जयंती : लाला लाजपत राय और मातृशक्ति

Last Updated 28 Jan 2022 02:12:53 AM IST

हरियाणा लाला लाजपतराय जी की कर्मभूमि रहा है। 28 जनवरी का दिवस लाला लाजपतराय जैसे दूरदृष्टा बहुयामी व्यक्तित्व को नमन करने का व उनके आदश्रे व दृष्टिकोण का अनुकरण करने का अवसर है।


जयंती : लाला लाजपत राय और मातृशक्ति

हम प्राय: लाला जी का संस्मरण ‘मेरे शरीर पर पड़ी एक एक लाठी ब्रिटिश सरकार के कफन में कील का काम करेगी’ के उद्घोष से करते हैं, परन्तु लाला जी न केवल एक सच्चे देशभक्त, समाजसेवक, शिक्षाविद्व, लेखक, ओजस्वी वक्ता, सफल वकील अपितु एक समर्पित समाज सुधारक भी थे। समाज के कमजोर वगरे हरिजन, मजदूरों व स्त्रियों के बारे में उन्हें विशेष चिंता थी। उनका मानना था कि जब तक समाज के यह सभी वर्ग सबल और समान नहीं होंगे-राष्ट्र निर्माण का कार्य पूरा नहीं हो सकता। एक सशक्त समाज के लिए स्त्रियों का सशक्तिकरण एक आवश्यक शर्त है।
भारतीय स्त्रियों के प्रति लाला जी के मन में एक विशेष सम्मान, संवेदना व चिंता थी। उनका यह मानना था कि भारतीय समाज में औरतें भारतीय सभ्यता, संस्कृति, आदशरे व मूल्यों कि संरक्षक हैं। वह स्वयं के बारे में लिखते हुए रेखांकित करते हैं कि मेरी माता जी गुलाब देवी हमारे परिवार की एक आदर्श महिला थीं। मेरे सफल जीवन का सारा श्रेय मेरी माता जी द्वारा दिए गए प्रशिक्षण व संस्कारों को जाता है। एक अन्य जगह वह लिखते हैं कि मेरे पिता जी जो एक मौलवी अध्यापक के अत्याधिक प्रभाव में थे-मेरी माता जी कि ढृढ़ इच्छाशक्ति व डर के कारण ही मुसलमान नहीं बन सके। परन्तु 20वीं शताब्दी के शुरू तक भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा से विशेष रूप से चिंतित थे। बाल विवाह का प्रचलन था। 1891 के विवाह संबंधी कानून द्वारा लड़कियों की विवाह के लिए न्यूनतम आयु 10 वर्ष से बढ़ा कर 12 वर्ष की गई थी। यह छोटी बच्चियां जो अल्प आयु में ही गर्भवती हो जाती थीं के लिए घोर अत्याचार था। कमजोर व अविकसित होने के कारण माताओं और बच्चों की मृत्युदर भी अत्यधिक थी।

1920 में प्रत्येक पीढ़ी ने 32 लाख से अधिक माताओं की प्रसव के दौरान मृत्यु देखी है। पुरु षों का पुनर्विवाह आम बात थी परन्तु विधवा स्त्रियों की शादी सामाजिक तौर पर प्रतिबंधित थी और वे नारकीय जीवन भोगने को विवश थीं। इसके साथ ही देवदासी, सती, व बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी-जिसका समाज में बहुत कम प्रतिशोध था। महिलाओं में साक्षरता दर 1911 तक 10 प्रति हजार थी। इस प्रकार हिंदू समाज का लगभग आधा भाग (महिलाएं) शारीरिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से अत्यंत कमजोर व हीन अवस्था में या मैं कहूं तो लकवाग्रस्त था। लाला जी समाज को एक आंगिक स्वरूप मैं देखते थे जिसमें शरीर के प्रत्येक अंग का स्वस्थ होना अति आवश्यक है, अन्यथा यह रु ग्ण या अपंग व्यक्ति के समान है। अत: वह औरतों के अधिकारों व सम्मान के प्रति पूर्ण सजग थे तथा उन्हें उचित स्थान दिलाने के लिए प्रयत्नशील भी। लाला जी के अनुसार ‘आज सबसे अधिक आवश्यकता हमें अपनी माताओं का सर्वोत्तम ध्यान रखने की है। एक हिंदू के लिए औरत एक लक्ष्मी है, सरस्वती एवं शक्ति का सामूहिक प्रत्यक्ष रूप है। वह सभी प्रकार की शक्ति, सुंदरता और आशाओं का आधार है।’ माताएं समाज की निर्माता हैं, यदि उनका स्वयं का स्वास्थ्य ठीक नहीं होगा, यदि वे बलिष्ठ नहीं होंगी तो समाज से हम किसी प्रकार की बेहतरी की उम्मीद नहीं कर सकते। स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए लाला जी ने सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा पर बल दिया। अपनी पुस्तक  में न सिर्फ  उन्होंने स्त्री शिक्षा बल्कि सह-शिक्षा का भी भरपूर समर्थन किया। उनकी यह मांग थी कि प्रत्येक जिले में लड़कियों के लिए कम-से-कम एक राष्ट्रीय विद्यापीठ होना चाहिए, जिसमें उनके लिए खेलकूद के मैदान के साथ व्यायामशाला भी अवश्य हों ताकि हमारी लड़कियां शिक्षित, स्वस्थ व सुडौल हों। सन 1926 में सर गंगाराम के सहयोग से उन्होंने लाहौर में विधवाओं के लिए भी पाठशाला खुलवाई। जब उनकी अपनी बेटी पार्वती देवी के पति का 1907 में स्वर्गवास हो गया तो उन्होंने उसे भी आत्मनिर्भर और राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय होने की प्रेरणा दी।
वह स्त्रियों के सशक्तीकरण के पक्षधर थे। उनके अनुसार भारत में उनकी दयनीय स्थिति का अन्य कारण उनकी आर्थिक निर्भरता थी। इसके लिए शिक्षा के साथ-साथ वह उनकी सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के पक्षधर थे। वह पुरु ष व स्त्रियों के समान अधिकारों व अवसर के कट्टर समर्थक थे। उनके अनुसार यह दोनों आपस में सहयोगी होने चाहिए न कि उनमें निर्भरता, दासता या तुच्छ होने की भावना हो। उन्होंने स्त्रियों को संबोधित करते हुए उन्हे हीन भावना का त्याग करते हुए प्रगतिशील, तर्कशील होकर समाज के सभी जीवन में अग्रसर होने का आहवान किया। समान योग्यताओं वाली किसी भी स्त्री के लिए वह सभी अवसर एवं अधिकार प्राप्त हों जो किसी भी पुरु ष के लिए उपलब्ध हैं। लाला जी एक व्यावहारिक व्यक्ति थी। वह केवल कथनी नहीं अपितु करनी में अधिक विश्वास रखते थे। हरियाणा आज महिलाओं की सर्वपक्षीय विकास, सशक्तीकरण के परिणाम स्वरूप निश्चित रूप से लाला जी के सपनों को साकार करने की दिशा में अग्रसर है। यही उस महान आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धांजली है। नमन।
(कुलपति डॉ. बी.आर. अंबेडकर राष्ट्रीय विधि विवि, सोनीपत)

विनय कपूर मेहरा


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