सुनक का प्रधानमंत्री बनना : समग्रता में देखना होगा
देश की दिशा और थोड़ा विस्तारित करें तो नियति का निर्धारण नेताओं के ही हाथों हैं। स्पष्ट है कि नेताओं के एक-एक वक्तव्य और कदम शत- प्रतिशत जिम्मेवारी से भरे होने चाहिए।
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ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद पर भारतीय मूल के ऋषि सुनक की नियुक्ति पर कुछ भारतीय नेताओं की प्रतिक्रियाओं को किस तरीके से देखा जाए?
जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती कहती हैं कि ब्रिटेन ने एक जातीय अल्पसंख्यक को अपने प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया है, लेकिन हम अभी भी एनआरसी और सीएए जैसे विभाजनकारी और भेदभावपूर्ण कानूनों से बंधे हुए हैं। पी. चिदंबरम ने ट्वीट में कहा कि पहले कमला हैरिस और अब ऋषि सुनक। अमेरिका और ब्रिटेन के लोगों ने अपने देशों के गैर-बहुसंख्यक नागरिकों को गले लगाया है। कांग्रेस के दूसरे नेता शशि थरूर के मुताबिक, हम सभी को स्वीकार करना होगा कि एक अल्पसंख्यक को सबसे शक्तिशाली पद पर आसीन कर ब्रिटेनवासियों ने दुनिया में बहुत दुर्लभ काम किया है। हम भारतीय मूल के सुनक की इस उपलब्धि का जश्न मना रहे हैं, तो आइए, ईमानदारी से पूछें कि क्या यहां यह हो सकता है?
महबूबा के वक्तव्य में परिपक्वता का हमेशा भाव रहा है। बस, यह दर्शाने की कोशिश करती हैं कि भारतीय सत्ता और राजनीति ने यहां अल्पसंख्यकों और जम्मू कश्मीर के लोगों के साथ केवल अन्याय किया है। लेकिन चिदंबरम और थरूर राष्ट्रीय राजनीति के जाने-माने नाम हैं। ऐसे लोगों की ओर से इस तरह का वक्तव्य आता है तो मान लेना चाहिए कि भारतीय राजनीति गंभीर समस्याओं से ग्रस्त है। ब्रिटेन के लोगों ने सुनक को इसलिए सांसद के रूप में निर्वाचित नहीं किया कि वे अल्पसंख्यक हैं। इसी तरह कंजरवेटिव पार्टी के लोगों ने उन्हें अल्पसंख्यक होने के कारण प्रधानमंत्री के रूप में नहीं चुना। ब्रिटेन गहरे आर्थिक संकट में है, और सांसदों को लगा कि यह व्यक्ति देश को संकट से उबार सकता है यानी उन्हें समर्थन देने वालों की दृष्टि केवल योग्यता पर थी। इस दृष्टि से भारतीय नेताओं का वक्तव्य आता तो देश में सकारात्मक माहौल बनाने में मदद मिलती तथा राजनीति में योग्य व्यक्ति के निर्वाचन और चयन को लेकर गंभीर बहस छिड़ सकती थी। लेकिन बहुसंख्यक- अल्पसंख्यक से जोड़कर इसका विकृतिकरण कर दिया गया। भारतीय राजनीति की ट्रेजडी रही है कि सत्ता की आकांक्षा रखने वाली पार्टयिों और नेताओं के अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को लेकर विचार और व्यवहार ऐसे रहे हैं, जिनका तार्किक विश्लेषण कठिन है। दो राय नहीं कि राजनीति और सत्ता में समाज के सभी वगरे का प्रतिनिधित्व होना चाहिए किंतु प्रतिनिधित्व के लिए प्रतिनिधित्व या फिर उन वगरे के कल्याण के भाव से प्रतिनिधित्व? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने की कोशिश नहीं हुई। क्या भारत में अल्पसंख्यकों के राजनीति में शीर्ष तक पहुंचने के मार्ग वाकई अवरुद्ध कर दिए गए हैं?
थरूर जो प्रश्न कर रहे हैं, उससे तो यही ध्वनि निकलती है। सच तो यह है कि ऐसे भी लोग हैं, जो अल्पसंख्यक होते हुए अपनी योग्यता के कारण उच्च पदों पर पहुंचे। राष्ट्रपति पद तक पहुंचे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और उनके पहले डॉ. जाकिर हुसैन की योग्यता पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं कर सकता। देश के पहले शिक्षा मंत्री ही मौलाना अबुल कलाम आजाद हुए। भारतीय शिक्षा प्रणाली के निर्धारण में डॉ. जाकिर हुसैन की प्रमुख भूमिका थी। एम हिदायतुल्ला, मिर्जा हमीदुल्ला बेग एवं एएस अहमदी भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे लेकिन कांग्रेस ने हमेशा एक पार्टी के नेताओं को ही प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़ा। पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। लाल बहादुर शास्त्री कुछ समय के लिए आए लेकिन कांग्रेस में इंदिरा गांधी को आगे करने को लेकर लड़ाई चलती रही और उनके बाद वह प्रधानमंत्री बनीं। उनके बाद राजीव गांधी बने। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद चुनाव परिणाम आने पर कांग्रेस कार्यसमिति ने सोनिया गांधी का नाम प्रस्तावित कर ही दिया था लेकिन उस समय उन्होंने इनकार किया। बाद में कांग्रेस की सत्ता चली गई। 1999 में एक अवसर आया और सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति के यहां प्रधानमंत्री पद का दावा ठोक दिया। यह बात अलग है कि कुछ नेताओं के विरोध के चलते उन्हें समर्थन नहीं मिला। 2004 में सत्ता आने पर विदेशी मूल का मुद्दा उठा और उन्होंने मनमोहन सिंह को आगे कर दिया।
कांग्रेस ने स्वयं अल्पसंख्यकों में मुसलमानों या ईसाइयों को प्रधानमंत्री नहीं बनाया तो इसमें दोष किसका है? डॉ. मनमोहन सिंह को भी बनाया तो इसलिए कि वह परिवार के विश्वासपात्र बने रहे। इस तरह यह स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं कि चिदंबरम और थरूर के ट्विट उनकी ही पार्टी को कठघरे में खड़ा करते हैं। हालांकि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि कांग्रेस के नेताओं के मन में यह भाव रहा होगा कि कोई अल्पसंख्यक यानी मुसलमान या ईसाई देश का प्रधानमंत्री नहीं बने। हम ऐसा मान लें तो यह उन सारे नेताओं के प्रति अन्याय होगा। जहां तक महबूबा का प्रश्न है, तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक कौन हैं? क्या मुफ्ती या कश्मीर के दूसरे ऐसे नेता वहां किसी अल्पसंख्यक यानी हिंदू-सिख आदि को मुख्यमंत्री बनाने की सोच भी सकते हैं? अगर किसी ने टिप्पणी की कि महबूबा स्वयं अपनी पृष्ठभूमि, चरित्र और व्यवहार के अनुरूप वक्तव्य दे रही हैं, तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। 35ए के माध्यम से भारी संख्या में अल्पसंख्यकों को वहां कई नागरिकता से ही वंचित रखा गया।
जरा सोचिए, वह स्वयं प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं, उनके पिता मुख्यमंत्री तथा देश के गृह मंत्री भी रहे। ऐसी नेत्री को भारत की राजनीतिक व्यवस्था से असंतोष है, तो इसे क्या कहा जा सकता है। जब जनता ही उन्हें नकार रही है, तो कोई उन्हें कैसे उच्च पद पर बिठा सकता है? वास्तव में ऐसी प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि ज्यादातर राजनीतिक दलों का नेतृत्व वैचारिकता के धरातल पर संकीर्णता के साथ दिशाभ्रम का शिकार है। विश्व की किसी प्रमुख घटना को भी उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखकर भारत के संदर्भ में जिम्मेदारीपूर्वक उसका वैचारिक उपयोग करने की जगह तात्कालिक सुर्खियों एवं विकृत सोच की पूर्ति की दृष्टि से प्रतिक्रियाएं दे दी जाती हैं। इनमें नासमझी के साथ किंकर्त्तव्यविमूढ़ता और कई बार कुंठा भी झलकती है।
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