सरोकार : संतुलन के लिए पितृत्व अवकाश जरूरी
पुरुष और स्त्री जीवन सत्ता के दो महत्त्वपूर्ण अधिष्ठान हैं।
![]() सरोकार : संतुलन के लिए पितृत्व अवकाश जरूरी (प्रतिकात्मक चित्र) |
स्त्रियों के मातृत्व अधिकार ने जहां उन्हें धरा की जननी के रूप में स्थापित किया वहीं पुरु षों ने प्रतिकृति रूप में दांपत्य संतुलन को साधा। दांपत्य को सहेजने समेटने का काम नर और नारी, दोनों ने बड़ी संवेदनशीलता और सुघड़ता से अमूल्य रूप में सहेजा। इसी संचयन और समग्रता का प्रतिफल है कि स्त्री और पुरुष पर्याय रूप में दांपत्य धूरी बन सधे अंदाज में रास्ता तय कर रहे हैं। इस सार्वभौमिकता को मौजूदा परिस्थितियों में स्वीकारते हुए हाल में एक कैबिनेट मंत्री ने पुरु ष कर्मचारियों को पितृत्व अवकाश देने पर विचार करने की पुरजोर वकालत की ताकि पुरुष भी समान रूप से बच्चे के पालन-पोषण की जिम्मेदारी साझा कर सकें।
अवकाश संबंधी स्थितियों को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलना होगा। 1999 में केंद्र सरकार ने अपने पुरुष कर्मचारियों के लिए 15 दिनों के अवकाश के रास्ते खोले। निजी संस्थान स्वेच्छानुसार अपने पुरुष कर्मचारियों के पितृत्व अवकाश को आगे बढ़ाते रहे। बच्चे के नैसर्गिक विकास में पिता की सुरक्षात्मक और संवेदनशील भूमिका को देखते हुए पितृत्व अवकाश की समग्र मांग जोर पकड़ने लगी है।
नियमानुसार पुरुष सरकारी कर्मचारी (प्रशिक्षु सहित) को पत्नी के प्रसवकाल के दौरान बच्चा पैदा होने से 15 दिन पहले अथवा बच्चा पैदा होने की तारीख से छह महीने तक अवकाश स्वीकृत करने वाले सक्षम अधिकारी की ओर से 15 दिन की अवधि का अवकाश स्वीकृत किया जाता है। इस अवकाश को किसी अन्य प्रकार के अवकाश के साथ लिया जा सकता है। इसे अवकाश खाते में नहीं डाला जाएगा। पितृत्व अवकाश नियत अवधि में ही लेना होता है अन्यथा इसे समाप्त समझा जाता है। वहीं अगर मातृत्व अवकाश की बात करें तो संविधान के निर्देश और संकल्प के मद्देनजर देश में पहली बार 1961 में मातृत्व अवकाश कानून बनाया गया। सबसे पहले 1919 में प्रथम इंटरनेशनल लेबर कॉन्फ्रेंस में मातृत्व रक्षार्थ विषय पर कानून बने। प्रसव से 6 सप्ताह पूर्व और प्रसव के 6 सप्ताह बाद तक महिलाकर्मी की छुट्टियों की व्यवस्था की गई। बाद में 1952 में इस में परिवर्तन भी किए गए। तत्पश्चात 2017 में मातृत्व संशोधन विधेयक पारित किया गया जिसमें अवकाश की अवधि 12 हफ्तों से बढ़ाकर 26 हफ्ते कर दी गई। पितृत्व अवकाश लागू करने की बात अक्सर सार्वजनिक रूप से उठती रहती है।
दरअसल, हमें ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है जो न केवल लैंगिक रूप से निष्पक्ष हो, बल्कि पारिवारिक माहौल के लिहाज से भी महिलाओं के साथ पुरु षों को भी सम्मान देता हो। निजी संस्थानों में तो कामकाजी महिलाओं के लिए पेड मेटरनिटी अधिनियम को बाकायदा बिल बनाकर पारित किया गया वहीं अधिकतर पुरुषों के लिए अवकाश जैसी कोई पॉलिसी ही नहीं है। अर्नास्ट फिशर ने लिखा है कि पत्थर हो चुकी विचारधाराओं के विरु द्ध उत्पन्न होने वाले नये विचार उथल-पुथल मचा देते हैं, विरोध को जन्म देते हैं और अंतत: जनता को अपनी गिरफ्त में लेकर एक वास्तविक शक्ति में परिणत हो जाते हैं। पितृत्व अवकाश की मांग लंबी और पुरानी है। पिता का सहयोग और संबल मां की रचनात्मकता को दुगुनी गति से आगे बढ़ा सकता है। सृजन का आधार दोनों हैं, तो अवकाश दोनों पाएं। समदर्शी समाज बेहतर नेतृत्व और शानदार व्यक्तित्व तैयार कर सकता है, इसमें पिताओं की भूमिका अहम हो सकती है।
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