गुजरात दंगा : मोदी के खिलाफ झूठा अभियान
गुजरात दंगों पर सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ का फैसला इस मायने में अहम है कि इसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार को दंगों की साजिश रचने के आरोपों से बरी किए जाने पर मुहर लगी है तथा इसके विरुद्ध अभियान चलाने वाले को झूठा कहा गया है।
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न्यायालय के फैसले में स्पष्ट लिखा है कि विशेष जांच दल यानी एसआईटी की अंतिम रिपोर्ट के विरुद्ध दायर याचिका आधारहीन ही नहीं, गलत बयानों और तथ्यों से भरी थी। याचिका में कहा गया था कि गोधरा घटना के बाद राज्य में हुई हिंसा के पीछे उच्चस्तरीय साजिश थी और यह पूर्व नियोजित थी।
जैसा हम जानते हैं लंबे समय तक नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगा का खलनायक साबित करने के लिए अनेक एनजीओ, राजनीतिक पार्टयिां, नेता, एक्टिविस्ट, पत्रकार, कानूनिवद, कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीश अभियान चलाए हुए थे। सबका लक्ष्य एक ही था कि किसी तरह साबित करो कि मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साजिश रच कर मुसलमानों के विरुद्ध दंगे कराए और मंत्री, नेता, कार्यकर्ता, पुलिस, प्रशासन सब उनके निर्देश पर काम कर रहे थे। 451 पृष्ठों के विस्तृत फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट कहा है इस तरह के आरोपों को प्रमाणित करने के लिए एक भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। न्यायालय ने इससे आगे बढ़कर कहा है कि मामले को गर्म बनाए रखने के लिए याचिकाकर्ताओं ने कानून का दुरु पयोग किया। इसी आधार पर न्यायालय ने मामले को सनसनीखेज बनाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कानून सम्मत कार्रवाई की अनुशंसा की है।
क्या इसके बाद अलग से कुछ कहने की आवश्यकता रह जाती है कि गुजरात दंगे को लेकर किस तरह के झूठे और एकपक्षीय अभियान चलाए गए? तीस्ता सीतलवाड़ से लेकर गुजरात के पूर्व डीजीपी श्री कुमार आदि की गिरफ्तारी तथा आगे अन्यों की संभावित गिरफ्तारी पर भी छाती पीटने वाले लोग हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने यूं ही तो नहीं उन सबके विरुद्ध कानून सम्मत कार्रवाई की बात कही है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को इस रूप में लिया गया है कि दंगा कराने के आरोपों से वर्तमान प्रधानमंत्री एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी बेदाग और निर्दोष साबित हुए हैं। सच यह है कि विशेष जांच दल यानी एसआईटी ने उन्हें बरी किया था और इस पर न्यायालयों की मुहर भी लग गई थी। जिनका एजेंडा दंगों की सिहरन भरी यादों को बार-बार कुरेद कर जिंदा रखने में था, जिन्होंने देश और दुनिया में पूरा झूठ फैलाया और उसके आधार पर काफी कुछ प्राप्त किया वे कैसे इसे स्वीकार कर चुप बैठ सकते थे। तीस्ता सीतलवाड़ ने जाकिया जाफरी को हथियार बनाया और उनके माध्यम से बार-बार अपील दायर करवाई। न्यायालय ने इसका विवरण देते हुए कहा है कि 8 जून, 2006 को 67 पृष्ठ की शिकायत दी गई थी। इसके बाद 15 अप्रैल, 2013 को 514 पृष्ठों की प्रोटेस्ट पिटिशन दाखिल की गई। इसमें उन सभी लोगों की निष्ठा पर सवाल उठाया गया था, सबको झूठा बेईमान बताया गया जो प्रक्रिया में शामिल थे। जरा सोचिए , 2002 के फरवरी-मार्च में दंगे हुए और हफ्ते भर के अंदर शांत भी हो गए।
जिनका एजेंडा हर हाल में मुसलमानों के अंदर भय पैदा करना, हिंदू-मुसलमानों के बीच विभाजन की खाई पैदा कर नरेन्द्र मोदी, भाजपा, संघ आदि को मुसलमानों का खलनायक साबित कर अपना स्वार्थ साधना था वे हर प्रकार के सनसनी के झूठे तथ्य सामने लाकर अभियान चलाते रहे। उस समय की कानूनी स्थितियों पर को याद करिए। मानवाधिकार आयोग, सर्वोच्च न्यायालय न्यायालय, निचली अदालतें, उच्च न्यायालय और अंतत: दंगों से जुड़े मामलों को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र में स्थानांतरित करवाना क्या-क्या नहीं हुआ। प्रचारित यही होता था कि चुके मोदी ने दंगे करवाए इसलिए वह हर प्रकार की कानूनी कार्रवाई व न्यायिक प्रक्रिया को बाधित कर रहे हैं। एसआईटी ने क्लीन चिट दे दी तो उस पर भी प्रश्न इन लोगों ने उठाना शुरू कर दिया। न्यायालय ने एसआईटी के रिपोर्ट के बारे में जो कहा है उस पर नजर डालिए-एसआईटी की फाइनल रिपोर्ट जैसी है वैसी ही स्वीकार होनी चाहिए। न्यायालय ने इसकी रिपोर्ट को तथ्यों और ठोस तकरे पर आधारित कहा है, जिसमें और कुछ करने की जरूरत नहीं है। दंगे हुए यह सच है और उसमें दिल दहलाने वाली घटनाएं हुई।
समस्या यह है कि विरोधियों ने दंगों की एकपक्षीय ऐसी तस्वीर बनाई, जिससे लगता था कि 27 फरवरी, 2002 को अयोध्या से साबरमती एक्सप्रेस से लौट रहे 59 कारसेवकों को गोधरा स्टेशन पर दो कोच में आग लगा कर जिंदा जलाने की घटना से इनका कोई लेना-देना नहीं हो। ये ऐसे वक्तव्य देते थे मानो ट्रेन में जिंदा जलाए जाने वाले लोग मनुष्य थे ही नहीं। गोधरा कांड को अलग कर देंगे तो गुजरात दंगा समझ ही नहीं आएगा। रेल दहन के विरुद्ध आक्रोश पैदा हुआ और लोगों ने मुसलमानों पर हमला शुरू कर दिया। ऐसा नहीं है कि उस दंगे के लिए कोई दोषी नहीं हो। अब तक कई नेताओं सहित अधिकारियों और पुलिस के लोगों को सजा मिल चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने यही कहा है कि कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता या विफलता को राज्य प्रशासन की पूर्व नियोजित आपराधिक साजिश नहीं कहना चाहिए। अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति इसे राज्य प्रायोजित अपराध भी नहीं कहा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष गुजरात सरकार के कुछ अधिकारियों के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां तथा कानूनी कार्रवाई की मुखर अनुशंसा है। पीठ ने लिखा है कि इनमें गलत उद्देश्य के लिए मामले को जारी रखने की बुरी मंशा नजर आती है।
इसमें लिखा है कि जो प्रक्रिया का इस तरह से गलत इस्तेमाल करते हैं उन्हें कटघरे में खड़ा करके उनके खिलाफ कानून के दायरे में कार्रवाई की जानी चाहिए। अगर ये नहीं होते तो गुजरात दंगों के घाव कब भर जाते, लेकिन कुछ राजनीतिक इरादे वाले एनजीओ, एक्टिविस्टों, पत्रकारों और नेताओं के लिए वह इस कारण भी मुख्य एजेंडा था क्योंकि इसके कारण उनको सम्मान के साथ धन भी प्राप्त हो रहा था। जाहिर है, इनके खिलाफ व्यापक जांच की आवश्यकता है। कानूनी एजेंसियों की छानबीन से ही इस साजिश का पूरा सच सामने आएगा। इनको सजा मिलने के बाद ही गुजरात दंगों से संबंधित कानूनी कार्रवाई और प्रक्रियाएं पूर्ण होंगी। न्यायालय ने इसका रास्ता प्रशस्त कर दिया है।
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