मीडिया : ज्ञानवापी और मीडिया

Last Updated 22 May 2022 12:30:44 AM IST

जब से ‘ज्ञानवापी विवाद’ मीडिया में आया है तब से हम कई तरह की ‘ज्ञानवापी’ देख रहे हैं।


मीडिया : ज्ञानवापी और मीडिया

उदाहरण के लिए एक ‘ज्ञानवापी’ वो है जो आप काशी स्वयं  जाकर देखते हैं। दूसरी वो है जो रोज मीडिया में बनते देखते हैं। तीसरी वो है जो अदालत के मुकदमों में बनती देखते हैं। चौथी वो है जो शिवभक्तों की स्मृतियों और किस्सों और मिथकों में बसी है। पांचवीं वो है जो पुराणों व इतिहास की किताबों में बनती है। छठी वह है जो काशी वालों की शैली के नारे ‘हर हर महादेव’ के जरिए बनती है। इतनी ज्ञानवापियों के होने की वजह से ही हम चाहते हैं कि इन सबके बीच या इन सबसे मिलकर कोई एक असली ज्ञानवापी अवश्य होनी चाहिए। इसके लिए उसकी खोज की जानी चाहिए।  ‘सर्वे’ इसी ‘खोज’ का हिस्सा है। सर्वे के वीडियोज और रिपोर्ट में बनी ज्ञानवापी सातवीं ज्ञानवापी है जो इन दिनों गहरे विवाद का विषय है और जो अदालत के ध्यान का विषय है। हमारा मकसद यहां अदालत के फैसले पर टिप्पणी करने का नहीं है बल्कि मीडिया में यह मुद्दा जिस तरह से खुला है और जिस तरह से समाज पर उसका असर हो रहा है, उसकी चरचा करना है।
मीडिया का नियम है कि जहां ‘एक्शन’ होता है जहां ‘घटना’ होती है वहीं ‘मीडिया’ होता है। मीडिया  यही कर रहा है। पिछले ही दिनों, जिस चौबीस बाई सात के हिसाब से मीडिया ने ‘हिजाब’ के विवाद को दिखाया या ‘हलाल’ के विवाद को दिखाया या रामनवमी के जुलूसों के बाद के दंगों को दिखाया या दिल्ली में बुलडोजर के एक्शनों को दिखाया या हनुमान चालीसा के पाठ के विवाद को दिखाया है उसी तरह वह ज्ञानवापी मस्जिद/मंदिर के विवाद को भी दिखा रहा है। असली बात यह देखना है कि इस तरह के दिखाने का पब्लिक पर क्या असर होता है? क्या उसका दिखाया-बताया पब्लिक की रोजमर्रा की बातचीत का हिस्सा बनता है? कहने की जरूरत नहीं है कि अपनी सारी सीमाओं के बावजूद मीडिया जिस तरह से समकालीन घटनाओं को कवर कर रहा है, उससे पब्लिक में  ‘पापूलर जन विमर्श’ पैदा कर चुका है।

हम जानते हैं कि मीडिया हमेशा पब्लिक को अपने साथ शामिल करके चलता है। उसके भावबोध को तिकतिका कर सक्रिय करता है। इसीलिए आज का आम आदमी उसी भाषा में बात करता दिखता है जिस भाषा में मीडिया में लोग बात करते हैं। लेकिन इसके लिए मीडिया अपना ‘कंटेंट’ खुद नहीं बनाता बल्कि बनते हुए ‘कंटेंट’ को ‘कवर’ करता है। उसका काम ‘जो है’ उसे ‘वैसा ही’ दिखाने का है न कि उसे बनाने का। मीडिया हमें सिर्फ  खबर या विचार मात्र नहीं दे रहा बल्कि हमें खबरों में शामिल भी कर रहा है। उदाहरण के लिए ज्ञानवापी के कवरेज को देखने के बाद हम या तो हिंदू पक्ष के हो सकते हैं या मुस्लिम पक्ष के। लेकिन तटस्थ नहीं रह सकते। इसीलिए हमारा कहना है कि हमें सर्वे के वीडियोज को ज्ञानवापी केस में महत्त्वपूर्ण दस्तावेज मानना चाहिए जिसका औपचारिक संज्ञान अभी अदालत को लेना है।
 हम देख रहे हैं कि जब से सर्वे मीडिया में लीक हुआ तब से  मीडिया की हर बहस उत्तेजक बहस बन गई है जहां तरह-तरह के हिंदुत्व एक्सपर्ट इस्लाम एक्सपर्ट और कानून एक्सपर्ट एक दूसरे से उलझते दिखते हैं। यह सर्वे के जरिए ही मालूम हुआ है कि वहां एक शिवलिंग भी है जो एक तालाब के किनारे कुएंनुमा घेरे में रखा है जिस पर सीमेंट चिपकाया गया लगता है। हिंदू पक्ष इसे शिवलिंग कहता है तो मुस्लिम पक्ष फव्वारा कहता है लेकिन मुस्लिम पक्ष यह नहीं बता पाता कि साढ़े तीन सौ बरस पहले क्या कोई ऐसी तकनीक ईजाद हो गई थी जिससे नीचे लगा फव्वारा ऊपर पानी फेंक सके। ऐसे बहुत से झूठ टीवी की बहसों में बार-बार एक्सपोज हो रहे हैं।
सर्वे के वीडियोज ने मस्जिद की दीवारों पर बने या उकेरे हिंदू चिह्नों को दिखाया है, वहां कमल, शंख, स्वास्तिक, डमरू आदि के चिह्न साफ दिखते हैं। लेकिन मुस्लिम पक्ष इस सबको नहीं मानता। इसलिए यही रास्ता बचता है कि अदालत पुरातत्व से जांच कराए लेकिन बहुत से मुस्लिम पक्षकार ‘जांच’ किए जाने को ही चुनौती देते हैं जिसे अदालत ने नहीं माना है। मुस्लिमों का एक हिस्सा इस बात को भी नहीं स्वीकारता कि ज्ञानवापी मंदिर को औरंगजेब ने तोड़ा था जबकि प्रमाण के तौर पर स्वयं औरंगजेब के फरमान तक दिखाए गए हैं।
जैसे-जैसे मीडिया में बहसें बढ़ती गई हैं, वैसे-वैसे कट्टरता को भी बढ़ते देखा जा सकता है। और यही मीडिया की चिंता का विषय है।

सुधीश पचौरी


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