विश्व स्वास्थ्य दिवस : जाने--अनजाने न हो स्वास्थ्य से खिलवाड़
स्वास्थ्य स्तर को सुधारने तथा स्वास्थ्य को लेकर प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक करने के उद्देश्य से प्रति वर्ष 7 अप्रैल को वैश्विक स्तर ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मनाया जाता है।
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विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के बैनर तले मनाए जाने वाले इस दिवस की शुरुआत 7 अप्रैल, 1950 को हुई थी। यह दिवस मनाने के लिए इसी तारीख का निर्धारण डब्ल्यूएचओ की संस्थापना वषर्गांठ को चिह्नित करने के उद्देश्य से किया गया था। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की स्थापना 7 अप्रैल, 1948 को हुई थी, जिसका मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जेनेवा शहर में है। संस्था की पहली बैठक 24 जुलाई, 1948 को हुई थी और इसकी स्थापना के समय इसके संविधान पर 61 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। इस वर्ष पूरी दुनिया 72वां विश्व स्वास्थ्य दिवस मना रही है।
अपनी स्थापना के बाद इस वैश्विक संस्था ने ‘स्मॉल पॉक्स’ को जड़ से खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और टीबी, एड्स, पोलियो, रक्ताल्पता, नेत्रहीनता, मलेरिया, सार्स, मर्स, इबोला जैसी खतरनाक बीमारियों के बाद कोरोना की रोकथाम के लिए भी जी-जान से जुटी है। भारतीय समाज में तो सदियों से धारणा भी रही है ‘जान है तो जहान है’ तथा ‘पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया’। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:’ अर्थात ‘सब सुखी हों और सभी रोगमुक्त हों’ मूलमंत्र में यही स्वास्थ्य भावना निहित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि दुनिया की आधी आबादी को आज भी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं तथा स्वास्थ्य देखभाल में से किसी एक को चुनने पर विवश होना पड़ता है। विभर में 80 करोड़ से भी ज्यादा लोग अपने घर के बजट का कम से कम दस फीसदी स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर खर्च करते हैं। स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर बड़ा खर्च करने के कारण दस करोड़ से ज्यादा लोग अत्यधिक गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। चिंता की स्थिति यह है कि पिछले कुछ दशकों में जहां स्वास्थ्य क्षेत्र ने काफी प्रगति की है, वहीं एड्स, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के प्रकोप के साथ हृदय रोग, मधुमेह, क्षय रोग, मोटापा, तनाव जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं। ऐसे में स्वास्थ्य क्षेत्र की चुनौतियां निरंतर बढ़ रही हैं।
अगर भारत की बात की जाए तो कोरोना काल को छोड़ दें तो आर्थिक दृष्टि से देश में पिछले दशकों में तीव्र गति से आर्थिक विकास हुआ लेकिन कड़वा सच यह भी है कि तेज गति से आर्थिक विकास के बावजूद करोड़ों लोग कुपोषण के शिकार हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार तीन वर्ष की अवस्था वाले तीन फीसदी से भी अधिक बच्चों का विकास अपनी उम्र के हिसाब से नहीं हो सका है, और चालीस फीसदी से अधिक बच्चे अपनी अवस्था की तुलना में कम वजन के हैं। इनमें करीब अस्सी फीसदी बच्चे रक्ताल्पता अनीमिया से पीड़ित हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं की तीस फीसदी से ज्यादा आबादी कुपोषण की शिकार है। कुछ रिपोटरे के मुताबिक अभी भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह मुफ्त नहीं हैं, और जो हैं, उनकी स्थिति संतोषजनक नहीं है।
भारत में ग्रामीण तथा कमजोर आबादी में सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का विस्तार करने के उद्देश्य से ‘आयुष्मान भारत कार्यक्रम’ की शुरुआत की गई। इसके अलावा ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण मिशन’ (एनएचपीएम) के तहत दस करोड़ से अधिक गरीब लोगों और कमजोर परिवारों की स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक परिवार को पांच लाख रुपये वार्षिक की कवरेज प्रदान की जा रही है। देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रशिक्षित लोगों की बड़ी कमी है। बिस्तरों की उपलब्धता भी बेहद कम है। सवा अरब से अधिक आबादी के लिए महज 26 हजार सरकारी अस्पताल हैं अर्थात 47 हजार लोगों पर एक सरकारी अस्पताल। सरकारी अस्पतालों में इतनी बड़ी आबादी के लिए करीब सात लाख बिस्तर हैं। सरकारी अस्पतालों में करीब 1.17 लाख डॉक्टर हैं अर्थात दस हजार से अधिक लोगों पर महज एक सरकारी डॉक्टर। विश्व स्वास्थ्य संगठन के नियमानुसार प्रति हजार मरीजों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। कुछ राज्यों में तो स्थिति यह है कि 40 से 70 हजार आबादी पर एक सरकारी डॉक्टर है।
आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अधिकांश लोग जाने-अनजाने में अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखे। बहरहाल, विश्व स्वास्थ्य दिवस के माध्यम से समाज को बीमारियों के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया जाता है। दरअसल, विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना ही मानव-स्वास्थ्य की परिभाषा है।
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