कृषि कानून : क्रुफ टूटा खुदा-खुदा करके!

Last Updated 29 Nov 2021 12:34:03 AM IST

लाए उस बुत को इल्तिजा करके। कुफ्रटूटा खुदा-खुदा करके।’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने और कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर विचार के लिए समिति बनाने की घोषणा पर सबसे अच्छी टिप्पणी लखनऊ के उन्नीसवीं शताब्दी के नामचीन शायर पं. दयाशंकर ‘नसीम’ के इस शे’र की मार्फत की जा सकती है।


कृषि कानून : क्रुफ टूटा खुदा-खुदा करके!

अपने साल भर के आंदोलन में किसानों ने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। उन्हें शीत-ताप और बारिश के बीच कई मौसम राजधानी की सीमाओं पर खुले आसमान के नीचे अस्थायी टेंटों में बिताने पड़े, दमनकारी सरकारी अड़ंगेबाजी के बीच सात सौ से ज्यादा शहादतें देनी पड़ीं और अनगिनत लांछन झेलने पड़े। किसानों के आंदोलन के आरंभ से ही उसकी वैधता और विसनीयता पर नाना प्रकार के दोष लगाने आरंभ कर दिए गए थे। कभी उन्हें मुट्ठी भर बताया तो कभी किसान मानने से ही इनकार कर दिया गया। खालिस्तानी, देशद्रोही से लेकर आंदोलनजीवी, परजीवी और मवाली तक उन पर भला कौन-कौन-सी तोहमत नहीं लगाई गई? लांछित करने का सिलसिला उत्तर प्रदेश के लखीमपुरखीरी में कुचल मारने तक जा पहुंचा तो भी शोक या सहानुभूति के सरकारी बोल नहीं ही फूटे। यह तो किसानों का जीवट था कि इसके बावजूद अहिंसक संघर्ष के पथ से विचलित नहीं हुए, अपने आंदोलन को दुनिया के सबसे लंबे आंदोलनों में से एक बनाया और सरकार की उम्मीद के अनुसार थक या हार जाने की बजाय लंबी लड़ाई को तैयार रहे। प्रधानमंत्री कहें कुछ भी, यह विश्वास उन्हें भी नहीं ही होगा कि उनकी घोषणा मात्र से उनकी सरकार और किसानों के बीच अविश्वास की वे सारी दीवारें कहें या गांठें एक झटके में ढह या खुल जाएंगी। वैसे ही, जैसे अब तक किसानों के कई शुभचिंतकों तक को विश्वास नहीं था कि ‘दृढ़निश्चयी’ प्रधानमंत्री को किसी भी तरह कृषि कानूनों की वापसी की सीमा तक ‘झुकाया’ जा सकता है।

हालांकि प्रधानमंत्री ने अभी भी कृषि कानूनों में कोई खामी नहीं मानी है। वापसी का कारण भी यह नहीं बताया है कि देर से ही सही, उन्हें उनमें कुछ काला या किसान विरोधी दिख गया है। इतना भर कहा है कि वे कुछ किसानों को इन कानूनों की अच्छाइयां नहीं समझा सके। क्या अर्थ है इसका? यही तो कि जिस किसान आंदोलन ने अपने अप्रतिम जीवट से उन्हें इस यू-टर्न के लिए विवश किया, वे अभी भी उसे कुछ नासमझ किसानों का आंदोलन ही मान रहे हैं। फिर क्यों न किसान नेता राकेश टिकैत ‘जाट मरा तब जानिए जब तेरहवीं हो जाए’ की तर्ज पर एहतियात बरतते हुए कह दें कि किसान अपने घर तभी वापस जाएंगे, जब विवादित कृषि कानूनों को बाकायदा संसद के रास्ते वापस ले लिया जाएगा। संयुक्त किसान मोर्चा चाहता है कि पीएम की घोषणा पर अमल का इंतजार किया जाए। प्रधानमंत्री मोदी चाहते तो उसका इंतजार खत्म करने के लिए अध्यादेश लाकर कृषि कानूनों को फौरन रद्द कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। दूसरे, साफ दिखता है कि प्रधानमंत्री के यू-टर्न के पीछे उनकी और पार्टी की अलोकप्रियता का वह डर है, जो किसानों के आंदोलन के चलते लगातार बड़ा होता जा रहा था। इस डर के अलावा और क्या वजह हो सकती है कि किसानों की जिस अनसुनी को विपक्षी दल ‘प्रधानमंत्री का अहंकार’ और ‘भाजपा की क्रूरता’ कहते आ रहे थे, वह अचानक इस कदर विगलित हो जाए कि प्रधानमंत्री के मुंह से फूल झड़ने लगें, माफी जैसे शब्द निकलने लगें। चुनाव में हार के डर से ऐसा हुआ है तो भी इसे लोकतंत्र की शक्ति के रूप में ही देखा जाएगा। कहा जाएगा कि अंतत: किसानों की जनादेश को प्रभावित करने की शक्ति उनके काम आई।
फिर भी इस सवाल को जवाब की दरकार रहेगी कि पांच राज्यों के चुनाव सिर पर न होते तो प्रधानमंत्री को अपनी ‘तपस्या में कमी’ महसूस कराने के लिए किसानों को अभी कितना और लंबा संघर्ष करना पड़ता? जवाब के लिए भी बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं। उच्चतम न्यायालय में विभिन्न सुनवाइयों के दौरान सरकार द्वारा उनके आंदोलन के विरु द्ध दी गई नाना प्रकार की संवेदनहीन दलीलों से ही इसे समझा जा सकता है। इससे भी कि किस तरह सरकार ने कोरोना की आपदा को अवसर में तब्दील कर पर्याप्त बहस-मुबाहिसे के बिना और विपक्ष की सेलेक्ट कमेटी को भेजने की मांग की अनसुनी कर बहुमत की निरंकुशता के बूते तीनों कृषि बिलों को पारित कराया था। दु:खद यह है कि इन कानूनों की संवैधानिकता के परीक्षण का मामला शीर्ष अदालत पहुंचा तो वहां भी समय रहते फैसला नहीं हो पाया और बात अमल पर रोक लगाने तक सिमट गई।

कृष्ण प्रताप सिंह


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