दलित मतदाता : ये चुप्पी क्या कहती है?
उत्तर प्रदेश चुनाव में आजकल सबसे अधिक चर्चा है पिछड़े वर्ग के वोटों की सपा के पक्ष में तथाकथित गोलबंदी की।
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सपा के नये गठबंधन समीकरण, स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान जैसे मंत्रियों का भाजपा छोड़कर सपा की सदस्यता लेना, शिवपाल यादव की पार्टी से समझौता और ओमप्रकाश राजभर के सपा गठबंधन में शामिल होने जैसे सियासी घटनाचक्रों ने इस प्रकार की चर्चाओं को बल दिया है। हालांकि इसके और भी पहलू हैं, जो धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षो में राजनीतिक दलों के प्रदर्शन का आकलन करें तो पाते हैं कि 2014 के बाद से भाजपा ने अपने आधार वोट पर पकड़ कायम रखते हुए गैर यादव पिछड़ों, दलितों और दूसरे सभी वर्गों तक अपनी पहुंच लगातार बढ़ाई है। यही कारण है कि उसका प्रदर्शन लगातार बेहतर होता गया और किसी भी चुनाव में उसे मिले मतों का प्रतिशत 40 से कम नहीं रहा। हाल के सभी सर्वेक्षण भी ऐसा ही संकेत दे रहे हैं कि किसी भी सूरत में भाजपा का वोट प्रतिशत 40 से कम नहीं होगा। इसी तरह अपने बुरे से बुरे दौर में भी बसपा का मत प्रतिशत 20 के आसपास बना रहा है। 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। पिछले तीन दशकों में यह उनका सबसे बुरा प्रदर्शन था।
सपा को केवल 47 सीटें मिल सकीं, जो उसकी स्थापना के बाद से मिली सबसे कम सीटें थीं। बसपा को 2017 में केवल 19 सीटें ही मिल पाई जो 1993 के बाद से सबसे कम थीं। हालांकि बसपा का वोट प्रतिशत तब भी लगभग 22 प्रतिशत बना रहा। दरअसल, राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी के उभार और भाजपा के जनाधार में विस्तार से बसपा को जबर्दस्त नुकसान पहुंचा। दलितों और पिछड़ों में भाजपा की बढ़ती पैठ से जातिवादी दलों के समीकरण बिगड़ने लगे, 2014 के लोक सभा चुनाव में तो बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया था, लेकिन बसपा के लिए संतोष की बात यह थी कि उसके दलित मतदाताओं का कमोबेश उस पर भरोसा बना रहा। इस बार के उत्तर प्रदेश चुनाव में भी यही वह पहलू है, जो परिणाम को दिशा देने वाला होगा। बसपा को मालूम है कि उसके वोट बैंक में भाजपा ने अच्छी खासी सेंध लगा दी है, लेकिन मायावती इस बात को भी भलीभांति समझती है कि उसकी असली लड़ाई सपा से है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा का मुख्य प्रतिपक्ष वह बने, इस चुनाव में यही उसकी प्राथमिकता है। भाजपा के विरोध पर टिके मुस्लिम मतदाताओं का रु झान भी इसी से तय होगा। बसपा को समर्थन देने वाले मतदाताओं की भी यही चिंता है, उसे मालूम है कि सियासी जमीन पर उसकी असली लड़ाई सपा से ही है। ऐसे में बसपा जिन क्षेत्रों में पिछड़ती हुई दिखेगी; वहां दलित मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भाजपा के साथ जाना श्रेयस्कर समझेगा और जहां वाकई बसपा मजबूत दिखेगी वहां सपा का मुस्लिम वोट भी बसपा की तरफ मुड़ जाएगा। हालांकि इस बार बसपा काफी कम सीटों पर सीधी टक्कर देने की स्थिति में होगी, लेकिन उसके 20-22 प्रतिशत आधार वोटों को नजरअंदाज करके सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता है।
भाजपा भी इसको लेकर चौकन्ना है, उसका मायावती पर हमलावर न होना इसी ओर इशारा करता है। वह मायावती को लक्ष्य कर अनावश्यक रूप से दलितों के मन में अपने प्रति दुर्भावना पैदा करने के स्थान पर दलितों के दिल में अपने लिये सॉफ्ट कॉर्नर बनाए रख तथा सपा के प्रति उसके गुस्से को कायम रख कर अंतिम समय में अनेक विधानसभा क्षेत्रों में सपा के विरोध में उसे अपने पक्ष में करना चाहती है।
राजनीति पर नजर रखने वालों को यह भी ध्यान में होगा कि 2019 के लोक सभा चुनाव में मायावती से गठबंधन कर चुनाव लड़ने की स्थिति में भी बसपा के दलित वोट सपा के पक्ष में ट्रांसफर नहीं हो पाए थे। सभी ने बसपा के दस बारह प्रतिशत वोटों तक सिमटने की भविष्यवाणी की है। यदि ऐसा होता है तो बसपा का घटता हुआ जनाधार भाजपा के पक्ष में जाएगा इसमें कोई शक नहीं है। और अगर वह अपने 20-22 प्रतिबद्ध मतदाताओं को अपने साथ कायम रखने में कामयाब रही तो फिर सपा को जैसी उछाल दिखाई और बताई जा रही है उसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।
आशय स्पष्ट है कि अगर बसपा कमजोर होती है तो उसके मतदाता भाजपा की ओर रुख करेंगे और यदि मजबूत होती है तो विपक्षी वोटों का बिखराव होगा और चुनाव त्रिकोणीय हो जाएगा, जिसका सीधा फायदा भाजपा को ही मिलेगा। अभी तक की जो स्थिति है उसके मुताबिक सपा किसी भी हाल में उस तरह के प्रदर्शन की स्थिति में नहीं है जैसा बताया जा रहा है।
ऐसा कहने के पीछे वास्तविक तथ्य कम और उत्साह अधिक दिखता है। इस चुनावी परिदृश्य में दलित मतदाताओं की चुप्पी के खास मायने हैं, इससे भी कुछ इसी तरह के संकेत मिलते हैं। वैसे दलित मतदाता हमेशा से मौन ही रहते हैं। दलित वोटों के गुणा-भाग का आकलन किए बिना और सभी वर्गों में भाजपा की बढ़ती पैठ की समझ की कमी के कारण ही कुछ राजनीतिक विश्लेषक इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं। जमीनी हकीकत निश्चय ही इससे अलग है।
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