यमुना प्रदूषण : गंभीर होता जा रहा मसला
हाल ही में यमुना की बदहाली और जहरीली झाग की खबरों के बावजूद हमारा विचलित न होना इस बात का परिचायक है कि हम कितने असंवेदनशील होते जा रहे हैं।
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आज यमुना इतनी अधिक प्रदूषित हो चुकी होती है कि दिल्ली, मथुरा और आगरा में इसे दुख की नदी कहा जाने लगा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार यमुना नदी के प्रदूषण ने नदी को किसी भी उपयोग के लिए अनुपयुक्त बना दिया है। यमुना बेसिन में तेजी से बढ़ते शहरीकरण, औद्योगीकरण और कृषि विकास के साथ-साथ यमुना भी उतनी ही अधिक प्रदूषित होती जा रही है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार सोनीपत, पानीपत, दिल्ली, फरीदाबाद, मथुरा और आगरा में स्थित 359 औद्योगिक इकाइयों द्वारा भारी मात्रा में यमुना में अपशिष्ट बहाया जाता है। अपशिष्ट पदार्थों की डंपिंग, फूल, मूर्तियों का विर्सजन, कपड़े धोना, मवेशियों के स्नान जैसे उत्सर्जन स्रोत प्रदूषण के स्तर को बढ़ा रहे हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुसार यमुना नदी का लगभग 75 से 80 प्रतिशत प्रदूषण कच्चे सीवेज, औद्योगिक अपवाह और नदी में फेंके गए कचरे का परिणाम है। इसमें प्रति दिन 3 बिलियन लीटर से अधिक कचरा प्रवाहित हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार केवल दिल्ली में ही लगभग चार लाख से ज्यादा लोग यमुना नदी के किनारे बनी झुग्गियों में रहते हैं, जिसका सीवेज सीधे तौर पर यमुना में गिरता है।
कभी दिल्ली, मथुरा और आगरा की जीवन रेखा मानी जाने वाली यमुना नदी आज भारत की प्रदूषित नदियों में प्रमुख नदी है। केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड, केंद्रीय जल आयोग, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड आदि द्वारा नियमित रूप से यमुना की निगरानी करने के बावजूद यमुना नदी में अमोनिया सांद्रता का स्तर 6 गुना से अधिक बढ़ गया था। पर्यावरणविद् भीम रावत का मानना है कि औद्योगिक इकाइयों से जहरीले पदार्थों का उत्सर्जन तो साल भर होता है, लेकिन यमुना के प्रवाह के बाधित हो जाने के कारण हर साल अक्टूबर से जनवरी के बीच यमुना में अमोनिया की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ जाती है। यमुना में डिटज्रेट सहित औद्योगिक प्रदूषकों के निर्वहन के कारण अमोनिया के स्तर में वृद्धि और उच्च फॉस्फेट सामग्री के कारण खतरनाक झाग पैदा होता है।
उल्लेखनीय है कि अमोनिया का स्वीकार्य स्तर 0.5 मिलीग्राम प्रति लीटर होना चाहिए जो पिछले दिनों बढ़कर तीन मिलीग्राम प्रति लीटर तक पहुंच गई थी। एक मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक होने पर जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम होने से यह पानी मछलियों के लिए विषैला हो जाता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है विभिन्न शहरों में स्थापित उपलब्ध जल उपचार सुविधाएं इतनी सक्षम नहीं हैं कि पानी के कीटनाशकों को पूरी तरह से समाप्त कर सके।
वाटर वर्क्स प्रयोगशालाएं भी पानी में निहित प्रदूषकों का पता लगाने में सक्षम नहीं है। दिल्ली, मथुरा और आगरा में लोग अज्ञात मात्रा में जहरीले कीटनाशक अवशेषों का सेवन करते हैं। अमोनिया के स्तर वाले पानी का लंबे समय तक प्रयोग करने से एलर्जी, कैंसर और पेट की बीमारियां होने लगती हैं। यमुना एक्शन प्लान के अंतर्गत अरबों रुपये व्यय होने के बावजूद यमुना की स्थिति में परिवर्तन नहीं होना स्पष्ट करता है कि इस दिशा में कड़े कदम उठाए जाने की तत्काल आवश्यकता है। इसके लिए हानिकारक कचरे को नदी में फेंकने को गैर-कानूनी घोषित करना होगा। सीवेज का पानी बिना अनुपचारित किए हुए सीधे नदियों में प्रवाहित न हो, इसके लिए पंचायतों, नगर पालिकाओं एवं नगर निगमों को जिम्मेदार बनाना होगा जो अपशिष्ट जल के उचित प्रबंधन एवं उपचार के लिए प्रौद्योगिकियों को ही बढ़ावा न दें, बल्कि ड्रेनेज जल प्रबंधन एवं उपचार भी करें।
इसके लिए वित्त पोषण की व्यवस्था के लिए सरकार के साथ-साथ उद्योगों को भी जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। सीवेज प्रौद्योगिकी को सरल एवं सस्ता बनाने के लिए अनुसंधान एवं शोध को प्रोत्साहन दिए जाने की आवश्यकता है, जिससे न सिर्फ इसमें प्रयुक्त तकनीकी को भी अपग्रेड किया जा सके, बल्कि नये सीवेज उपचार संयंत्रों की लागत को कम करके इनकी संख्या में भी वृद्धि की जा सके। शहर की स्वच्छता की रैंकिंग के मानकों में नदी की स्वच्छता के मानक को भी शामिल किया जाना चाहिए। नेशनल ग्रीन टिब्यूनल के कानूनी अधिकारों को और अधिक मजबूत बनाने की आवश्यकता है।
लोगों का नदियों के साथ भावनात्मक रिश्ता होता है। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी संस्कार नदियों के साथ ही जुड़े हुए हैं। इसलिए यह समस्या किसी एक सरकार या राज्य की नहीं है, बल्कि सभी सरकारों को मिलकर जनता की सहभागिता के साथ जन आंदोलन प्रारंभ करना होगा। युवाओं को इससे जोड़ने के लिए वैज्ञानिक दृष्टि एवं आस्था, दोनों का समावेश करना होगा। महिलाओं को सामाजिक जागरूकता का हिस्सा बनाना होगा। शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल करके आने वाली पीढ़ी को नदियों के प्रति संवेदनशील बनाने की पहल करनी होगी। इस दिशा में अटल इरादे, प्रशासनिक नेकनीयती और सामाजिक जागरूकता से ही इस समस्या को सुलझाया जा सकता है।
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