मुस्लिम समाज : समझदारी से मतदान की अपेक्षा
विश्व में जितने भी लोकतंत्र हैं, उनमें लोकतंत्र का उद्देश्य जन कल्याणकारी राज की संस्थापना होती है।
मुस्लिम समाज : समझदारी से मतदान की अपेक्षा |
ऐसे में हर लोकतंत्र में नागरिक समूह खड़े होते हैं, जो विविध दलों से अपने हितों के लिए दबाव बनाने में सक्रिय होते हैं। जैसे अमेरिकी लोकतंत्र में अेतों का वर्ग, धार्मिंक अल्पसंख्यकों का वर्ग, नस्ल आधारित समूह, महाद्वीपीय समूह कार्यरत हैं।
भारत में पहला चुनाव 1937 में हुआ। स्वतंत्रता पूर्व तीन चुनाव हुए हैं। 1937, 1942, 1946 इन तीनों चुनावों से सबसे बड़े नागरिक समूह के रूप में मुस्लिम मतदाता का समूह खड़ा हुआ है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही मुस्लिम हितों की सौदागरी के लिए मुस्लिम लीग गठित हुई थी। चुनाव से पहले ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों ने धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग को साकार रूप देने के लिए पाकिस्तान का नामकरण कर लिया था, जिसके कारण तत्कालीन कांग्रेस का नेतृत्व सतर्क था और उसने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का चुनावी संस्करण सामने लाने में सफलता हासिल की। परिणामत: 1937 के आम चुनाव में मुस्लिम लीग को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। मुस्लिम बहुल राज्यों में भी कांग्रेस को ही व्यापक सफलता मिली, जिसके कारण मोहम्मद अली जिन्ना समेत मुस्लिम लीग का नेतृत्व अलगाववाद की दिशा में बढ़ने के लिए और मजबूर हुआ। सत्ता में हिस्सेदारी के अभाव में उसे सत्ता के लिए अंग्रेजों की गोद में बैठा दिया गया। द्वितीय वियुद्ध के दौरान तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से युद्ध समर्थन के बदले पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की बजाय कांग्रेस का नेतृत्व विदेशी मामलात में पं. जवाहरलाल नेहरू के प्रभाव के चलते ब्रिटिश से टकराव के मार्ग पर चला गया।
मुस्लिम लीग ने इसका लाभ उठाया और वह अंग्रेजों के लिए रणनीतिक लाभ वाला दल बन गया, जिसका परिणाम कालांतर में भारत को विभाजन की विभीषिका के रूप में झेलना पड़ा। 1952 के चुनाव से लेकर 21वीं सदी के दूसरे शतक तक मुस्लिम समूह अपने हितों की सौदागरी में हमेशा बीस साबित हुए। कालांतर में पं. जवाहरलाल नेहरू ने अलगाव के लिए जिम्मेदार मुस्लिम लीग को राजनीतिक दल के रूप में मान्यता दे दी। उसके बाद अलग-अलग प्रदेशों में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के मुस्लिम मतदाताओं के वोट बैंक का सौदा करने के लिए तमाम तरह के दल आगे आए। कांग्रेस ने भी हमेशा मुस्लिम नेताओं की पौध को खाद-पानी देने का काम किया। इस बीच मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने भाजपा को देश में मुसलमानों का शुभचिंतक बताया है। मंच ने पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यक समुदाय से भाजपा को वोट देने की अपील की है और दावा किया है कि भाजपा शासन में मुसलमान ‘सबसे सुरक्षित और खुश’ हैं, जबकि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उन्हें केवल ‘वोट बैंक’ मानती हैं। मंच ने समुदाय के कल्याण के लिए केंद्र और राज्यों में भाजपा सरकारों द्वारा लागू की गई विभिन्न योजनाओं का जिक्र किया है और कहा है।
मंच की ओर से अल्पसंख्यकों के लिए तैयार एक निवेदन पत्र में उल्लेख किया गया है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने 2014 से अल्पसंख्यक समुदायों के कल्याण के लिए नई रोशनी, नया सवेरा, नई उड़ान, सीखो और कमाओ, उस्ताद और नई मंजिल सहित 36 योजनाएं शुरू की हैं। बुद्धिजीवी मुसलमान मोदी सरकार को किस रूप में देखते हैं, इस पर भी नजर डालते हैं। एशिया में मुस्लिम मामलात के बड़े जानकार के रूप में मौलाना महमूद मदनी स्थापित हैं। महमूद मदनी ने बीच के दिनों में आज तक को दिए एक साक्षात्कार में एक मुद्दा मुस्लिम जमात के सामने पेश किया है। महमूद मदनी का कहना है कि जिस तरह से मुस्लिम समाज को भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए एकजुट होने की बांग दी जा रही है, उसका परिणाम अतत: मुस्लिम समाज को ही झेलना पड़ेगा। महमूद मदनी का तर्क है कि मुसलमान जब भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए ही मतदान करेंगे तो स्वाभाविक है कि भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों से किसी प्रकार की वार्ता में समय नहीं गंवाएगी और वह
शेष 80 फीसद मतों पर ही ध्यान देगी। शेष दल जो अब तक मुस्लिम हितों की बात करते रहे हैं, वे भी जब यह जान जाएंगे कि मुसलमान तो भाजपा को हराने के लिए ही मतदान करेगा तो ऐसे दलों से भी मुसलमान अपने वोटों और अपने हितों की सौदागरी करने में विफल रहेगा। परिणामस्वरूप मुसलमानों का सारा मत ब्रांडेड हो जाएगा और उसका लाभ तथाकथित सेक्युलर दल तो लेंगे, लेकिन मुसलमानों को जो प्रतिनिधित्व सत्ता में मिलना चाहिए वह नहीं मिलेगा। भारतीय जनता पार्टी पर एक आरोप लगता है कि वह मुसलमानों को चुनाव में टिकट नहीं देती। चूंकि भारतीय जनता पार्टी के पास मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन का व्यापक अभाव है। ऐसे में मतदाताओं के बीच से नेतृत्व उभरने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। भारतीय जनता पार्टी फिर भी बीते सात वर्षो में तीन लोगों को राज्य सभा भेज चुकी है, जिनमें से मुख्तार अब्बास नकवी अल्पसंख्यक मामलात के केंद्रीय मंत्री भी हैं और राज्य सभा में उन्हें उप नेता का दर्जा प्राप्त है।
एम. जे. अकबर विदेश मंत्रालय का प्रभार संभाल चुके हैं और जफर इस्लाम राज्य सभा के सदस्य बनाए गए हैं। इन सात वर्षो में स्वयं को सेक्युलर कहने वाला कोई भी दल तीन मुसलमानों को राज्य सभा में नहीं भेज पाया है। इसका अर्थ यह है जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों को सांसद, विधायक या मंत्री पद से नवाजती है तो मुसलमानों का मत प्राप्त किए बिना भी उनको मंत्री पद सांसद या विधायक पद देना स्वाभाविक तौर पर समूह पर सत्ताधारी दल की कृपा मात्र है। यही दशा कालांतर में अन्य दलों में भी हो जाएगी। महमूद मदनी आने वाली परिस्थितियों को भांप रहे हैं। ऐसे में क्या मुसलमान अंधविरोध छोड़ कर तार्किक आधार पर राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होगा? 2022 में उत्तर प्रदेश के चुनाव का सबसे बड़ा सवाल यही है।
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