गर्भपात कानून : नारी अधिकार को दबाने का कुचक्र
हाल ही में, अमेरिका की सर्वोच्च अदालत द्वारा करीब 50 साल पुराने ‘रो बनाम वेड’ फैसले को पलटने के साथ ही अमेरिका में अबॉर्शन को संवौधानिक संरक्षण समाप्त हो गया।
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इस फैसले ने वैश्विक स्तर पर नारी अधिकारों और स्वतंत्रता की बहस को फिर तेज कर दिया है। सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह फैसला नारी-अधिकार एवं इनकी स्वतंत्रता के विपरीत संकीर्ण भावना का परिचायक नहीं है? अकादमिक जगत से लेकर स्त्री आजादी और बराबरी के विचारकों के बीच आज यह ज्वलंत प्रश्न है कि मजबूत लोकतंत्र का उपासक और मानवाधिकार का अग्रदूत कहे जाने वाले अमेरिका में गैर-लोकतांत्रिक और नारी की स्वतंत्रता एवं उसके अधिकारों के ठीक विपरीत निर्णयों का संरक्षण क्यों हुआ?
गौरतलब है कि महिलाओं के अबॉशर्न के अधिकार का मामला वर्ष 1973 के ‘रो बनाम वेड’ केस से जुड़ा है। 22 साल की उम्र में सुरक्षित गर्भपात का मामला सुप्रीम कोर्ट में ले जाने वालीं नोर्मा मैककोर्वे को ही ‘रो’ के नाम से जाना जाता है। इस केस में रो वादी थीं और वेड प्रतिवादी। ‘वेड’ का पूरा नाम हेनरी वेड है जो कि डलास काउंटी (टेक्सास) के तत्कालीन जिला अटॉर्नी थे। 1971 में जब रो अबॉशर्न कराने में नाकाम रहीं तो उन्होंने सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर कर सुरक्षित गर्भपात को आसान बनाने के लिए निवेदन किया। उन्होंने यह भी मांग रखी कि गर्भधारण और गर्भपात का फैसला महिलाओं का होना चाहिए, न कि सरकार का। ठीक दो साल बाद 1973 में सर्वोच्च अदालत की 9 जजों की बेंच ने 1973 में 7-2 के बहुमत से अबॉशर्न को कानूनी दर्जा देने का फैसला सुनाया, जो ‘रो बनाम वेड’ मामले के रूप में प्रचलित हुआ। फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने ना केवल अबॉशर्न को कानूनी मान्यता दी बल्कि राज्यों के उन कानूनों को भी रद्द कर दिया जो अबॉर्शन को अवैध मानते थे। कोर्ट ने गर्भपात को मंजूरी देते हुए इसे स्त्री का मूलभूत अधिकार माना और साथ ही साथ, अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन की भावना के अनुरूप इसे ‘निजता के अधिकार’ (Right to Privacy) से संबद्ध माना। यह ऐतिहासिक फैसला पूरे विश्व में गर्भपात कानूनों के लिए एक बेंचमार्क बन गया। अबॉशर्न पर कोर्ट के फैसले का अमेरिका कई हिस्सों में विरोध हुआ।
धार्मिंक संस्थानों और रूढ़िवादी समूहों ने इस फैसले के खिलाफ खूब विरोध किया। इस आंदोलन को ‘प्रो-लाइफ मूवमेंट’ के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन से जुड़े लोग अबॉशर्न को भ्रूण-हत्या से जोड़कर देखते हैं। वहीं दूसरी तरफ महिला संगठनों और नारीवादियों द्वारा मूवमेंट चलाया गया जिसे ‘प्रो-च्वाइस मूवमेंट’ के नाम से जाना जाता है। यह मूवमेंट महिलाओं की पसंद का समर्थन करता है और साथ ही साथ अबॉशर्न को भ्रूण-हत्या नहीं मानता। गर्भपात का विषय स्त्री के ‘जीवन की स्वतंत्रता’ से जुड़ा उसका मूल अधिकार है।
बताया जा रहा है कि अमेरिका में गर्भपात का मुद्दा सिर्फ सामाजिक, मानवीय या स्वास्थ्य से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह राजनीति से भी प्रेरित है। इसमें रिपब्लिकन पार्टी चूंकि गर्भपात पर रोक लगाने की समर्थक है। इसलिए उसकी सरकार वाले कई राज्यों ने इस पर प्रतिबंध के कानूनी बंदोबस्त किए हैं। मिसिसिपी उनमें से एक राज्य है। वहां 15 हफ्ते से ऊपर के भ्रूण के अबॉशर्न को पूरी तरह से प्रतिबंधित किया गया है। निश्चित तौर पर, सर्वोच्च अदालत के इस नये फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे क्योंकि सामाजिक रूप से यकीनन एक बड़ी आबादी की आजादी प्रतिबंधित हो जाएगी। गर्भपात कराने की कानूनी सुविधा महिलाओं से वापस लिए जाने से उसके सामने तमाम तरह की मुश्किलें खड़ी होंगी। इनमें स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी होंगी। वहीं राजनीतिक रूप से निश्चित तौर पर इसका फायदा रिपब्लिकन पार्टी उठाएगी। उसके समर्थन का आधार मजबूत होगा। माना जा रहा है कि संभवत: इन्हीं कारणों से अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन सर्वोच्च अदालत के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं।
अदालत में इस फैसले को लाने के पीछे अमेरिका में बड़ी संख्या में अबॉशर्न के बढ़ते मामले बताए जा रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक, 2017 की तुलना में 2020 में अबॉशर्न कराने वालों की संख्या बढ़ी। वर्ष 2020 में औसतन हर पांच प्रेग्नेंट महिलाओं में से एक ने अबॉशर्न कराया। अमेरिका के ज्यादातर दक्षिणी और मध्य-पश्चिमी राज्यों में अबॉशर्न को अवैध किया जा सकता है तो वहीं कुछ राज्यों में इसमें छूट दी जा सकती है। एक तरफ जहां अमेरिका सहित कई पश्चिमी राष्ट्र गर्भपात के अधिकारों में कटौती कर रहे हैं, वहीं भारत जायज गर्भपात की सीमा बढ़ा रहा है। इतना ही नहीं बल्कि मोदी सरकार द्वारा अनेकों ऐसी योजनाएं लाई गई हैं, जिससे नारी-सशक्तिकरण को बल मिल सके। निश्चित तौर पर, भारत विश्व के सामने एक सफल उदाहरण प्रस्तुत कर नई दिशा का मार्गदर्शन कर रहा है। गर्भपात-विरोधी कानून नारी-विरोधी सोच का प्रतिबिंब हैं। जरूरत है कि वे सभी देश आत्ममंथन करें, और महिलाओं की आजादी की क्षमता को समझते हुए संकीर्ण विचार से ऊपर उठकर नारी-स्वतंत्रता विरोधी कानूनों में बदलाव लाएं।
(सीनियर रिसर्चर, पब्लिक पॉलिसी रिसर्च सेंटर, नई दिल्ली)
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