वैश्विकी : काबुल में मानवीय संकट
अफगानिस्तान में तालिबान कब्जे के चार महीने पूरे हो चुके हैं तथा देश के हालात बदतर होते जा रहे हैं।
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अमेरिकी सेनाओं के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद काबुल में एक केंद्रीय सत्ता तो स्थापित हो गई है, लेकिन देश में मानवीय संकट का मुकाबला करने के लिए हुकूमत न तो तत्पर है और न ही उसके पास आर्थिक संसाधन है। कूटनीतिक मोच्रे पर भी तालिबान हुकूमत अंतरराष्ट्रीय मान्यता हासिल करने में असफल रही है। पाकिस्तान सरकार की जी-तोड़ कोशिशों के बावजूद अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने तालिबान हुकूमत को राजनयिक मान्यता नहीं दी है। मुस्लिम देश भी इस्लाम के नाम पर बनी इस हुकूमत को मान्यता देने को उत्सुक नहीं है।
पाकिस्तान सरकार ने मजहबी कार्ड खेलते हुए आज इस्लामाबाद में सत्तावन इस्लामी देशों के संगठन ओआईसी (आग्रेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन) की बैठक आयोजित की है। पाकिस्तान की कोशिश है कि ओआईसी बिरादर मुस्लिम देश की मदद करें। पाकिस्तान यह भी चाहता है कि इस्लामी देश तालिबान को मान्यता देने के साथ ही उसे पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान करें। पाकिस्तान का रवैया पाखंडपूर्ण है। वास्तव में पाकिस्तान अपनी छवि अफगानिस्तान के सबसे बड़े शुभचिंतक के रूप में सामने रखना चाहता है। दूसरी ओर पाकिस्तान, अफगान आवाम की सहायता के लिए भारत की ओर से 50 हजार टन गेहूं भेजे जाने की पेशकश के संबंध में आनाकानी का रवैया अपना रहा है। भारत चाहता है कि अफगान आवाम को गेहूं की आपूर्ति पाकिस्तान के सड़क क्षेत्र से की जाए। स्वयं तालिबान नेताओं ने सरकार से आग्रह किया था कि गेहूं की आपूर्ति के लिए वह अपने सड़क मार्ग की अनुमति दे, लेकिन पाकिस्तान ने मानवीय सहायता के आधार पर की गई पेशकश पर भी कई शत्रे लगाई हैं।
भारत इस संबंध में पाकिस्तान के साथ बातचीत कर जल्द-से-जल्द गेहूं आपूर्ति करने का इच्छुक है। भारत ने अफगान आवाम को गत 11 दिसम्बर को विश्व स्वास्थ्य संगठन के जरिये दवाइयां और चिकित्सा सामग्री भेजी है। खाद्यान्न आपूर्ति के बारे में भी भारत का यह मत है कि यह सामग्री सही हाथों में पहुंचे तथा बिना भेदभाव के इसका वितरण हो। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के अनुसार अफगानिस्तान में भुखमरी के हालात हैं। अफगानिस्तान के बारे में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भी दुविधा की शिकार है। एक ओर वह अफगान आवाम की सहायता करना चाहती है तो दूसरी ओर तालिबान शासकों पर आवश्यक सुधार करने के लिए दबाव भी बनाना चाहती है। उसका मानना है कि आर्थिक संसाधनों को रोक कर तालिबान पर दबाव बनाया जा सकता है। अफगानिस्तान को मिलने वाली अरबों डॉलर की आर्थिक सहायता, कर्ज और संपत्ति जारी नहीं किया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय दानकर्ता भी राहत राशि का वितरण तालिबान प्रशासन के बजाय स्वयंसेवी संस्थाओं के जरिये करना चाहते हैं। पिछले हफ्ते दानकर्ताओं की ओर से संयुक्त राष्ट्र बाल एजेंसी-यूनिसेफ और विश्व खाद्य कार्यक्रम के लिए करीब 28 करोड़ डॉलर की राशि जारी की गई। इसके जरिये करीब एक करोड़ लोगों के भोजन और स्वास्थ्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकेगी।
अफगानिस्तान से आतंकवाद के खतरे को लेकर पड़ोसी और क्षेत्रीय देशों की चिंता पहले की तरह बरकरार है। हालांकि पिछले चार महीने के दौरान अफगानिस्तान की भूमि से किसी तरह के आतंकवादी हमले और साजिश की रिपोर्ट नहीं हुई है, लेकिन भारत सहित विभिन्न देश सतर्क हैं। वास्तव में पाकिस्तान को छोड़कर अन्य क्षेत्रीय देशों ने एक तरह से तालिबान की घेराबंदी कर रखी है। इसे भारत की विदेश नीति की सफलता माना जाएगा कि उसने अफगानिस्तान से आतंकवाद के खतरे के संबंध में अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान आकृष्ट ही नहीं कराया बल्कि एक सामूहिक रणनीति तैयार करने में भी पहल की। इसी क्रम में भारत ने अफगानिस्तान के पड़ोसी मध्य एशिया के देशों के साथ विचार-विमर्श बनाए रखा। काबुल की हुकूमत यदि पाकिस्तान के शिकंजे से मुक्त होकर स्वतंत्र नीति अपनाती है तो वह भारत की ओर से मानवीय आधार पर ही नहीं बल्कि विकास कार्यों के लिए नई दिल्ली की आर्थिक सहायता की अपेक्षा कर सकती है।
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