वैश्विकी : मोदी-पुतिन शिखर वार्ता

Last Updated 28 Nov 2021 12:52:55 AM IST

बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की बात करना आसान है, लेकिन इस संदर्भ में विदेश नीति का संचालन एक बड़ी चुनौती है।


मोदी-पुतिन शिखर वार्ता

एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी या विरोधी देशों के साथ संबंध कायम करना भले ही आज के परस्पर-निर्भर विश्व की मांग है, लेकिन ऐसा करते समय विभिन्न देशों के कोप का भी सामना करना पड़ता है। भारत की विदेश नीति भी आज ऐसी ही चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है। शीतयुद्ध के दौर में अमेरिका या सोवियत संघ की द्विपक्षीय विश्व व्यवस्था में विश्व के सामने यह सहूलियत थी कि वे किसी एक पक्ष के साथ जुड़ जाएं अथवा गुटनिरपेक्ष रहें। महाशक्ति बनने की विकास यात्रा पर निकले भारत के लिए अमेरिका, रूस, चीन और यूरोपीय संघ जैसे विभिन्न ध्रुवों के साथ अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप संबंध कायम करना चुनौतीपूर्ण है।
नरेन्द्र मोदी सरकार पिछले सात वर्षो के दौरान काफी सीमा तक विभिन्न शक्ति केंद्रों के साथ उपयोगी संबंध कायम करने में सफल रही है। पिछले वर्ष पूर्वी लद्दाख में चीन की सैनिक चुनौती ने विदेश नीति पर अप्रत्याशित दबाव बनाया है। इस संबंध में गौर करने वाली बात यह भी है कि जहां भारत और चीन के बीच  परस्पर विश्वास आज न्यूनतम स्तर पर दिखाई देता है वहीं द्विपक्षीय व्यापार रिकार्ड ऊंचाइयां हासिल कर रहा है। कोरोना महामारी के कारण अर्थव्यवस्था में आए व्यवधान और गिरावट से उबरने के लिए व्यापारिक संबंधों में कोई कटौती देश के राष्ट्रीय हित में नहीं थी। यही कारण है कि सीमा पर तनाव है, लेकिन द्विपक्षीय व्यापार रिकार्ड स्तर पर है। प्रतीत होता है कि भारत और चीन दोनों इस बात पर सहमत हैं कि सीमा पर गतिरोध के बावजूद अन्य क्षेत्रों में संबंधों को सामान्य रखा जाए। इसी क्रम में भारत, रूस और चीन (रिक) की विचार-विमर्श प्रक्रिया पहले की तरह कायम है।

विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने शुक्रवार को रूस के विदेश मंत्री सग्रेई लावरोव और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये संवाद किया। भारत की मेजबानी में संपन्न इस विचार विमर्श के बाद एक वक्तव्य जारी किया गया। इसमें अफगानिस्तान सहित दुनिया के विभिन्न देशों के घटनाक्रम के बारे में साझा राय व्यक्त की गई। वक्तव्य से यह भी स्पष्ट होता है कि अधिकतर विश्व मामलों पर तीनों देशों की राय एक जैसी है। वक्तव्य का एक महत्त्वपूर्ण बिंदु यह है कि इसमें बीजिंग में आयोजित होने वाले शीतकालीन ओलंपिक और पैरा ओलंपिक को समर्थन दिया गया। उल्लेखनीय है कि पश्चिमी देशों में बीजिंग के शीत ओलंपिक का बहिष्कार करने की सुगबुगाहट चल रही है। ताइवान और हांगकांग की चीन के आक्रामक तेवरों और शिक्यांग में उइगर मुसलमानों के उत्पीड़न के मुद्दे पर शीतकालीन ओलंपिक के बहिष्कार की मांग उठ रही है। ऐसे में इन खेलों के आयोजन के प्रति भारत का समर्थन चीन के लिए खुशी की बात है। यह जरूर है कि पश्चिमी देशों में ही नहीं बल्कि भारत में भी यह सवाल उठेगा कि चीन के प्रति ऐसी दरियादिली क्यों दिखाई जा रही है?  
दिसम्बर महीने के शुरू में ऐसे आयोजन हो रहे हैं जो भारतीय विदेश नीति के लिए परीक्षा की घड़ी साबित होंगे। रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच 6 दिसम्बर को शिखर वार्ता आयोजित है। पिछले वर्ष कोरोना महामारी के कारण यह शिखर सम्मेलन नहीं हो पाया था। यह 21वां भारत-रूस शिखर सम्मेलन है। इस दौरान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस. जयशंकर अपने रूसी समकक्षों के साथ 2+2 वार्ता करेंगे। शिखर वार्ता से पहले राष्ट्रपति पुतिन ने चीन के संबंध में जो नीति विषयक वक्तव्य दिया वह भारत के लिए असमंजस पैदा करता है। पुतिन ने रूस और चीन के संबंधों को इतिहास में सबसे मजबूत बताते हुए इसे दुनिया के लिए आदर्श बताया।
पूर्वी लद्दाख में चीन की चुनौती के बीच भारत के सबसे भरोसेमंद मित्र देश रूस के राष्ट्रपति का यह बयान समस्या पैदा करता है। जहां तक रूस का संबंध है वह चीन के साथ मजबूत गठबंधन रखते हुए भी भारत को समान रूप से महत्त्व दे रहा है। यही कारण है कि पुतिन की यात्रा के समय ही भारत को रूस से मिसाइल विरोधी वायु सुरक्षा प्रणाली एस-400 मिलने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। पुतिन और मोदी की वार्ता पर पूरी दुनिया की नजर है। इस वार्ता के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति 9-10 दिसम्बर को विश्व लोकतंत्र वार्ता आयोजित कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी इसमें भाग लेंगे। इस संवाद में रूस और चीन को आमंत्रित नहीं किया गया है।

डॉ. दिलीप चौबे


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