शराबबंदी : सिर्फ कानून काफी नहीं

Last Updated 20 Jan 2022 04:39:50 AM IST

बिहार में शराबबंदी कानून राज्य सरकार के गले की अटकी हड्डी बनता जा रहा है। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई।


शराबबंदी : सिर्फ कानून काफी नहीं

मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण सहित तीन जजों की खंडपीठ ने कहा कि बिहार उत्पाद एवं मद्यपान निषेध अधिनियम, 2016 को तार्किक तरीके से नहीं बनाया गया है, और इसका परिणाम है कि बिहार की अदालतों में लंबित मामलों की बाढ़ सी आ गई है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी बेवजह नहीं है। टिप्पणी का आधार पटना हाई कोर्ट द्वारा लगाई गई गुहार है।
दरअसल, बिहार में शराबबंदी कानून के तहत हो रही लगातार कार्रवाई के बाद गिरफ्तारी और अभियुक्तों द्वारा जमानत की अर्जी आदि के निबटारे की प्रक्रिया ने न्यायालयों के कामकाज को बाधित किया है। हाई कोर्ट द्वारा सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी गई है कि करीब 25 फीसदी नियमित जमानत याचिका केवल शराबबंदी से जुड़ी हैं। सर्वोच्च न्यायालय को जो जानकारी दी गई है, उसके अनुसार 39 हजार 622 जमानत के लिए आवेदन पड़े हैं, उनमें 21 हजार 671 अग्रिम और 17 हजार 951 नियमित जमानत याचिकाएं हैं। बीस हजार 498 अग्रिम और 15 हजार 918 नियमित जमानत याचिकाओं साहित 36 हजार 416 ताजा जमानत आवेदनों पर विचार किया जाना बाकी है। पटना हाई कोर्ट ने यह भी जानकारी दी कि जजों के स्वीकृत पदों के आधे से भी कम के साथ फिलहाल काम करना पड़ रहा है, इसलिए याचिकाओं के निपटारे में भी विलंब हो रहा है।

सुप्रीम कोर्ट की फटकार को अलग भी रखें तो बिहार में शराबबंदी को लेकर सियासी बयानबाजियां भी चल रही हैं। सत्तासीन एनडीए गठबंधन में भी विरोध के स्वर हैं। हिंदुस्तान अवाम मोर्चा के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी शराबबंदी कानून की आलोचना कर चुके हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में जहरीली शराब के कारण 11 लोगों की मौत के बाद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ. संजय जायसवाल ने कहा, ‘अपराधी वहां के पुलिस वाले भी हैं, जिन्होंने अपने इलाके में शराब की खुलेआम बिक्री होने दी। दस वर्ष का कारावास इन पुलिसकर्मिंयों को होना चाहिए, न कि इन्हें दो महीने के लिए सस्पेंड करके नया थाना देना, जहां वे यह सब काम चालू रख सकें। अपराधी शराब माफिया भी है, जो शराब की बिक्री विभिन्न स्थानों पर करवाता है। इन्हीं पुलिसकर्मिंयों से पुलिसिया ढंग से पूछताछ की जाए तो उस माफिया का नाम भी सामने आ जाएगा। शराब बेचने वाले और पीने वाले, दोनों को सजा अवश्य होनी चाहिए परंतु यह उस हाइड्रा की बाहें हैं, जिन्हें आप रोज काटेंगे तो रोज उग जाएंगे। जड़ से खत्म करना है, तो प्रशासन, पुलिस और माफिया की तिकड़ी को समाप्त करना होगा।’
दरअसल, डॉ. जायसवाल की टिप्पणी में राजनीतिक तत्व भी हैं लेकिन वे बड़ा सवाल खड़ा करते हैं। सवाल शराबबंदी कानून के क्रियान्वयन का है। चूंकि प्रदेश में गृह विभाग की जवाबदेही स्वयं मुख्यमंत्री के पास है तो इसका सीधा संबंध उनसे भी है। अब इस राजनीतिक सवाल को छोड़ भी दें कि बिहार एनडीए के घटक दलों के बीच रिश्ते दरकने लगे हैं, तो भी इसके अन्य पहलुओं पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। कहने की आवश्यकता नहीं कि बिहार देश के पिछड़े राज्यों में भी सबसे पिछड़ा है। इसकी आधिकारिक पुष्टि वर्ष 2021 में तब हुई जब सीएमआईई यानी सेंटर फॉर मॉनिटिरंग इंडियन इकोनॉमी की रपट सामने आई। रपट में कहा गया कि बेरोजगारी दर के मामले में बिहार में सबसे अधिक उछाल आया है, और अब यह 46 फीसदी है। यह एक आंकड़ा है, जहां से बिहार में शराबबंदी कानून के बाद वहां फल-फूल रहे शराब के अवैध कारोबार का आकलन किया जा सकता है। कोविड के कारण बेरोजगारी के आंकड़ों में कोई फर्क आया हो, ऐसी कोई नई रपट सामने नहीं आई है।
शराबबंदी कानून का सामाजिक पक्ष भी राज्य सरकार लोगों के सामने लाने में अब तक विफल रही है। वर्ष 2016 में जब इसे बनाया गया था तब सरकार ने निर्णय लिया था कि प्रखंड स्तर पर नशा मुक्ति केंद्र खोलेगी। पायलट प्रोजेक्ट के तहत पटना और नालंदा के एक-एक प्रखंड में खोले भी गए लेकिन बाद में वे यह कहकर बंद कर दिए गए कि लोगों ने शराबबंदी कानून को स्वीकार कर लिया है, और शराब की लत खुद-ब-खुद छोड़ रहे हैं। इस कानून के प्रभाव के आकलन के लिए पटना स्थित एशियन डवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा एक सर्वे भी कराया गया जिसमें सरकारी दावों को सही बताया गया। परंतु हकीकत वह नहीं है, जिसका दावा राज्य सरकार कर रही है। दरअसल, इस कानून के दो पक्ष हैं, और दोनों एक-दूसरे के विपरीत। कानून में शराब पीने और बेचने आदि को लेकर जो सजा का प्रावधान है, उसे इतना सख्त बना दिया गया है कि इसके शिकंजे में आए लोगों को आसानी से मुक्ति नहीं मिलती। कोर्ट-कचहरी के चक्कर में उन्हें अपना सब कुछ बेचना पड़ रहा है तो दूसरी ओर प्रशासन और माफियाओं का नेक्सस है, जो चांदी काट रहा है।
मूल बात यह है कि बिहार सरकार के पास विकल्प क्या हैं। फौरी तौर पर देखा जाए तो अब केवल दो ही विकल्प हैं। एक, सही मायनों में शराबबंदी कानून लागू हो ताकि आए दिन जहरीली शराब के कारण होने वाली मौत की घटनाओं पर रोक लगे; और दूसरा, इस कानून की समीक्षा की जाए और तद्नुसार सरकार अपनी नीति में बदलाव लाए। उसे समझना चाहिए शराबबंदी जैसे कानून तभी सफल होंगे जब समाज का चारित्रिक विकास होगा और यह तो तभी होगा जब लोगों के पास रोजगार होगा, शिक्षा होगी और चिकित्सा सुविधा भी।
(लेखक फार्वड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं)

नवल किशोर कुमार


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