विश्लेषण : विश्व कूटनीति का केंद्र भारत
पिछले दिनों यूक्रेन युद्ध को लेकर अंतराष्ट्रीय जगत में खूब गहमागहमी बनी रही। कई सम्मलेन भी हुए।
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कई देशों के विदेश मंत्री का आना जाना भी हुआ। ब्रिक्स और जी 7 का वार्षिक सम्मेलन भी सम्पन हुआ। हर देश की निगाहें भारत पर टिकी हुई थी। भारत क्या निर्णय लेता है? क्या भारत की निर्णय पद्धति को बाहरी दबाव में बदला जा सकता है?
यह विचार-विमर्श देश के भीतर और बाहर दोनों जगह था। दरअसल, ऐसा प्रयास भारत की विदेश नीति में पहली बार अंकित हुआ है, इसके पहले भारतीय निर्णय बदले जाते थे और भारत मूकदर्शक बनकर दुनिया की कूटनीति का एक लाचार मोहरा बन जाता था। इसलिए यह समझना ज्यादा जरूरी है कि बाहर और भीतर क्या कुछ बदला, जिसने भारत की साख को दुनिया के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया? बदलाव भीतर से ज्यादा हुआ। उसकी चर्चा ज्यादा जरूरी है। पहला; 8 वर्षो में बिग डाटा के साथ भारत की तस्वीर बदलने लगी। आधार कार्ड और उसके तर्ज पर हर व्यक्ति के जुड़ाव ने देश की सामाजिक और आर्थिक सांचे को बुनियादी तौर पर बदलना शुरू कर दिया। सरकार की विभिन्न योजनाओं के साथ आधार का पंजीकरण न केवल नियमता को बहाल किया बल्कि भ्रष्टाचार को भी समेटने का सफल प्रयास किया। जनधन योजना, उज्जवला और अनेकों प्रयास में बिग डाटा गेम चेंजर बना। दूसरा; भारत का आर्थिक प्रयास 2014 के पहले तक मैक्रो आर्थिक इकाई पर बनती थी, वही मुख्य फोकस होता था।
अर्थात विकेंद्रीकरण की बात केवल किताबों की कहानी बन कर रह जाती थी, वह तरीका बदल गया। माइक्रो सोच इस सरकार की मुख्यधारा बन गई। जगह और समूह को केंद्र में रखकर योजनाएं बनाई जाने लगी। उसका अनुपालन भी उसी रूप में होने लगा। तीसरा; भारत की आर्थिक योजनाओं की मलाई अक्सर इलीट वर्ग समेट लेता था। इलीट वर्ग का निर्माण भी बहुत हद तक भाषा के तर्ज पर बनता था। अंगेरजी पढ़ने और लिखने वाले हर तरह से फायदे में रहते थे। गांव और कस्बे के लोग शेष बचे हुए अंश से संतुष्ट होते थे, लेकिन पिछले 8 साल में यह पद्धति बदल गई। हाशिये पर रहने वाले आगे आने लगे मध्यम वर्ग का विस्तार हुआ, उनकी आर्थिक व्यवस्था भी मजबूत हुई। चौथा; सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग महज महिला, अनुसूचित जाति और भूमिहीन किसान तबका बुनियादी आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन से मजबूत हुए हैं। चाहे वह डिजिटल आर्थिक परिवर्तन की बात हो या तीन तलाक की चर्चा हो। अंदरूनी आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन ने भारत को मिडिल पावर की श्रृंखला के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। भारत के विभिन्नता में एकता के सिद्धांत को खूब प्रसारित किया गया। अर्थात भारत सामाजिक, आर्थिक और धार्मिंक रूप से अलग अलग है। हमारे नीति-निर्माताओं ने एकता की बात को गौण कर दिया और विभिन्नता की तस्वीर को मजबूत आवरण से मढ़ दिया।
भारत को कई टुकड़ों में बांटने की बात ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल करते थे। अमेरिका और चीन के ेत पत्र भी भारत के विखंडन की कहानी रची और प्रचारित की जाती थी। कभी भी भारत की सरकार ने इन विषमताओं को चुनौती देने का गंभीर अकादमिक प्रयास नहीं किया। नतीजा भारत का स्वरूप टूटे हुए आईना में टुकड़े-टुकड़े में दिखाई देने लगा। इस सरकार ने भारत को एक सांचे में ढालने की कोशिश की। उसका फायदा भी दिखाई देने लगा। इसलिए बाहरी व्यवस्था भी भारतीय दृष्टिकोण से बदलने लगी। इसके कई उदाहरण हैं। पहला, ब्रिक्स का विस्तार चीन अपने नक्शेकदम पर करना चाहता है। जी-20 संगठन से कुछ देशों को ब्रिक्स में शामिल करना चाहता है, जिसमें एक इंडोनेशिया भी है। इंडोनेशिया को लेकर ज्यादा हुज्जत नहीं होगी। क्योंकि भारत के संबंध अच्छे हैं। अफ्रीका के दो महत्त्वपूर्ण देश नाइजीरिया और सेनेगल को शामिल करने की कोशिश चीन करेगा। इनके शामिल होते ही दक्षिण अफ्रीका की अहमियत ढीली पड़ जाएगी। साउथ अफ्रीका की अनुशंसा के बिना इनको खेमे में लेना ब्रिक्स के लिए विघटन का कारण बन सकता है। उसी तरह अज्रेटीना के संबंध ब्राजील से अच्छे नहीं हैं। उसके अलावा चीन की सूची में कई देशों के नाम हैं।
चीन की पूरी कोशिश एक नये खेमे की व्यूह रचना की है, जो अमेरिकी सांचे में खलल पैदा कर सके। एक मिडिल पावर का नई हुजूम खड़ा करने में सफल हो जो जी-7 और अन्य अमेरिकी निर्देशित संघटन को चुनौती दे सके। दूसरा, ब्रिक्स का आर्थिक आधार अभी भी बहुत कमजोर है, जबकि 5 देशों की कुल आबादी तकरीबन दुनिया की आधी आबादी के नजदीक है, 25 फीसद कुल वैश्विक जीडीपी का हिस्सा है। फिर भी 15 वर्षो में इसकी धार और कुंद हुई है। आर्थिक विकास की राह में भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका पूरी तरह से सुस्त पड़ गए। आपसी व्यापार मुश्किल से 20 फीसद से ज्यादा नहीं है। क्या ऐसे हालत में इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि ब्रिक्स यूरोपियन यूनियन या जी-7 की बराबरी कर सके। तीसरा, यूक्रेन युद्ध ने एक नई मुसीबत खड़ी कर दी है। विश्व पुन: दो खंडों में विभाजित दिख रहा है। नये शीत युद्ध का आगाज हो गया है। दरअसल, चीन इस युद्ध को लेकर अपनी चौकड़ी बनाने की कवायद में लगा हुआ है। चूंकि सैनिक रूप से मजबूत रूस आर्थिक रूप से पूरी तरह से कमजोर है, युद्ध ने उसकी स्थिति को और जर्जर बना दिया है, इसलिए चीन रूस को लेकर एक ऐसी टीम बनाना चाहता है जो उसे दुनिया का मठाधीश बनाने का स्वप्न पूरा कर सके। इसके लिए वह अमेरिका से ताइवान पर युद्ध के लिए भी आमादा है।
चौथा, चीन की विस्तारवादी नीति दुनिया के सामने है। श्रीलंका, पाकिस्तान, मलयेशिया, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीकी देश चीन का दंश झेल रहे हैं। चीन ने पिछले कुछ वर्षो में जिस तरीके से विश्व की व्यवस्था को अपने तरीके से संचालित करने की साजिश रची है उससे दुनिया सहमी हुई है। भारत की नई शक्ल उसकी अंदरूनी क्षमता के कारण बनकर तैयार हुई है। इसलिए यह टिकाऊ और मजबूत है। चीन से बचने और एक बेहतर दुनिया का निर्माण भारत के साथ ही बन सकता है।
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