कांग्रेस : ऐतिहासिक पहल और कुछ सवाल

Last Updated 19 Jan 2022 04:09:28 AM IST

देश में पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। नागरिकों के सामने बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, महामारी के चलते परेशानियां, धार्मिंक ध्रुवीकरण जैसी कई चुनौतियां मौजूद हैं।


कांग्रेस : ऐतिहासिक पहल और कुछ सवाल

फिर उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में महिला सुरक्षा और महिला के खिलाफ हिंसा भी बड़ा मुद्दा है। आम तौर पे जरूरी नहीं कि पार्टियों के चुनाव घोषणा-पत्रों में नागरिकों की सभी समस्याओं को स्थान मिले। दुखद है कि इंटरनेट युग में भी ज्यादातर राजनीतिक पार्टयिां जाति-धर्म की राजनीति में जुटी हैं। ऐसे में प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की उप्र के चुनाव में 40% महिला उम्मीदवार की घोषणा से सनसनी मच गई है। इस कदम से वाकई सामाजिक बदलाव आएगा या नहीं, यह तो वक्त बताएगा। लेकिन दो राय नहीं हो सकतीं कि अपने आप में यह सराहनीय कदम है।

देश में आजादी के 75 सालों के बाद भी स्त्री नागरिक स्वतंत्र नहीं हैं। न ही सुरक्षित एवं संपन्न हैं। आज भी भारत की बेटियां परिवार, रीति-रिवाज, मजहब एवं समाज द्वारा लागू अनेक बेड़ियों में जकड़ी हैं। जाहिर है कि पितृसत्ताक व्यवस्था में स्त्री को राजनीति या सार्वजनिक जीवन में समान स्थान मिलना मुश्किल है। वैसे भी पिछले कुछ दशकों से हमारा राजनीतिक क्षेत्र अति अनैतिक, भ्रष्ट, संकुचित, हिंसक और पितृसत्ताक दलदल हो के रह गया है।किसी भी भले मानुस के लिए जगह नहीं बची है। ऐसे में किसी भी साधारण महिला का इसमें प्रवेश कर पाना और सफलता से काम कर पाना बहुत ही दूभर हो चला है।

दूसरी तरफ, संसद में महिला आरक्षण कानून का प्रस्ताव 30 से अधिक वर्षो से धूल खा रहा है। सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए शर्म से डूब मरने वाली बात है कि वे महिला आरक्षण कानून पर आम राय बनाने में विफल रही है! हकीकत तो यह है कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में महिला की मौजूदगी इनके लिए महत्त्व नहीं रखती। सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता-मुखिया महिला के समर्थन में फर्जी बयान देते रहते हैं, लेकिन ठोस कदम उठाने से हमेशा कतराते हैं। असल में तो इन्हें महिला शक्ति और महिला निष्ठा से ही डर लगता है! अंग्रेजों के खिलाफ स्वातंत्र्य संग्राम में भारत की आम महिलाओं ने आगे बढ़कर काम किया था, कुरबानियां दी थीं। हाल में भी न्याय और समानता की लड़ाई में देश की महिला नागरिक सक्रिय हैं। शायद यही वजह है कि पुरु षवादी मानसिकता के राजनेता महिला के राजनीति में प्रवेश से घबराते हैं। महिला आरक्षण कानून का प्रस्ताव यूं ही तो अरसे से ठंडे बस्ते में नहीं पड़ा होगा! उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी की पहल कितना रंग लाती है, देखना होगा। क्या इससे प्रेरित होकर भाजपा, सपा आदि पार्टियां भी महिला उम्मीदवारों को प्राथमिकता देंगी? पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड में खुद कांग्रेस पार्टी महिला उम्मीदवार को प्राथमिकता देगी?

मेरी राय में इसका जवाब स्पष्ट और सरल हां में होना चाहिए। लेकिन राजनीतिक दांव-पेच और हिसाब-किताब इस सरल और सहज मुद्दे को असंभव और पेचीदा बना के रख देते हैं। यही वजह है कि आधी आबादी इस क्षेत्र में प्रवेश से वंचित रह जाती है। देश में एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक पुरुष प्रधानता बरकरार रहती है। सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों का कम दिखना या गायब होना सिर्फ  भारत की ही नहीं, बल्कि समग्र दक्षिणी एशिया की कड़वी हकीकत है। गौरतलब है कि भारत में इंदिरा गांधी, पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो, श्रीलंका में सिरिमाओ भंडारनायके, बांग्लादेश में शेख हसीना जैसी प्रखर महिला नेता प्रधानमंत्री के पद पर रही हैं, लेकिन इन्हीं देशों में मानवीय विकास और मानवीय गरिमा के मापदंड पर महिला हमेशा से पीछे हैं। करीब-करीब इन सारे देशों की राजनीति और सार्वजनिक जीवन में पुरु ष प्रधानता और रूढ़िवादी कटुता का बोलबाला है। ऐसी ऐतिहासिक राजनैतिक स्त्री प्रतिभाएं भी पुरु ष प्रधानता को ध्वंस नहीं कर पाई। जब ज्यादातर विश्व में भी राजनीतिक व्यवस्था की करीब-करीब यही कहानी है, तो ऐसे में गरीबी और पिछड़ेपन के शिकार दक्षिणी एशिया के देशों को क्या दोष दिया जाए! अमेरिका जैसे विकसित लोकतांत्रिक देश में महिला उपराष्ट्रपति का चयन अब जाकर हो पाया है।

भारतीय एवं अफ्रीकी मूल की कमला हैरिस के बारे में हम सब जानते है। यहां दक्षिण गोलार्ध के न्यूजीलैंड देश एवं उत्तर के स्कैंडिनेविया प्रदेश का विशेष उल्लेख जरूरी है। न्यूजीलैंड और फिनलैंड, दोनों देशों में युवा महिला प्रधानमंत्री हैं। इन दोनों देशों में 50% से अधिक राजनेता भी महिला हैं। स्वीडन, डेनमार्क, नीदरलैंड में भी यही खुशहाल स्थिति है। दुनिया के बाकी देशों को इनसे सीख लेनी चाहिए। हमारे देश में स्थानिक स्तर पे ग्राम पंचायत में महिला आरक्षण कानून लागू है। अनेक महिला सरपंच अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाती आई हैं। हालांकि कुछ पंचायतों में महिला सरपंच के पति द्वारा कभी-कभी गैर-रीति के मामले सामने आते जरूर हैं, लेकिन अपवाद मात्र हैं। इन्हें उदाहरण बनाकर महिला आरक्षण का मजाक उड़ाना बेमनदारी होगी। फिर यहां भी गड़बड़ तो पुरु ष द्वारा ही हो रही है।

भारत का संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है। इसके बावजूद हमारे यहां स्त्रियों पे पाबंदियां लगाई जाती है। हालांकि देश में कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां स्त्री ने आगे कदम न किए हों। इसके बावजूद शायद 5% स्त्रियों को छोड़कर अन्य सभी स्त्रियां शिक्षा एवं प्रगति के अवसर से वंचित रह जाती हैं। ज्यादातर स्त्रियों को अपनी मानवीय क्षमता पूर्ण रूप से हासिल करना स्वप्न मात्र रहता है। इंदिरा गांधी के अलावा भारत की राजनीति में नंदिनी सत्पथी, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज जैसी सफल स्त्री हस्तियां रही हैं, लेकिन हमारी राजनीति मूलभूत रूप से पुरुष प्रधान ही रही हैं। राजनीति में हमेशा से पुरुषों का वर्चस्व रहा है।

कटुता एवं हिंसा राजनीति के अटूट एवं अभिन्न आधार रहे हैं। पिछले दशक में भारतीय स्त्री ने भारतीय लोकतंत्र के जिंदा होने का भरपूर सबूत दिया है। 2012 में निर्भया मामले में छात्राओं की अगुवाई में देश भर में स्त्री सुरक्षा एवं समानता का आंदोलन हुआ। इसके बाद स्त्रियों ने जुबानी तीन तलाक के खिलाफ मुहिम छेड़ी। किसान आंदोलन में भी स्त्रियों ने अहम भूमिका निभाई। कहा जा सकता है कि भारतीय स्त्रियों में न्याय और समानता के प्रति जागृति की लहर चल रही है। स्त्रियों में घर से लेकर समाज एवं देश चलाने तक की पूरी क्षमता है। सवाल है कि पुरु षवादी राजनीतिक व्यवस्था में स्त्रियों को मौका मिलेगा या नहीं? इस परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी की पहल प्रगतिशील ऐतिहासिक कदम है।

जकिया सोमन


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