सरोकार : खुद के पैर में कुल्हाड़ी न मारें महिलाएं

Last Updated 30 Jan 2022 01:46:47 AM IST

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 354 ए (यौन उत्पीड़न) और 506 (आपराधिक धमकी) के दुरुपयोग का मामला एक बार फिर गरमाया हुआ है।


सरोकार : खुद के पैर में कुल्हाड़ी न मारें महिलाएं

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यौन उत्पीड़न की वास्तविक शिकायतों की विसनीयता पर सवाल उठाया है। न्यायालय की खंडपीठ ने नाराजगी जताते हुए कहा कि इस तरह की घटनाएं अपराध की गंभीरता को कमतर आंकती हैं। जाहिर है ऐसे फर्जी मामले महिला सशक्तिकरण के प्रयासों में भी बाधा उत्पन्न करते हैं। अदालत की गंभीर टिप्पणी न केवल चिंतनीय अपितु आंख खोलने वाली भी है।

यदि इन धाराओं के विधिक पक्षों की बात करें तो छेड़छाड़ के मामलों में आईपीसी की धारा 354 और अश्लील हरकत करने के मामले में आईपीसी की धारा 509 लगाए जाने का प्रावधान है। हालांकि दोनों धाराएं जमानती हैं। धारा 509 जहां किसी व्यक्ति द्वारा किसी महिला के प्रति उसका अनादर करने वाले शब्दों का इस्तेमाल करने की व्याख्या करता है, वहीं धारा 354 किसी व्यक्ति द्वारा किसी महिला की लज्जा भंग करने की नीयत से उस पर हमला करने या उसके शरीर को चोट पहुंचाने की बात कहता है। बदलते समय के साथ महिलाओं ने पारंपरिक घरेलू भूमिका से इतर शैक्षणिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, प्रबंधकीय आदि भूमिकाओं में स्वयं को तेजी से स्थापित किया है, जो न केवल सराहनीय है अपितु साझेदारी जैसे पहलुओं का भी बेबाकी से प्रतिनिधित्व करता है। मौजूदा समय में वे ज्यादा अधिकार सम्मत और कानूनी रूप से सशक्त हुई हैं पर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अधिकारों के बढ़ते दायरे ने उन्हें एक अनियंत्रित हथियार थमा दिया है, जिसका ट्रिगर उनके हाथ में है, और जिससे आसानी से किसी भी समय प्रतिशोधात्मक प्रहार कर सकती हैं।  

हिंसा के बढ़ते आंकड़े समाज की संकीर्ण, अशिक्षित, असभ्य एवं अमानवीय सोच को प्रकट करते हैं, दुनिया में लगातार यौन उत्पीड़न के मामले बढ़ रहे हैं। डब्ल्यूएचओ जहां प्रत्येक दिन विश्व की 3 में से एक महिला की किसी न किसी प्रकार की शारीरिक और यौन हिंसा की पुष्टि करता है, वहीं एनसीबी हर दिन यौन अपराध से जुड़े 109 मामले दर्ज किए जाने की बात कहता है, लेकिन महिला सुरक्षा कानून और शक्तियों की आड़ में अधिकारों का बेजा इस्तेमाल कदाचित स्वीकार्य नहीं। जाहिर है कि इसके  नकारात्मक और दूरगामी प्रभाव भी होंगे। कानून ने जो सुरक्षा उपकरण उन्हें थमाए हैं, उनकी गरिमा खोने न पाए और छेड़छाड़, हिंसा और उत्पीड़न रोकने वाले कानूनों का उपयोग बदला लेने के लिए न किया जाए। इस पर गंभीर चिंतन और मनन की जरूरत है। आंकड़े तस्दीक करते हैं कि बीते कुछ वर्षो के दौरान दर्ज महिला हिंसा के आधे मामले झूठे थे।

थानों में दर्ज 610 केस में से 270 केस फर्जी निकले। ज्यादातर मामलों के केंद्र में आपसी द्वेष और प्रतिशोध था जिससे न केवल पुलिस अपितु न्यायालय का भी कीमती समय नष्ट हुआ। महिलाओं को देखना होगा कि कहीं उनकी गैर-जागरूकता और अल्प ज्ञान का लाभ उठा उनके जरिए झूठे आरोप दर्ज कराने का षड्यंत्र तो नहीं रचा जा रहा। उनके द्वारा संविधान प्रदत्त अधिकारों का येन केन प्रकारेण दुरु पयोग जारी रहा तो समाज में उनकी स्थिति कमजोर पड़ सकती है। उन्हें कानूनी पचड़े में फंसना पड़ सकता है। जाहिर है कि कानूनों के दुरु पयोग से सभ्य, सुरक्षित व अहिंसात्मक समाज की परिकल्पना धूमिल पड़ सकती है।

डॉ. दर्शनी प्रिय


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