में निरंतरता की कमी दिखी। बड़े खिलाड़ी बेहतर शुरु आत को बड़े स्कोर में नहीं बदल पाए और टीम लगातार विकेट गंवाती रही।
अफ्रीकी टीम को इस फैक्टर पर अभी काफी काम करने की जरूरत है। मैच के मध्य में पावर दिखाने के चक्कर में बल्लेबाज विकेट गंवा देते हैं। गेंदबाजी में टीम बेहतर है, लेकिन बल्लेबाजी में उसे और काम करने की जरूरत है। इन तीनों फैक्टर्स पर काम कर साउथ अफ्रीका की टीम उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है, जिसके लिए तीन दशक से लगातार प्रयासरत है। चोकर्स का टैग किसी टीम के लिए शर्मनाक तो होता ही है, अफ्रीकी टीम को विश्व कप खिताब जीत कर 21 साल तक निर्वासित रहने की पीड़ा को भी कम करना होगा। विश्व कप का एक खिताब टीम की दिशा बदल सकता है क्योंकि उनके पास जो प्रतिभा आज है, वह उसे विश्व की नंबर एक टीम बनाने में सक्षम है।
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