कहां है धार्मिक आजादी?
महात्मा गांधी के बेटे मणिलाल को फातिमा से प्यार हो गया,फातिमा के माता पिता केपटाउन में रहते थे।
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हालांकि थे वे गुजराती मूल के ही लेकिन हिंदू न होकर मुसलमान थे। मणिलाल ने बापू को पत्र लिखकर फातिमा से विवाह की इच्छा व्यक्त की और कहा कि फातिमा अपना धर्म भी बदल लेगी। इसके उत्तर में बापू ने अपने बेटे को लिखा, तुम्हारी इच्छा धर्म के प्रतिकूल है। अगर तुम हिंदू बने रहे और फातिमा इस्लाम का पालन करती रही तो यह ऐसा होगा मानो दो तलवार को एक ही म्यान में रख दिया जाएं। या फिर तुम दोनों ही अपना धर्म खो बैठोगे और फिर तुम्हारें बच्चों का धर्म क्या होगा?
यह धर्म नहीं सिर्फ अधर्म है। फातिमा सिर्फ तुमसे विवाह के लिए धर्म परिवर्तन करना स्वीकार कर लेती है तो यह ठीक नहीं, धर्म के पालन के लिए इंसान को विवाह तक का त्याग कर देना चाहिए। घर-बार छोड़ देना चाहिए बल्कि उतना ही क्यों जीवन तक का बलिदान कर देना चाहिए, लेकिन धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। क्या फातिमा में अपने पिता के गुण नहीं है तो फिर उसने अपना धर्म परिवर्तन कर ही लिया है। गांधी ने आगे लिखा, इस संबंध को आगे बढ़ाना हमारे समाज के हित में भी नहीं है। तुम्हारे विवाह का हिंदू मुस्लिम प्रश्न पर एक मजबूत असर पड़ेगा। अंतर्धार्मिंक विवाह इस समस्या का कोई निदान नहीं है। तुम इस बात को भूल नहीं पाओगे और ना ही यह समाज इस बात को भूल पाएगा की तुम मेरे बेटे हो। गांधी मानवीयता के बड़े पैरोकार थे, लेकिन उनके बेटे को विवाह से रोकने का कारण निहायत ही राजनीतिक था।
दरअसल, उस दौर में भारत की आजादी के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता की बड़ी जरूरत थी। यदि गांधी मणिलाल को फातिमा से विवाह की अनुमति दे देते तो भारत की मस्जिदों से यह ऐलान हो गया होता कि देखो गांधी मुस्लिम महिलाओं को हिंदू बनाकर भारत से इस्लाम समाप्ति का षड्यंत्र रच रहे हैं। इसका निश्चित ही भारत की आजादी और हिंदू-मुस्लिम एकता पर विपरीत असर पड़ता। 15 अगस्त 1947 को आजाद भारत सभी धर्मो के लिए बना और सबको समान अधिकार दिए गए। आजादी के आठ दशक बीतने को आए हैं, लेकिन भारत में कभी यह सुना नहीं गया कि किसी को नमाज पढ़ने या चर्च जाने से रोका गया। चर्च भले ही हर गांव में न हो लेकिन मस्जिद तो यकीनी तौर पर हर कस्बे में मिल ही जाएगी। अंतरराष्ट्रीय धार्मिंक स्वतंत्रता पर अमेरिकी विदेश विभाग की 2021 की रिपोर्ट में भारत के अल्पसंख्यकों के धर्म के पालन को लेकर जो चिंता जताई गई है वह बेहद गैरजरूरी नजर आती है। यहां पर यह समझना बेहद जरूरी है कि अमेरिकी विदेश विभाग की यह प्रतिक्रिया यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट के बाद आई है, जो हर साल मई में अपनी रिपोर्ट अमेरिकी सरकार के सामने रखता है। इस रिपोर्ट में भारत के साथ पाकिस्तान, नाइजीरिया, सऊदी अरब और चीन की भी आलोचना की गई है।
भारत की पाकिस्तान से कोई तुलना नहीं हो सकती क्योंकि वहां ईशनिंदा जैसे कानूनों को आड़ में रोज गैर इस्लामिक लोगों को मार दिया जाता है। नाइजीरिया तो कई दशकों से इस्लाम और ईसाई की खूनी लड़ाई का मैदान बना हुआ है और अब गृहयुद्ध से बुरी तरीके से जूझ रहा है। सऊदी अरब तो शियाओं को ही बर्दाश्त नहीं कर पाता ऐसे में दूसरे धर्मो को तो बात ही नहीं की जा सकती और चीन के लिए साम्यवाद का पालन ही राष्ट्र धर्म है। यदि यूएससीआईआरएफ के मापदंड की बात की जाए तो भारत के मुसलमानों पर उसका दावा गैर वाजिब और गैरजरूरी है, लेकिन यदि धार्मिंक स्वतंत्रता को बहुआयामी तौर पर देखा जाए तो भारत की स्थिति इतनी भयावह है कि उसके प्रभावों से स्वयं महात्मा गांधी भी आशंकित थे और इसीलिए उन्होंने अपने बेटे मणिलाल को फातिमा से विवाह करने से रोक दिया था। भारत के विदेश विभाग ने भारतीय संविधान का हवाला देते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री के बयान पर कड़ी आपत्ति जताई है और यह कहा है कि उनमें भारत की विविधता को समझने की क्षमता नहीं है। बेशक, यदि यूएससीआईआरएफ भारत की विविधता को समझते हुए धार्मिंक मानवाधिकारों पर रिपोर्ट तैयार करे तो उसमें मुसलमानों से इतर भी बहुत सारे ऐसे बिंदु आ सकते हैं और इससे यह भी साफ हो सकता है कि सिर्फ संवैधानिक उपायों से धार्मिंक आजादी स्थापित नहीं की जा सकती।
उसके लिए सामाजिक स्वीकार्यता बेहद जरूरी है और भारतीय समाज इस मामले में अभिशिप्त नजर आता है। भारतीय संस्कृति में महिलाओं को देवी मानकर उनकी आराधना तो की जा सकती है, लेकिन जीती-जागती महिलाओं को कुछ मंदिरों में प्रवेश से रोकने के कई सामाजिक नियम थोप दिए गए हैं। कथित प्रवर्तक धर्मसभाओं में उस असमानता को धर्मसंगत बताने की कोशिशें लगातार करते रहे हैं। केरल के प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश एक आंदोलन का कारण बन गया और अंतत: देश की सर्वोच्च अदालत ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को गलत माना। क्या इसे धार्मिंक आजादी से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। मुसलमानों में शिया और सुन्नी साथ-साथ मस्जिद में नमाज पढ़ने को तैयार ही नहीं हैं। भारतीय मुसलमानों में अगड़े और पिछड़े की लड़ाई खुलकर मैदान में भले ही न आ पाती हो, लेकिन पिछड़े-दलित मुसलमान मस्जिद, त्योहार, आपसी संबंधों और कब्र के लिए भी कोना तलाशने को मजबूर हैं।
संविधान का अनुच्छेद 25 कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म के अनुपालन की स्वतंत्रता है। दलितों को देशभर में मंदिरों में घुसने से रोकने की कई हिंसक घटनाएं रोज होती हैं। धार्मिंक स्वतंत्रता को लेकर गांधी से लेकर आंबेडकर तक की अपनी चिंताएं रही। न तो वे धार्मिंक स्वतंत्रता को तलाश सके और न ही यह तलाश खत्म होती दिख रही है। इसके बावजूद भारत में धार्मिंक स्वतंत्रता अन्य देशों के मुकाबले बेहतर स्थिति में है। बहरहाल, धार्मिंक स्वतंत्रता को भारत ही नहीं दुनिया में कहीं भी खोज लीजिए, निराशा ही हाथ लगेगी।
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