सामयिक : साजिश को समझना होगा
जहांगीरपुरी के हिंसा ने दिल्ली ही नहीं पूरे देश को एक बार फिर डराया है। राहत की बात इतनी है कि दिल्ली ने हनुमान जयंती की शोभा यात्रा पर हुए हमलों के बाद 2020 की सांप्रदायिक हिंसा को नहीं दोहराया।
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हिंसा और आगजनी की जितनी जानकारी अभी तक सामने आई है उसके बाद यह मानने में कोई हर्ज नहीं है साजिशकर्ताओं ने एक बार फिर दिल्ली को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंकने की तैयारी कर ली थी।
वीडियो फुटेज देखने के बाद उत्तेजना स्वाभाविक है पर दिल्ली के लोगों की प्रशंसा करनी होगी कि किसी ने धैर्य नहीं खोया। इस मामले में पुलिस प्रशासन ने भी घटना के बाद आवश्यक चुस्ती दिखाई और ऐसे सुरक्षा उपाय किए जिससे मामला आगे न बढ़े। पूरा मामला व्यापक स्तर पर विचार एवं उसके अनुसार व्यवस्था की मांग करती है। भारत के कुछ राजनीतिक दलों तथा बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों के एक बड़े वर्ग की समस्या है कि वे ऐसे मामलों में भी सच देखना नहीं चाहते। आखिर वीडियो फुटेज तो गलत नहीं हो सकते। इतनी संख्या में हमला करने वाले कहां से आ गए? उतनी मात्रा में पत्थर, ईट, कांच की बोतल आदि अचानक इकट्ठा नहीं हो सकते।
अभी तक इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि हनुमान जयंती की शोभायात्रा की हरकतों के कारण उत्तेजना पैदा हो गई हो। शोभायात्रा में स्त्री, पुरु ष, बच्चे, बुजुर्ग सभी शामिल थे। अगर दूसरी ओर से हिंसा होती तो उसके निशान भी होते। शोभा यात्रा के वाहनों पर चढ़े हमलावर हाथों में तलवार, डंडा आदि लहराते वीडियो में दिख रहे हैं। इन सबको देख कर भी हम अनदेखी करें या इनसे आंखें मूंद लें तो और बात है अन्यथा सच्चाई सामने है। जो लोग अल्पसंख्यकों के नाम पर उन हमलावरों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं वे उनका हित नहीं कर रहे हैं। सांप्रदायिक मजहबी जुनूनी और हिंसक तत्व किसी समाज के लिए अहितकर हैं।
ये लोग कोई एक प्रमाण लाए जिससे लगे कि पहले हमला शोभायात्रा की ओर से हुआ? जब यह सच है ही नहीं तो इसके प्रमाण कैसे हो सकते हैं। पुलिस पर आरोप लगाना आसान है कि वह एक ही पक्ष के लोगों को पकड़ रही है। अगर दोषी एक पक्ष के लोग हैं तो जानबूझकर क्या दूसरे पक्ष को भी पकड़ा जाएगा क्योंकि कार्रवाई करते हुए संतुलित दिखना है? यह दो पक्षों के बीच झड़प या हिंसा की कोई सामान्य घटना नहीं है। महत्त्वपूर्ण धार्मिंक तिथियों में शोभायात्रा और जुलूस की पुरानी परंपरा है। हनुमान जयंती इनमें एक है। शोभायात्रा में हर तरह के लोग होते हैं, लेकिन श्रद्धालुओं की संख्या सबसे ज्यादा होती है। बहुत सारे लोग उपवास करते हैं और वह भी यात्रा में शामिल रहते हैं। मूल वातावरण भक्ति का होता है। अगर भक्ति भाव नहीं हो तब भी कोई धार्मिंक यात्रा इस ढंग से किसी समूह के लिए असहनीय कैसे हो सकती है? किसी धार्मिंक आयोजन से आप इतने और सहिष्णु हो जाएं कि उस पर हमला कर दें और मरने-मारने को उतारू हो तो इसे क्या कहा जाएगा? इस घटना को उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखकर इसमें संलिप्त लोगों की मानसिकता को समझना होगा। वास्तव में मजहबी कट्टरवाद की यह ऐसी खतरनाक सोच है, जिस पर रोक लगाना आवश्यक है।
दिल्ली इस मामले में अकेला नहीं है।अप्रैल के आरंभ से लेकर अभी तक राजस्थान के करौली से लेकर मध्य प्रदेश के खरगोन और गुजरात के खंभात तक हमने ऐसे ही धार्मिंक शोभायात्राओं पर पूर्व नियोजित भीषण हिंसा के दृश्य देखे हैं। उन सब घटनाओं में कार्रवाई हो रही है और छानबीन से पता चल रहा है कि सब जगह एक ही तरीका अपनाया गया। गुपचुप तैयारी हुई, हिंसा के सामग्री एकत्रित किए गए, इन सब के लिए फंड की व्यवस्था भी हुई, साजिश रचकर लोग तैयार किए गए और आवश्यकता के अनुसार बाहर से भी बुलाए गए। इसका सीधा-सीधा निष्कर्ष यह है कि मजहबी कट्टरता की मानसिकता वालों ने भारत को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंकने का व्यापक षड्यंत्र रचा था। सभी राज्यों के हमलों का कोई एक सूत्रधार नहीं भी हो तो किसी-न-किसी तरह विचार के स्तर पर इसे फैलाने की कोशिश एक जगह से अवश्य हुई है। सब जगह चेहरे अलग, नेतृत्वकर्ता अलग लेकिन तरीका एक ही। जाहिर है, इस तरह से देशव्यापी धार्मिंक आयोजन हिंसा के शिकार हो रहे हैं तो यहीं तक सीमित नहीं होगा।
जब राजस्थान के करौली में हिंसा हुई तो लगा कि यह अकेला होगा। उसके बाद गुजरात के आनंद जिले के खंभात, साबरकांठा और द्वारका में हिंसा हो गई। उस समय भी लगा कि शायद यह भी छिटपुट घटना होगी। किंतु 10 अप्रैल को रामनवमी के दिन जगह-जगह उसी तरह शोभायात्रा पर हमले हुए। उसके बाद हनुमान जयंती पर दिल्ली निशाना बना। पता नहीं आगे किस आयोजन को निशाना बनाए जाने की तैयारी हो चुकी हो। अगर मानसिकता यह हो कि ऐसे आयोजनों को सहन नहीं करना है और इतना भयभीत कर देना है ताकि कोई शोभायात्रा या जुलूस निकालने का साहस नहीं करे तो निश्चित रूप से तैयारी लंबे समय की होगी। पता नहीं कहां-कहां कितने लोग ऐसी हिंसा करने की तैयारी करके छुपे हो। मूल बात तो सोच की है। इस तरह की सोच अगर व्यापक पैमाने पर फैल गई है तो भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती है। सच कहा जाए तो यह आतंकवादी हिंसा से कम खतरनाक नहीं है। हमलों के बाद इस समय हताहतों की संख्या ज्यादा नहीं है तो आगे हो सकती है। देश के सामने अब बड़ा प्रश्न है कि इस तरह की मानसिकता का क्या उपचार हो? देश की एकता की दृष्टि से यह गंभीर चुनौती उत्पन्न हुई है।
निश्चित रूप से कुछ ऐसे चेहरे हैं, जिन्होंने इस खतरनाक सोच को पैदा करने में मुख्य भूमिका निभाई है। कुछ संगठनों का नाम भी इनमें आ रहा है। इसकी पुनरावृत्ति रोकनी है तो कार्रवाई केवल इन घटनाओं के दोषियों तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसका विस्तार कर व्यापक छानबीन हो और उन सारे लोगों को कानून के कठघरे में लाया जाए, जिनकी इनमें भूमिका है या भविष्य में हो सकती है। नागरिक के नाते हम सबको समझना होगा कि देशविरोधी शक्तियां किस ढंग से हमारी एकता को तोड़कर हमें हिंसा की आग में झोंकना चाहते हैं। इसलिए हमें हर समय सतर्क और चौकस रहना होगा।
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