लोकरंग : शरद ऋतु, रात्रि जागरण और जट-जटिन लोकनृत्य

Last Updated 28 Nov 2021 12:47:43 AM IST

हमारे देश के हर कोने में कोई न कोई लोक जीवन आबाद है। हर क्षेत्र की तरह बिहार और झारखंड की समृद्ध संस्कृति के पीछे भी जो इतिहास है उसमें लोक गीतों और लोक गाथाओं का बहुत हीं महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।


जट-जटिन लोकनाट्य

पूरे सालभर में कभी सामा-चकेबा के गीत गाए जाते हैं, कभी करमा देव की पूजा करते हैं तो कभी ग्राम्य देवी के विभिन्न रूपों की पूजा। हर मौके पर लोकगीत यहां के लोक जीवन का हिस्सा है। बदलते परिवेश में इन गीतों के स्वरूप भी बदले हैं। कई बार तो इन बदलते लोकगीतों पर पाश्चात्य गीतों और फिल्मी गीतों के प्रभाव को देखकर निराशा भी होती है। पर गीत-नृत्य के इसी फेहरिस्त में जट-जटिन नामक एक लोक नृत्य भी है जो कि आज भी वहां के आंचलिक हिस्सों में काफी प्रचलित है, और करीब-करीब अपने मौलिक अंदाज में ही उपस्थित है। किंवदंती है कि जट-जटिन लोकनाट्य का श्रीगणेश बिहार के समस्तीपुर जिले के शाहपुर पटोरी नामक गांव से हुआ है। चौदहवीं सदी में हरियाणा के जाट समुदाय के कुछ लोग यहां आकर बस गए थे। जोर-जोर से गाना और नाचना उनके स्वभाव में था। वे लोग जो गीत गाते थे उसे यहां के मूल निवासी ‘जाट-जटिन’ के गीत कहते थे और उनकी नकल भी उतारते थे।
धीरे-धीरे यह बिहार के समाज में घुलता चला गया। इसी का अपभ्रंश है जट-जटिन लोकनाट्य, लेकिन अब यह लोकनाट्य पूर्ण रूप से बिहार के रंग में रंग चुका है। इसमें दो पक्ष के बीच गीतों द्वारा संवादों का आदान-प्रदान होता है। एक पक्ष जट की तरफ से बोलता है और दूसरा पक्ष जटिन की तरफ से। इस लघु प्रहसन में पुरुषों का कोई दखल नहीं होता है। जो पक्ष जट की तरफ से होते हैं वे अपने माथे पर मोटा सा साफा या पगड़ी और तन पर बंडी पहन लेती हैं। जटिन के पक्षवाले फूलों से अपने आप को सुसज्जित करती हैं। शेष महिलाएं जरूरत के हिसाब से अपने आप को सजा लेती हैं और जट-जटिन के परिवार वाले बन जाते हैं। दोनों दल आमने सामने खड़े होकर गीतों के माध्यम से उत्तर-प्रति उत्तर देते हैं तथा नृत्य और अभिनय करते हैं। ये महिलाएं खुद हीं कलाकार भी होती हैं और दर्शक भी। स्वाभाविक तौर पर इन्हें किसी मंच की आवश्यकता भी नहीं होती है। हाल के कुछ दिनों में इसका मंच पर भी प्रदर्शन होने लगा है, लेकिन लोक की उष्मा वहां भी बनी हुई है। जट-जटिन की कथा वस्तु अत्यंत लघु होती है। यह अक्सर पति-पत्नी के बीच का संवाद होता है, या प्रेमी और प्रेमिका के ब्याह और प्यार की बातें होती हैं तो कभी जटिन के फरमाइशों को जट कैसे पूरा करता है उस प्रसंग पर गीत और मान-मनौव्वल का दौर चलता है। कभी-कभी बेटी के मायके बुलाए जाने, उसके भाई के आगमन और सावन-भादो की बढ़ती नदी में यात्रा के जोखिमों का सजीव वर्णन होता है।

वस्तुत: यह एक ऐसा आंचलिक लोक नाट्य है, जिसे बिना किसी विशेष तैयारी के स्त्री समाज सामुदायिक उत्सव के रूप में मनाता है। इसमें दाम्पत्य जीवन का वह मार्मिंक पक्ष उभरता है जो न पौराणिक कथाओं में वर्णित है और न परम्परागत प्रेमाख्यानों में। जट-जटिन के प्रेम और उसके परिणय सूत्र में बंध जाने और उसके बाद के जीवन को लेकर एक लोक गाथा इस प्रकार से है-हम तो लाया आजन-बाजन और तुम करो बियाह। सांवर गेरूली होय जयतई जट के बियाह, लेकिन जटिन पक्ष कहती है कि-नै लेबै आजन-बाजन नै करबै बियाह। सांवर गेरूली मोर गउरी रहि जइतई कुमारी।। अत्यधिक मान-मनौव्वल के साथ दोनों का पाणि-ग्रहण हो जाता है। जटिन-जट के घर आ जाती है। रास्ते भर दोनों पक्ष के लोग उनके स्वागत के गीत गाते रहते हैं। जट अपने घर आने पर जटिन को अपने परिवार के साथ नम्रता के साथ पेश आने की सलाह देता है। लबिक..चलिहे गे जटिन, लबिक.. चलिहे गे। जैसे कांच करचिया, वैसे लबिक..चलिहे गे। लेकिन जटिन उसे नहीं मानती है और कहती है मैं तो अपने माता-पिता की इतनी दुलारी हूं। कभी किसी का आदेश नहीं माना है तो तुम्हारी किस तरह से मानूं। निहये लबबो रे जटा, निहये लबबो रे। हम त बाबा के दुलारी धिया निहये लबबो रे। इसी तरह के वाद-विवाद चलता रहता है। प्रेम से भरे इस माहौल में जटिन जट से कभी उसकी कमाई के बारे में पूछती है तो कभी खुद के लिए आभूषण बनवाने को कहती है। हाथी दांत वाले कंघी भी उसे खूब भाते हैं।
रूठने मनाने की क्रिया में एक बार जट जटिन में लड़ाई हो जाती है और वह मायके जाने लगती है, उसे बहुत मनाने की कोशिश करता है लेकिन जटिन नहीं मानती है। जट जटिन की विरह वेदना से ग्रसित होकर कहता है-तोरे बिनु अंगना में दुभिया जनमल गे जटिन। सेजिया पे मकड़ा के जाली भई गेल गे जटिन, तोरे रे बिनु।। जट जटिन के वियोग में परेशान हो जाता है और उसे मनाने के लिए ससुराल जाता है और उसे मनाकर घर ले आता है। गीत-नृत्य पर आधारित इस कथा का प्रसंग चाहे जो भी हो, अंत हमेशा सुखांत ही होता है, और जट-जटिन में सुलह हो ही जाती है। आज भी बिहार के कुछ आंचलिक हिस्सों में शरद-ऋतु के महीने में देर रात तक जागकर ये गीत-नृत्य करती हैं।
 

प्रीतिमा वत्स


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