मीडिया : पुरुषवादी मानसिकता और मीडिया
कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस के एक सीनियर एमएलए ने अंग्रेजी की एक कहावत का सहारा लेकर मर्दानगीभरा हास्य पैदा किया।
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कहा कि एक कहावत के अनुसार ‘अगर रेप अवश्यंभावी हो तो लेट जाएं और एंजाय करें। ऐसा कहते एमलए साहब तो ठठा कर हंसे ही बाकी सब मर्द भी हंसने लगे। स्पीकर साहब भी देर तक हंसते दिखे। अपने चैनलों ने इसे तुरंत लपका और ऐसे कथन और दृश्य में ठहाके लगाते उस लफंगपने को एक सुर से लताड़ना शुरू कर दिया। सब एक आवाज में मांग करने लगे कि ऐसे एमएलए को एमएलए रहने का हक नहीं। कांग्रेस उसको बर्खास्त करे।
ऐसी ही बातें बहसों में उठीं लेकिन वे दलगत बहसों के ‘दलदल’ में फंसी रह गई। भाजपा के प्रवक्ता कांग्रेस को लज्जित करने लगे और एमएलए का इस्तीफा मांगने लगे। जबाव में कांग्रेसी प्रवक्ता औपाचारिक ‘अफसोस’ जताने के बाद भाजपा के नेताओं के ऐसे ही कथनों को गिनाने लगे और उन सबके इस्तीफे मांगने लगे। कांग्रेसी प्रवक्ताओं ने कहना शुरू कर दिया कि स्पीकर भाजपा वाले हैं, वो भी तो ठठा कर हंस रहे थे। उनका भी इस्तीफा लिया जाना चाहिए। फिर वही हुआ जो चैनलों की बहसों में आए दिन होता रहता है कि जब भाजपा वाले कांग्रेस को लज्ज्ति करते तो कांगेसी भी भाजपा नेताओं के उनके सेक्सिस्ट कुबोलों को यादा करा के भाजपा को लज्जित करते रहते हैं।
अंतत: ऐसी हर बहस ‘बेशर्मी को ही आदर्श बना देती हैं। इस प्रकार की बहसों को ‘व्हाट अबाउटरी’ (‘व्हाट अबाउटयूवादी) बहस कहा जाता है। ‘व्हाट अबाउटरी’ को हिंदी में ‘तू कहे न मेरी मैं कहूं’ या ‘जैसा मैं वैसा तू’ कहा जा सकता है। अगर बीच में कोई र्थड पार्टी बोलती है, तो उसकी भी लंपटता का इतिहास सामने ला दिया जाता है। इस प्रसंग में सपा कूदी तो उसके नेताओं की लंपटई का इतिहास सामने ला दिया गया। ऐसी हर बहस में प्रवक्ता व नेता सब कैमरों के आगे निरी बेशर्मी ओढ़ लेते हैं, और खुद को जबावदेह मानने की जगह दूसरे को जबावदेह बनाने लगते हैं और एंकर, जिनका काम ऐसी बहसों को लाइन पर रखना होता है, इसी ‘तू कहे न मेरी मैं कहूं न तेरी’ को हिट शो की तरह बेचते रहते हैं। इस प्रसंग में भी यही होता दिखा।
इसी तरह शुक्रवार की शाम जैसे ही यह खबर चैनलों में ‘ब्रेक’ हुई कि ‘केंद्रीय कैबिनेट’ ने लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र अठारह से बढ़ाकर इक्कीस बरस करने का प्रस्ताव पारित किया है। वैसे ही एक दूसरे किस्म की मर्दवादी बेशर्मी प्रदर्शित की जाने लगी। सपा के वयोवृद्ध नेता शफीकुर्रहमान बर्क से जब एक चैनल रिपोर्टर ने पूछा तो उन्होंने कह दिया कि इस तरह की व्यवस्था से लड़कियां बिगड़ जाएंगी। ऐसे ही दूसरे नेता ने कहा कि इससे लड़कियां औलाद पैदा नहीं कर सकेंगी। सपा नेता अखिलेश ने बचाव करते हुए कहा कि बर्क साहब वयोवृद्ध नेता हैं। रिपोर्टर कोंच-कोंच कर पूछते रहते हैं जबकि सपा तो प्रगतिशील पार्टी है।
ये दो खबरें बताती हैं कि मीडिया ऐसी खबरों को जिस तरह से पेश करता है, उससे वह ऐसे सेक्सिस्ट दिमागों को एक हद तक एक्सपोज कर ‘शर्मिदा’ करने की जगह और भी बेशर्म होने का अवसर दे देता है। इससे ऐसी लंपटता एक ‘नई पापूलर कल्चर’ में बदल जाती है। एक बात अवश्य नई हुई है, और वह है मीडिया खासकर चैनलों में स्त्रीकर्मियों की बहुतायत। इस कारण चैनल उद्योग ‘स्त्रियोन्मुख’ अधिक नजर आता है। चैनलों में काम करने वाली एंकरों व रिपोर्टरों की मुखर उपस्थिति चैनलों के वातावरण को भी स्त्री का पक्षधर बनाती है। इसीलिए ऐसी हर ‘सेक्सिस्ट’ बदतमीजी इन चैनलों द्वारा निशाना बनाई जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि इस वजह से अपने चैनल किसी भी स्त्रीवादी संस्था से अधिक स्त्रीवादी होकर काम करते हैं। मीडिया के अंदर का वातावरण भी उनको बहुत कुछ सिखाता रहता है। स्त्री एंकरों से लेकर स्त्री रिपोर्टर तथा अन्य महिलाकर्मी सेक्सिस्ट और यौन द्वेषी (मिसोजिनिस्टक) मानसिकता से भरे वातावरण को दिन रात झेलती हैं और स्वभावत: स्त्रियोन्मख होती रहती हैं।
इस कारण मीडिया में स्त्री के प्रति हमदर्दी का वातावरण तो बनता है लेकिन वह पुल्लिंगी मानसिकता को बदलने की जगह उसे और बेशर्म भी बनाता चलता हैं क्योंकि उसमें शर्मिदा कर सुधरने की जगह कानूनी दंडात्मकता का आग्रह होता है। बहसें दंडात्मक न होकर मर्दवादी मानसिकता को शर्मिदा करने का वातावरण बनाएं तो शायद कुछ बेहतर नतीजे निकलें।
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