सरोकार : हुनर-हौसले से आकाश छू लेने की जिद
हाल में देश के दो अलग राज्यों से आई दो अलग-अलग खबरों ने चौंकाया। भले ही दोनों घटनाओं में कोई बुनियादी साम्यता न हो लेकिन वैचारिकी के स्तर पर वे समरूप प्रगतिशील सोच को प्रतिबिंबित करती हैं।
![]() सरोकार : हुनर-हौसले से आकाश छू लेने की जिद |
ऊंचे उड़ने और आकाश छू लेने की जिद ने आधी आबादी को हमेशा भीड़ से पृथक किया है। यहां जिन खबरों की चर्चा हो रही है, उनमें से एक है बंदूक छोड़ने वाली नक्सली महिलाओं का सफल उद्यमी बनना; और दूसरा बिहार जैसे राज्य, जहां अभी भी संपूर्ण टीकाकरण की राह में अड़चनें हैं, में टीका लेने के मामले में महिलाओं का पुरु षों के मुकाबले कई कदम आगे निकल जाना।
हैरानी की बात है कि नक्सल गतिविधियों के लिए कुख्यात महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में बंदूक छोड़ने वाली महिलाएं फ्लोर क्लीनर जैसे उत्पाद लॉन्च कर सफल उद्यमी बन गई हैं। जिनके हाथों में बंदूक हुआ करती थी वे अब हुनर सीख कामयाब उद्यमी बनने की राह पर हैं। दूसरी ओर, बिहार में अब कुल टीकाकरण में महिलाओं का टीकाकरण पुरु षों से ज्यादा हो गया है। कुल डोज में 3.76 करोड़ से अधिक महिलाओं को दोनों डोज लगी हैं जबकि केवल 3.71 करोड़ पुरुष ही टीकाकृत हुए हैं।
दोनों घटनाओं ने महिलाओं के प्रति लंबे समय से चले आ रहे दुराग्रहों को तोड़ा है। अपनी सामाजिक चेतना के चलते वे न केवल व्यावहारिक जीवन में अपितु सामाजिक जीवन में भी पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गई हैं। उस तबके के लिए अब आत्मालोचना का समय है, जिसने आत्ममुग्धता के चलते बौद्धिक परीक्षण की ताकत से हमेशा इस वर्ग को कमतर आंकने की चेष्टा की। निश्चित ही अज्ञेय की पंक्तियां यहां मुखर हो उठती हैं कि ‘मैं सन्नाटा बुनता हूं’। निस्संदेह समय और काल की चाक पर स्त्रियों ने अत्यंत कुशलता से खुद को बुना है, और यह बुनना बड़े बदलाव का वाहक बना। परंपरा में स्त्री चेतना का वृक्ष गहरे धंसा था। उनके सामर्थ्य और काबिलियत को उद्दात भाव से कभी स्वीकारा नहीं गया। लेकिन समय के साथ ये संकीर्णताएं ढलान पर हैं। इसलिए नहीं कि महिलाओं को लेकर सोचने का पुरुषवादी सामाजिक नजरिया बदल गया है, बल्कि इसलिए कि कभी न हारने वाली इस कौम ने संकल्प, जीवटता और चेतना की ताकत से उन्हें ऐसा करने पर विवश किया है।
बहरहाल, दोनों घटनाएं बानगी हैं कि महिलाएं प्रगतिशील सोच के साथ अपने आसपास बौद्धिकता का एक भरा-पूरा संसार बुन रही हैं। विचारधारात्मक ऊहापोह के बीच रहते हुए भी अपरिमार्जित विचार तत्व को अपने ऊपर हावी नहीं होने देतीं। समय आ गया है कि सघनता और संश्लिष्टता से न केवल उनकी बात सुनी जाए, बल्कि उनकी उपादेयता को भी स्वीकारा जाए। उनके प्रति बेचारगी और अस्तित्ववादी अकेलेपन जैसी धारणाओं को सिरे से खारिज किया जाए। स्त्रियों ने सामाजिक वैषम्य के अवरोधों को एक तरफ ठेल कर अपने लिए खास जगह पुख्ता कर ली है। कोई उन्हें अब गैरवाजिब, गैरमामूली और अप्रगतिशील समझने की भूल न करे। ढलती परंपरा और भविष्य के बीच खड़ी वे अपना रास्ता बनाने के लिए तत्पर दिखती हैं। उनकी वैचारिकी की ऊंची इमारत उठाने वाले मीनार शिल्प की भांति है। और यह इमारत अनेक पुश्तों, चौकियों और बुर्जियों से सुदृढ़ किया हुआ एक किला है, जिसे एक समानांतर कौम के लिए भेद पाना तो अब बिल्कुल मुमकिन नहीं।
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