सामयिक : आस्था, भगदड़ और भीड़ का अर्थशास्त्र
देश में आस्था के नाम पर ज्यादा से ज्यादा मानव समूह को आकर्षित करने की होड़ सी लग जाती है।
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इस भीड़ के साथ अर्थशास्त्र भी जुड़ा होता है। भीड़ के पैमाने के साथ अपने आराध्य या धर्मस्थल की प्रतिष्ठा को भी प्रतिस्पर्धा में ला कर खड़ा कर दिया जाता है। सामान्यत: आयोजकों का उद्देश्य भीड़ जुटाने तक सीमित होता है, और वे भीड़ की सुरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं भीड़ पर या सरकार पर छोड़ देते हैं। उदाहरण हमारे सामने है नव वर्ष 2022 के आगमन की बेला पर वैष्णो देवी की भगदड़।
धार्मिक भीड़ में आस्था तो होती है, लेकिन भीड़ चाहे कोई भी हो, उसका कोई चरित्र नहीं होता। इसलिए भीड़ को उसकी मर्जी पर छोड़ने के बजाय उसे नियंत्रित करना होता है। भीड़ के प्रबंधन की व्यवस्था न हो तो वह प्रतिबंधित क्षेत्र में भी घुस सकती है। भीड़ में धक्का-मुक्की और मामूली कहासुनी भी खतरनाक होती है, जैसा वैष्णो देवी में हुआ। कई बार आपदा के चलते डर की स्थिति बन जाती है, और अफवाह की वजह से लोग डर के मारे भागने लगते हैं। लेकिन इन सभी खतरों से बेखबर आयोजक भीड़ का आनंद लेते रहते हैं। जिस आयोजन में जितनी अधिक भीड़ जुटती है, उसका महत्त्व उतना ही बढ़ जाता है। इसलिए भीड़ का आकार धर्मस्थल के प्रचार के काम भी आता है। गत वर्ष उत्तराखंड सरकार ने हरिद्वार महाकुंभ में 32 लाख श्रद्धालुओं के आने का दावा किया। कोरोना महामारी के साये के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में भीड़ जुटाने को सरकार ने अपनी उपलब्धि बताया। 2010 के हरिद्वार कुंभ के दौरान 3 महीनों में 9 करोड़ लोगों के जुटने का दावा किया गया था। उत्तराखंड सरकार इतना बड़ा दावा करती है, तो फिर प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में महाकुंभों के आयोजकों के सामने भी इतनी ही भीड़ जुटाने की चुनौती खड़ी हो जाती है। कभी-कभी इसे प्रतिष्ठा का विषय मान कर भीड़ के आंकड़े बढ़ा-चढ़ा कर भी पेश किए जाते हैं।
महाकुंभ तो महाकुंभ ही है, जो देश ही नहीं, बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिंक महाजमावड़ा होता है। लेकिन भीड़ जुटाने में क्षेत्रीय देवी-देवताओं के धर्मस्थलों में भी प्रतिपस्पर्धा शुरू हो जाती है। जिस देवी या देवता के मंदिर में जितनी अधिक भीड़ जुटेगी उसकी उतनी ही अधिक मान्यता मानी जाएगी। जाहिर है कि जितनी अधिक भीड़ जुटेगी उतना ही चढ़ावा भी आएगा। लेकिन इन मठ-मंदिरों या धार्मिंक मेलों के आयोजक भीड़ की सुरक्षा व्यवस्था को भी भगवान या देवी-देवताओं के भरोसे छोड़ देते हैं। महाकुंभों में तो भगदड़ का लंबा इतिहास है। हरिद्वार में 1819 के कुंभ में भगदड़ में 430 लोग मारे गए थे। 1954 के इलाहाबाद महाकुंभ के दौरान भगदड़ में लगभग 1000 लोग मारे गए। नासिक के कुंभ में 2003 में भगदड़ में 40 लोग मारे गए थे। हरिद्वार में 1986 के कुंभ में भगदड़ में 50 से अधिक लोग मारे गए। कुंभ ही नहीं देश में अन्य धार्मिंक आयोजनों के समय भगदड़ की घटनाएं अक्सर होती रही हैं। नवरात्रि पर 30 सितम्बर, 2008 में जोधपुर राजस्थान के चौमुंडा देवी मंदिर में भगदड़ में 147 के मारे गए थे। इस सदी की सबसे भयावह भगदड़ 2005 में सतारा महाराष्ट्र की मनार देवी मेले में हुई थी जिसमें लगभग 300 लोग कुचल कर मारे गए थे। 3 अगस्त, 2008 को हिमाचल के नैनादेवी मंदिर में भगदड़ में 162 लोग कुचलकर मारे गए थे। यहीं पर 1978 में भगदड़ में 65 श्रद्धालु मारे गए थे।
भगदड़ की घटनाओं पर गौर करें तो ज्यादातर त्रासदियों के लिए अफवाह जिम्मेदार रहीं। नैनादेवी में वष्रा से बचने का आश्रय ढहा था और अफवाह भूस्खलन की फैल गई। मीडिया जिस तरह खबरों को सनसनीखेज तरीके से पेश करता है, उससे अफवाहों का बाजार गरमाना लाजिम है। खासकर जब मानव मुंडों का महासमुद्र एकत्र हो तो कहीं भी और किसी भी कोने से अफवाह आसानी से उड़ाई जा सकती है। तब आतंकवादियों को भी हथियार लेकर आने की जरूरत नहीं है। छोटी सी वारदात कर तालाब में कंकड़ फेंकने की तरह हलचल पैदा की जा सकती है। ऐसी स्थिति में भीड़ प्रबंधन की जरूरत होती है। महाकुंभ जैसे आयोजनों में भीड़ का एक स्थान पर दबाव बढ़ने नहीं दिया जाता। भीड़ को डायवर्ट भी किया जाता है। लेकिन भीड़ नियंत्रित करने वाले तंत्र में संयम जरूरी है। अगर भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस ने बल का प्रयोग कर दिया तो भगदड़ की स्थिति पैदा हो जाती है। हरिद्वार में 1986 में सोमवती अमावस्या पर मनसा देवी भगदड़ में भी भीड़ का दबाव रोकने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया तो भगदड़ मच गई। 21 लोग मारे गए।
समय के साथ ही परिस्थितियों के बदलने से इतनी अधिक भीड़ों को नियंत्रित करना और जन सुरक्षा सुनिश्चित करना भी चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। इसलिए भीड़ के आर्थिक पक्ष के बजाय प्रबंधन और सुरक्षा के पक्ष पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है। श्रद्धालुओं से आर्थिक लाभ उठाने वालों को सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उठानी चाहिए। प्रबंधन समितियां जिम्मेदारी का निर्वहन करने में सक्षम न हों तो सरकार को मूक दर्शक नहीं रहना चाहिए। जैसा कि वैष्णो देवी हादसे के बाद राज्य सरकार मौन बैठ गई है।
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